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अगले दस साल में Apple और Android का क्या होगा?
अनिमेष मुखर्जी।
2010 के दशक में टेक (Tech) में रुचि रखने वाले लोग एक बात पूछते थे, 'आप बेरी वाले हैं या सेब वाले?' मतलब आपको ब्लैकबेरी (Blackberry) का क्वर्टी कीपैड फ़ोन पसंद है या आप टचस्क्रीन वाले ऐपल (Apple) के मुरीद हैं. ये कोई छोटा-मोटा बंटवारा नहीं था. यहां खेमे बने हुए थे, ठीक वैसे ही जैसे पेप्सी बनाम कोका-कोला की जंग थी या मार्वल बनाम डीसी की लड़ाई है. लेकिन 2022 के शुरू होते ही यह सवाल हमेशा के लिए खत्म हो चुका है.
4 जनवरी 2022 से ब्लैकबेरी ओएस हमेशा के लिए बंद हो गया. हालांकि ब्लैकबेरी का बंद होना एक औपचारिकता भर रह गया था और कह सकते हैं कि यह संचार की दुनिया में एंड्रॉइड (Android) के वर्चस्व की आखिरी मुहर है. प्यादे ने एक-एक कर हाथी, घोड़े, वज़ीर सबको मात दे दी. आइए नज़र डालते हैं पिछले एक दशक तक चली ऑपरेटिंग सिस्टम की इस लड़ाई पर, जहां अच्छे-अच्छे महारथी धाराशायी हो गए.
दुनिया बदलने वाला तीसरा ऐपल
साल 2007 में फ़ोर्ब्स ने अपने कवर पर 1 अरब मोबाइल बेचने वाली नोकिया की फ़ोटो छापी थी और लिखा था कि 'क्या कोई इसकी बराबरी कर पाएगा?' इसके 5 साल गुज़रते-गुज़रते नोकिया ढह चुकी थी और 2013 में इसे माइक्रोसॉफ़्ट ने खरीद लिया. यह सिर्फ़ कंपनी की असफ़लता नहीं थी. नोकिया के सिंबियन, मीमो, मीगो, सैमसंग का बाडा, सोनी इरक्सन और ब्लैकबेरी जैसी तमाम कंपनियों के ऑपरेटिंग सिस्टम के कबाड़ बन जाने की दास्तां भी ऐसी ही थी. दरअसल ये कंपनियां उस एक टेक्नॉलजी को समय पर पहचानने में असफल रहीं, जिसने दुनिया के संचार को पहिए और इंटरनेट के आविष्कार के स्तर पर बदला और वह थी आईफ़ोन के पीछे की अवधारणा. कहते हैं कि दुनिया तीन ऐपल ने बदली, पहला ऐडम ने ईव को लाकर दिया. दूसरा न्यूटन के सिर पर गिरा. तीसरा स्टीव जॉब्स के गैरेज से शुरु हुआ.
आइफ़ोन से पहले दुनिया में अलग-अलग तरह के फ़ोन होते थे. अगर आपको अच्छा कैमरा चाहिए, तो अलग, म्यूज़िक के लिए एक्सप्रेस म्यूज़िक, बिज़नेस फ़ोन अलग, कूल लगने वाले डिवाइस अलग. गेम खेलने के अलग, हर चीज़ के लिए एक अलग फ़ोन सीरीज़. आईफ़ोन ने सबसे पहली चीज़ यह किया कि उसने इन सारी श्रेणियों को बदल दिया, आप एक फ़ोन खरीदिए, उसमें सारी चीज़ें अच्छी तरह हो जाएंगी. ढंग की फ़ोटो खिंच जाएगी, गाने भी मिल जाएंगे, वीडियो भी चल जाएगा. अगर फ़ोन में कोई फ़ीचर नहीं है तो ऐप डाउनलोड कर लीजिए, वो काम होने लगेगा और सबसे बड़ी बात इन सारी खूबियों वाला फ़ोन देखने में कूल और सुंदर भी होगा.
दूसरा आईफ़ोन से पहले हाई-फ़ाई टेक्नॉलजी का मतलब था, जटिल होना. नोकिया के E-90 बिज़नेस फ़ोन में सौ से ज़्यादा बटन होते थे और देखने वालों को लगता था कि पता नहीं क्या बवाल चीज़ है. स्टीव जॉब्स ने दाग अच्छे हैं कि तर्ज़ पर दुनिया को समझाया कि तकनीक जितनी आसान है उतनी अच्छी. एक बटन ही सब कुछ कर सकता है और इस बदलाव के बाद से अपने आस-पास की दुनिया को देखिए. आज चाहे अमेरिका का राष्ट्रपति हो या तंज़ानिया के एक गांव में हिंदी गानों पर रील्स बनाने वाले भाई-बहन, स्मार्ट फ़ोन एक ऐसी मशीन है, जो अकेले ही इन दोनों की ज़रूरत को न सिर्फ़ पूरा करती है, बल्कि उसके व्यक्तित्व के हिसाब से ढलकर उसका हिस्सा बन जाती है.
यही नहीं, 'तकनीक मतलब आसान' की अवधारणा सिर्फ़ फ़ोन इस्तेमाल करने तक नहीं रुकी. आपका यूपीआई से पैसे भेजना हो या फेसबुक इस्तेमाल करना, इंस्टाग्राम पर रील्स बनाने के लिए वीडियो एडिट करना, ऑनलाइन वीडियो कॉन्फ़्रेंस करना आज की तारीख में हर कंपनी, हर सेवा चीज़ों को आसान बनाने की कोशिश में लगी रहती है.
ऐपल की नींव पर एंड्रॉइड का साम्राज्य
अलग-अलग फ़ोन की अवधारणा की जगह एक ही फ़ोन में सबकुछ देने की नींव अगर ऐपल ने रखी, तो एंड्रॉइड ने दुनिया को 'ओपन सोर्स' नामक दूसरा शाहकार दिया. साल 2000 से 2010 के बीच गूगल ने माइक्रोसॉफ़्ट को पीछे धकेल दिया था. 1998 में पैदा हुए गूगल के लिए हर कोई कहता था कि तबतक दुनिया भर में फ़ैला माइक्रोसॉफ़्ट इसे खा जाएगा, लेकिन गूगल ने सबसे पहले दुनिया के बेहतरीन दिमागों को अपनी कंपनी में हर कीमत पर जोड़ा और देखते ही देखते माइक्रोसॉफ़्ट एक अधेड़ की तरह हांफ़ रही थी और नौजवान गूगल तेज़ी से भाग रहा था. गूगल को खा जाने की बात छोड़ दीजिए, आज की तारीख में क्रोम, और गूगल सर्च के मुकाबले में इंटरनेट एक्सप्लोरर और बिंज सर्च कहीं हैं ही नहीं. इसकी बुनियादी वजह है, इनका ओपन सोर्स होना.
ओपन सोर्स प्लैटफ़ॉर्म का मतलब है कि उसे कोई भी क्रिएटर इस्तेमाल कर सकता है. आप अपना ऐप बनाकर एंड्रॉइड फ़ोन पर चला सकते हैं. आप अपना हार्डवेयर बनाकर फ़ोन बना सकते हैं और उस पर एंड्रॉइड ऑपरेटिंग सिस्टम डाल सकते हैं. बेसिक एंड्रॉइड में अपने हिसाब से बदलाव करके उसे बदल सकते हैं. इसका नतीजा हुआ कि बेहद कम कीमत पर चायनीज़ स्मार्ट फोन बाजार मिलने लगे और उन पर मिलने वाले ऐप की संख्या अनंत हो गई.Techno
व्हाट्सएप का दीमक जो ब्लैकबेरी का पूरा पेड़ को खा गया
शुरुआत ब्लैकबेरी के बंद होने से की थी, तो वापस उसपर आते हैं. रिसर्च इन मोशन यानि ब्लैकबेरी की दो ही सबसे बड़ी खासियत थीं. पहली थी पुश ईमेल और दूसरी थी बीबीएम यानि ब्लैकबेरी मेसेंजर. पुश ईमेल में आपके फ़ोन पर अपने आप नए ईमेल मिलने की सुविधा थी, जबकि बीबीएम में दो लोग एक दूसरे को मैसेज, फ़ोटो, डॉक्युमेंट वगैरह भेज सकते थे. हालांकि किसी से बीबीएम पर जुड़ने के लिए उसका पिन चाहिए होता था. इसी तरह की कुछ सेवाएं नोकिया भी अपनी कॉर्पोरेट सीरीज़ में देता था, लेकिन ये सभी क्लोज़ सोर्स थीं, यानि इनकी पूरी मिल्कियत कंपनी के हाथ में थी.
इसके बाद आया व्हाट्सएप. व्हाट्सएप पहले साल के लिए मुफ़्त था और क्रॉस प्लैटफ़ॉर्म था. यानि इस बात से फ़र्क ही नहीं पड़ता था कि आपके पास कौनसी कंपनी का फोन है. हम दोनों के फ़ोन में व्हाट्सएप है इतना काफी है. धीरे-धीरे बीबीएम अप्रासंगिक होता गया. उनके कैमरा और यूज़र इंटरफ़ेस पहले ही बेहद औसत किस्म के थे. मैसेंजर और पुश ईमेल का जो किला उन्होंने बांध रखा था, उसे अकेले एक ऐप्लिकेशन ने गिरा दिया.
ऐपल बनाम एंड्रॉइड की लड़ाई कहां पहुंचेगी
इक्कीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक चल रहा है. सवाल उठता है कि आने वाला समय में एंड्रॉइड का क्या होगा या आईओएस का क्या होगा. इसका जवाब साफ़ दिखने लगा है. आपने पिछले कुछ समय में डीसेंट्रलाइज़्ड शब्द बार-बार सुना होगा. यह ओपन सोर्स का अगला स्तर है. ओपन सोर्स में कंपनी आपको बताती है कि कोड इस्तेमाल कैसे करना है लेकिन कंपनी ही सारी शर्तें तय करती है. डीसेंट्रलाइज़्ड में इस्तेमाल करने वाले लोग तय करते हैं कि काम कैसे करना है. आसानी से समझिए. नेटफ़्लिक्स के वीडियो क्लोज़ सोर्स हैं. क्या दिखाना है और किस कीमत पर दिखाना है ये नेटफ़्लिक्स तय करता है. यूट्यूब ओपन सोर्स कॉन्टेंट देता है. आप अपना कुछ बनाइए और यूट्यूब पर डाल दीजिए. लोगों को अच्छा लगेगा तो देखेंगे और आपको कमाई होगी. डीसेंट्रलाइज्ड वर्जन एनएफटी हैं आपने एक वीडियो बनाया और तय किया कि इसे एक लाख रुपए में बेचना है, हो सकता है कि बिक जाए हो सकता है कि न बिके, लेकिन इससे आपको ही सबसे ज़्यादा कमाई होगी और आप ही अपने काम से जुड़े नियम तय करेंगे.
इसलिए, आने वाले समय में ऐपल जैसी कंपनियों को अपने ऑपरेशन में बहुत से आधारभूत बदलाव करने होंगे. जिस तरह पिछले दस सालों में तकनीक और इंटरनेट कंप्यूटर से निकलकर मोबाइल में पहुंच गए और आज बड़ी आबादी ने इंटरनेट सिर्फ़ मोबाइल पर ही इस्तेमाल किया है, उसी तरह एंड्रॉइड अब टीवी, टैबलेट, कैमरों, दरवाज़े की घंटियों जैसी तमाम मशीनों पर चलने लगा है, जबकि आईओएस अपनी तमाम खासियत के बाद भी एक दायरे के अंदर ही है. अब आने वाले समय में ऐपल सिर्फ़ गैजेट्स बनाने वालीं कंपनी बनी रहेगी या अपना रूप बदलेगी, हमें नहीं पता.
कॉर्पोरेट लड़ाइयों के रोचक किस्से लिखने वाले अनुराग भारद्वाज ब्लैकबेरी और नोकिया के डूबने और ऐपल-एंड्रॉइड के भविष्य को लेकर दो शब्द इस्तेमाल करते हैं. पहला है 'द बर्निंग प्लैटफ़ॉर्म'- नॉर्थ सी में एक तेल की लाइन में आग लग गई. उस प्लैटफ़ॉर्म पर खड़े एक कर्मचारी के सामने दो रास्ते थे, या तो जलकर मर जाए या 100 फ़ीट नीचे बर्फ़ीले समुद्र में कूदकर जान दे दे. कर्मचारी ने समुद्र में कूदने का विकल्प चुना, क्योंकि उसमें बचने की एक छोटी सी आशा थी और वो कर्मचारी बच भी गया. इसी तरह से दूसरा शब्द है 'इनफ़्लेक्शन पॉइंट'- इनफ़्लेक्शन पॉइंट गणित में कैल्कुलस से लिया गया है, जिसका इस्तेमाल इंटेल के कोफाउंडर एंडी ग्रोव ने किया था. इसके मुताबिक किसी के भी जीवन में एक पॉइंट ऐसा आता है, जहां वह सबसे ऊपर से एकदम नीचे आ जाए या शून्य से एकदम शिखर पर पहुंच जाए.
पिछले दशक की शुरुआत में नोकिया और ब्लैकबेरी के सामने यही स्थिति थी. अब शायद ऐपल के सामने है. फिलहाल भारत की अर्थव्यवस्था से ज़्यादा हैसियत रखने वाला ऐपल अपनी सत्ता बरकार रखेगा या कोई नया खिलाड़ी आएगा, ये तो वक्त ही बताएगा, लेकिन याद रखिए हमने आपने मोबाइल फ़ोन के एक विलुप्त हो चुके दौर को देखा है और यह विडंबना ही है कि जिन ब्लैकबेरी और नोकिया ने अपनी तकनीक से पूरी दुनिया को बदल दिया, उस बदली हुई दुनिया में उनके लिए ही जगह नहीं है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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