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नवभारत टाइम्स; त्रिपुरा में बीजेपी ने माणिक साहा को नया मुख्यमंत्री बनाया है, जिन्होंने बिप्लव कुमार देब की जगह ली है। माना जा रहा है कि राज्य में सत्ताविरोधी लहर से बचने के लिए पार्टी ने मुख्यमंत्री बदला है। बीजेपी इससे पहले उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक में यह फॉर्म्युला अपना चुकी है। गुजरात में इसी साल और कर्नाटक में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में इसकी परीक्षा होनी है। इन दोनों से अलग उत्तराखंड में तो पार्टी ने छह महीने के अंदर दो-दो बार मुख्यमंत्री बदल दिए थे। इसे चुनाव से पहले बीजेपी का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट बताया जा रहा था। मगर, खुद मुख्यमंत्री धामी के चुनाव हार जाने के बावजूद पार्टी ने वहां दोबारा सरकार बनाने में कामयाबी पा ली। इस आधार पर पार्टी हलकों में इस फॉर्म्युले को काम का माना जा रहा है। लेकिन त्रिपुरा की स्थिति कई मायनों में अलग है।
देब की काम करने की शैली को लेकर बीजेपी के अंदर ही नहीं बाहर भी तीखी प्रतिक्रियाएं देखी जाती रही हैं। उनके बयान तो विवादित होते ही रहे, विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं पर हमले करवाने के आरोप भी लगे। खासकर राज्य में शांति व्यवस्था बिगाड़ने के आरोप में जिस तरह से देश के अलग-अलग हिस्सों के पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ मामले दर्ज कराए गए, उसकी भी व्यापक आलोचना हुई थी। वहीं, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सबसे ज्यादा जोर त्रिपुरा में ही लगा रखा है।
राज्य में पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 25 वर्षों के लेफ्ट शासन का अंत करते हुए सरकार बनाई थी। मुख्यमंत्री बदलकर पार्टी ने संकेत दिया है कि वह तृणमूल कांग्रेस से दो दो हाथ करने को तैयार है। कहा जा रहा है कि बिप्लव को लेकर पार्टी के अंदर भी काफी असंतोष था। इसके साथ यह भी बताया जा रहा है कि त्रिपुरा के नए मुख्यमंत्री माणिक साहा बिप्लब देब के करीबी हैं। केंद्रीय नेतृत्व को बिप्लव ने ही माणिक साहा का नाम सुझाया था।
इन सबके बीच बिप्लव ने यह संकेत भी दिया कि वह पार्टी के फैसले से खुश नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वह केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर सीएम की कुर्सी छोड़ रहे हैं। ऐसे में चुनाव से पहले बीजेपी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती किसी भी खेमेबाजी से बचने और कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की होगी। दूसरी तरफ, विपक्ष मुख्यमंत्री बदलने और सरकार की नाकामियों को मुद्दा बनाएगा। इन सबके बीच देखने की बात यह होगी कि नए मुख्यमंत्री अपने सामने मौजूद चुनौतियों का सामना किस तरह से करते हैं। यही उनकी परीक्षा है, जिसका नतीजा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के बाद आएगा।