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भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उत्थान के पीछे अगर हिंदुत्व का उभार उसकी आत्मा रहा है
संयम श्रीवास्तव भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उत्थान के पीछे अगर हिंदुत्व का उभार उसकी आत्मा रहा है, तो निसंदेह ओबीसी (OBC) समर्थक राजनीति उसकी बॉडी रही है. ये सही है कि मंडलवादी राजनीति वाली पार्टियां बीजेपी की खांटी विरोधी हैं पर यह भी सही है कि बीजेपी के राष्ट्रीय परिदृश्य में छा जाने की कूवत पार्टी में ओबीसी समर्थक राजनीति से संभंव हुआ है. दरअसल इसे समझने के लिए हमें भारतीय जाति व्यवस्था की तह में जाना होगा. आज जिस ओबीसी तबके की बात हम कर रहे होते हैं, उसे हम तीन वर्गों में विभाजित करके सोचेंगे तभी हम पिछड़ी जातियों की राजनीतिक विमर्श में सफल हो सकेंगे.
भारतीय आरक्षण व्यवस्था में जिन जातियों को अदर बैकवर्ड क्लास मान लिया गया है उनमें कुछ जातियां मार्शल कौम हैं. मार्शल कौम को आप सीधे सपाट शब्दों में लड़ाका कौम कह सकते हैं. ऐसी जातियां जिनका इस्तेमाल राजे-महाराजे युद्ध के लिए करते रहे हैं. तथा इन लड़ाकू जातियों के छोटे-मोटे राजघराने-जमिदारियां भी रही हैं. इस विशेषता के चलते ये जातियां आर्थिक रूप से गरीब जरूर हैं, पर सामाजिक रूप से इन्हें लगता है कि ये बड़े हैं और इनका कुल उच्च है. इस कारण ये जातियां ओबीसी होते हुए आरक्षण भी लेने का प्रयास करती हैं और ओबीसी वर्ग में आने वाली अन्य जातियों से ये अपने आपको श्रेष्ठ भी मानते हैं.
इतिहास में ओबीसी बनाम कांग्रेस चलता रहा है
इन पिछड़े वर्ग की लड़ाकू जातियों की मजबूरी ये है कि ये बेचारे आरक्षण का लाभ छोड़ना नहीं चाहते और खुद को पिछड़ा कहलाना भी नहीं चाहते. इन मार्शल जातियों में यादव, गुर्जर, जाट (यूपी को छोड़कर) जैसी जातियां शामिल हैं. इन जातियों में राजनीतिक चेतना मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के पहले ही विकसित हो चुकी थीं. मंडल कमीशन आने के बाद अपने धनबल और बाहुबल के बल पर इन जातियों ने आरक्षण का भरपूर लाभ ही नहीं उठाया, बल्कि राजनीति नेतृत्व भी अपने हाथ में ले लिया.
इन जातियों की राजनीतिक जागरूकता का ही नतीजा रहा कि कांग्रेस के विरोध में दूसरी पार्टियां खड़ी होती रही हैं. उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी, चरण सिंह की दलित मजदूर किसान पार्टी और विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम सिंह यादव की पार्टियों का आधार भी यही जातियां रहीं. दूसरे शब्दों में कहें तो आजादी के बाद कांग्रेस को आइना दिखाने का काम इन्हीं जातियों के भरोसे हो रहा था. कांग्रेस सवर्ण, दलित और अल्पसंख्यकों के सहारे देश पर राज करती रही.
इनके सहारे ही बीजेपी ने पिछले चुनावों में विपक्ष को धूल चटाया था
दूसरे वर्ग में पिछड़े वर्ग की ऐसी जातियां रही हैं जिनका राजनीतिक उत्थान बीजेपी के साथ ही रहा है. ये जातियां खुद को बड़ी जाति समझती रहीं, पर आर्थिक रूप से पिछड़ेपन के चलते इनकी सामाजिक हैसियत नहीं बन पा रही थी. कुर्मी, लोध राजपूत , वैश्यों की पिछड़ी जातियां जैसे साहू, तेली, कटियार आदि. ये जातियां स्वभाविक रूप से बीजेपी की साथी हैं. बीजेपी के उभार में इनका योगदान उतना ही है जितना कि खुद इनका राजनीतिक उत्थान. तीसरी श्रेणी में पिछड़े वर्ग की वो जातियां हैं जो अति पिछ़ड़ी हैं, बस इन्हें हिंदू समाज अस्पृश्य नहीं समझता रहा है. इनकी आर्थिक स्थित और सामाजिक हैसियत न के बराबर ही रही है.
इन जातियों ने अपने संगठन के बल पर पिछले 10 सालों में अपना राजनीतिक वजूद तैयार किया है. अब इन जातियों के नेता बड़े राजनीतिक दलों से सौदा करने की हैसियत बना लिए हैं. इनके नेताओं के पास आज के डेट में वास्तविक वोट बैंक है. ये लीडर जिधर चाहें उनके वोट घूम जाते हैं. यही कारण है कि बीजेपी से लेकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस तक इन छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं को पटाने में लगी हुई हैं.
ये दल किसी भी राजनीतिक पार्टी का वोट बैंक प्रतिशत बढ़ा सकते हैं. इन्हीं के बल पर पिछली बार 2014, 2017 और 2019 में बीजेपी अपने प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाने में कामयाब रही थी. इस बार के चुनावों में इसमें से कई लोगों ने समाजवादी पार्टी का हाथ थाम लिया है. अब सारी लड़ाई इसी वर्ग के लिए है. जिसने इन जातियों का विश्वास हासिल कर लिया उसके सिर पर ही ताज सजेगा.
अखिलेश भी जानते हैं कि जीतने के लिए ओबीसी का साथ चाहिए
टीवी 9 भारत वर्ष के चुनाव विश्लेषक पार्थ प्रीतम दास कहते हैं कि अगर धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव हुआ तो समाजवादी पार्टी कभी भी बीजेपी से नहीं जीत सकती. अब समाजवादी पार्टी देख रही है कि उसे किस मुद्दे पर या फिर किस ध्रुवीकरण से फायदा होगा, इसीलिए वह अब सवर्ण बनाम अन्य जातियों का मुद्दा उछाल रही है.
2012 और 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी को लोग केवल मुस्लिम और यादव वोट बैंक के नजरिए से देखते थे लेकिन 2017 से 2022 तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार उत्तर प्रदेश में है और इस दौरान बीजेपी पर आरोप लगा है कि वह सिर्फ राजपूतों और ब्राह्मणों को आगे लेकर चल रही है. सपा ने तमाम पुलिस अधिकारियों की लिस्ट भी सार्वजनिक कर बताने की कोशिश की कि कैसे इस लिस्ट में ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व है और यह दिखाकर कहीं ना कहीं समाजवादी पार्टी गैर यादव ओबीसी समुदाय को साधने की कोशिश कर रही है. अखिलेश यादव के लिए यह जरूरी भी है क्योंकि उन्हें पता है कि अगर 2022 के विधानसभा चुनाव को जीतना है तो उन्हें गैर यादव ओबीसी वोट बैंक का साथ लेना ही होगा.
2022 के लिए अखिलेश यादव की दो स्ट्रेटजी है
पार्थ प्रीतम दास कहते हैं कि अखिलेश यादव का जो बेस्ट परफॉर्मेंस है वह साल 2012 का है, जिसमें उन्हें 29 फ़ीसदी वोट मिला और 224 विधानसभा सीटें मिलीं. लेकिन अभी का मसला बिल्कुल अलग है. अगर 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव को 29 फ़ीसदी वोट मिला तो उन्हें महज़ 70 से 80 विधानसभा सीटें ही मिलेंगी. इसलिए 2022 के चुनाव में 224 सीटों का आंकड़ा छूने के लिए उन्हें कम से कम 36 से 40 फ़ीसदी वोट अपने पक्ष में गिराना होगा. इसलिए अखिलेश यादव को विधानसभा में कुछ ऐसी कम्युनिटी का भी वोट लेना होगा, जिनका वोट उन्हें कभी नहीं मिला. इसके लिए अखिलेश यादव की दो स्ट्रेटजी है. पहला कि अखिलेश यादव अब तमाम ओबीसी जातियों में लोकप्रिय नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर रहे हैं और उन्हें टिकट देने का काम कर रहे हैं, ताकि यह नेता अपने-अपने समुदाय का वोट समाजवादी पार्टी को आगामी विधानसभा चुनाव में दिलवा सकें. वहीं दूसरी ओर वह उन तमाम ओबीसी जाति केंद्रित पार्टियों के साथ गठबंधन कर रहे हैं जो अपने अपने समुदाय में अच्छी पकड़ रखती हैं.
पार्थ प्रीतम का कहना है कि जैसे अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को मजबूत करने के लिए आरएलडी को साथ लिया जिसकी वजह से वहां जाट और मुस्लिम वोट बैंक मिलकर सपा को मजबूत करेंगे. वहीं सेंट्रल यूपी में समाजवादी पार्टी ने महान दल से गठबंधन किया, जहां पहले से यादव मुस्लिम वोट बैंक सपा के साथ था. अब सपा के साथ अगर कुशवाहा, मौर्या समुदाय का वोटर भी साथ आ जाएगा तो समाजवादी पार्टी मजबूत हो जाएगी. अगर बात पूर्वांचल की करें तो यहां सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन करके समाजवादी पार्टी ने राजभर वोट बैंक को साधने की कोशिश की है जो पूर्वांचल के 6 से 7 जिलों में डिसाइडिंग फैक्टर होता है. वहीं छोटी-छोटी पार्टियों जैसे जनवादी पार्टी, जो संजय चौहान की पार्टी है जिसे नोनिया समाज की पार्टी भी कहा जाता है उसको भी अपने साथ लिया.
अखिलेश यादव कुर्मी वोट बैंक को साधने में जुट गए हैं
दरअसल किसी भी अन्य पार्टी का कोई बड़ा नेता तब तक किसी पार्टी को नहीं जॉइन करता जब तक कि उसे यह यकीन नहीं हो जाता है कि उस पार्टी की जीत हो सकती है इसलिए अखिलेश यादव ने पहले अपना जनाधार बढ़ाया और उसके बाद बीजेपी या बीएसपी से ओबीसी नेताओं को तोड़ने का काम किया. अखिलेश यादव ने सबसे पहले बीएसपी को तोड़ना शुरू किया. अंबेडकर नगर के दिग्गज बीएसपी नेता लालजी वर्मा को तोड़कर अखिलेश यादव ने वहां के कुर्मी वोट बैंक में सेंध लगाई. इसके बाद बीजेपी की माधुरी वर्मा को तोड़ा जो जो नानपारा से सिटिंग एमएलए हैं. माधुरी वर्मा के साथ एक दिलचस्प बात यह है कि वह हर बार अलग-अलग पार्टियों से विधानसभा का चुनाव लड़ती हैं और जीतती भी हैं. लेकिन उनके साथ साथ वह जब भी जिस पार्टी से चुनाव लड़कर जीतती हैं उस पार्टी की प्रदेश में सरकार भी बनती है.
तीसरा नाम राम प्रसाद चौधरी का बस्ती जिले के बड़े बीएसपी नेता थे उन्हें अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी में शामिल कर लिया. डॉक्टर आरके वर्मा जिनकी पकड़ प्रतापगढ़ के कुर्मी वोटरों में तगड़ी है उन्हें एसपी में शामिल कराया. बालकुमार पटेल मिर्जापुर से हैं एक समय वह समाजवादी पार्टी के सांसद हुआ करते थे लेकिन बीते कुछ वर्षों से कांग्रेस में थे अब वह फिर से एसपी में शामिल हो गए हैं. इन सभी नामों में जो सबसे खास बात है कि यह सब कुर्मी समुदाय से आते हैं, यानि अखिलेश यादव इस बार कुर्मी समुदाय को साधने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. दरअसल अखिलेश यादव को पता है कि उत्तर प्रदेश में अगर ओबीसी वोट बैंक को देखें तो यादव के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक कुर्मियों का है और लंबे समय तक समाजवादी पार्टी में बेनी प्रसाद वर्मा कुर्मियों का नेतृत्व करते रहे थे. इसलिए इस बार के विधानसभा चुनाव में जीत के लिए फिर से अखिलेश यादव कुर्मी वोट बैंक को साधने में जुट गए हैं.
ओबीसी वोट बैंक का 40 से 50 फ़ीसदी हिस्सा अपने पाले में करना चाहते हैं अखिलेश
राजाराम पाल अकबरपुर से कांग्रेस के सांसद रहे अखिलेश यादव ने उन्हें भी समाजवादी पार्टी जॉइन कराया क्योंकि राजाराम पाल गडरिया समुदाय से आते हैं. समाजवादी पार्टी के साथ ओमप्रकाश राजभर का भले ही गठबंधन है लेकिन इसके बावजूद भी अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी में राम अचल राजभर को लिया. इसके साथ सीतापुर से बीजेपी के सिटिंग एमएलए जो तेली समाज से आते हैं राकेश राठौर उनको भी समाजवादी पार्टी में जॉइन कराया. इसके साथ ही स्वामी प्रसाद मौर्य का बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी जॉइन करने से एसपी को मजबूत होता दिखाता है. स्वामी प्रसाद मौर्य की पकड़ महाराजगंज और कुशीनगर में अच्छी है.
वहीं उनके बेटे रायबरेली और अमेठी में काफी समय से एक्टिव हैं. वहीं धर्म सिंह सैनी जो सहारनपुर से हैं उन्हें और दारा सिंह चौहान जो गाजीपुर इलाके में अच्छी पकड़ रखते हैं और बीजेपी के मंत्री थे उन्हें समाजवादी पार्टी जॉइन कराया. इन सभी नेताओं को समाजवादी पार्टी जॉइन कराने का मकसद अखिलेश यादव का सिर्फ इतना है कि वह किसी भी तरह से उत्तर प्रदेश के ओबीसी वोट बैंक का 40 से 50 फ़ीसदी हिस्सा अपने पाले में कर लें. अखिलेश यादव अब समाजवादी पार्टी को यादव, मुस्लिम पार्टी के दायरे से निकालकर मुस्लिम, ओबीसी पार्टी के दायरे में लाना चाहते हैं.
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