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महागठबंधन में आरजेडी-कांग्रेस-वामपंथी दल हैं। तीसरे गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा-मायावती की बसपा-ओवैसी की एमआइएम और जनवादी सोशलिस्ट पार्टी है। इनके अलावा एनडीए से अलग होकर अपने बलबूते चुनाव लड़ने वाली पासवान की लोजपा है, जो उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ने की सोच रही है जिन पर जदयू के प्रत्याशी होंगे। चिराग पासवान की रणनीति अपने स्वर्गवासी पिता रामविलास पासवान की रणनीति के प्रतिकूल है। वह चुनाव-पूर्व गठबंधन करते थे, चिराग ने चुनाव-पूर्व उसे तोड़ा है।
कांग्रेस का जनाधार बिहार में नहीं है बचा
बिहार में 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा-जदयू-लोजपा गठबंधन ने 40 में से 39 सीटें जीतीं और 53 प्रतिशत मत प्राप्त किए। इसमें लोजपा जरूर अलग हुई है, पर जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी की वीआइपी के सम्मिलित होने से गठबंधन मजबूत ही हुआ है। वहीं विपक्षी राजद कांग्रेस-वाम महागठबंधन कमजोर है। कांग्रेस का जनाधार बिहार में बचा नहीं। उसे 2019 लोकसभा चुनावों में मात्र 7.7 प्रतिशत और 2015 विधानसभा चुनावों में 6.6 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि राजद को 2019 लोकसभा में 15 प्रतिशत और 2015 विधानसभा में 18 प्रतिशत वोट मिले थे। चूंकि वामदलों का वोट दो फीसद ही है, अत: महागठबंधन को संभवत: 27 प्रतिशत से ज्यादा वोट न मिल सके।
2015 का चुनाव लालू और नीतीश ने मिलकर लड़ा था
इस गठबंधन से जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा के निकलने और मृत्यु से पूर्व बड़े समाजवादी नेता रघुवंश प्रसाद, मुकेश सहनी और जेएमएम के राजद छोड़ने से भी लालू यादव को बड़ा झटका लगा है। 2015 विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिल कर लड़ा था। वे अपने-अपने वोट एक-दूसरे को हस्तांतरित कराने में सफल रहे थे, लेकिन 2020 में वे प्रतिस्पर्धी हैं और परिस्थितियां भी भिन्न हैं।
सुशांत का मामला भी मतदान को कर सकता है प्रभावित
मोदी-नीतीश नेतृत्व के समक्ष बिहार में चुनौतियों की भी कमी नहीं। लोजपा के अलग होने से नीतीश के वोट कटने का संकट है। फिर कुछ मुद्दों पर मतदाताओं का रुख स्पष्ट नहीं। नागरिकता संशोधन कानून, लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की समस्या पर नीतीश की भूमिका और किसानों को देश में कहीं भी अपना माल बेचने की व्यवस्था आदि को विपक्ष कैसे किसान-विरोधी और जन-विरोधी पेश करता है, इससे भी मतदाता प्रभावित हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनावों की घोषणा के पूर्व बिहार के लिए कई विकास योजनाओं का लोकार्पण संभवत: इसके नकारात्मक प्रभाव को कम कर सके। बिहार के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मुंबई में संदिग्ध हालात में मौत का मसला भी मतदान प्रभावित कर सकता है, क्योंकि कांग्रेस-सर्मिथत महाराष्ट्र सरकार ने जिस तरह इसे बिहार बनाम महाराष्ट्र बनाया उससे यह भावनात्मक मुद्दा बन सकता है।
नीतीश को बुलाया जा सकता है केंद्र
प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा समावेशी राजनीति और विकास को विचारधारा के रूप में पेश किया है, पर बिहार की जनता ने उसे कैसे लिया? क्या उसे सबका- साथ, सबका-विकास, सबका-विश्वास पर भरोसा है? यह जम्मू-कश्मीर से अनु. 370 एवं 35-ए हटाए जाने, अयोध्या में राममंदिर निर्माण की शुरुआत होने और तीन-तलाक खत्म किए जाने के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। बिहार का जनादेश ऐसे ही कई पेचीदा सवालों पर जनता की सोच की बानगी पेश करेगा। नीतीश कुमार 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं (बीच में 278 दिन जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री रहे)। उनके 15 वर्षों के शासन से बिहार की राजनीति में मतदाता को कुछ ठहराव सा लग सकता है। शायद नीतीश भी कुछ नयापन चाह रहे हों। मोदी सरकार में कुछ अनुभवी और योग्य लोगों की जरूरत भी है। क्या यह संभव नहीं कि चुनाव जीत कर नीतीश को केंद्र में बुलाया जाए और बिहार का नेतृत्व किसी नवऊर्जावान राजनीतिज्ञ को सौंपा जाए?
कांग्रेस ने 1935 में शुरू की थी जातिवादी की राजनीति
बिहार की राजनीति जातिवादी मकड़जाल से निकलना चाहती है। प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा के अनुसार बिहार में जातिवादी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस ने 1935 में कर दी थी, जब बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्रीकृष्ण सिन्हा ने केंद्रीय नेतृत्व को पत्र लिखा कि 'पार्टी द्वारा पदों और चुनावों में निर्वाचन-क्षेत्र के जातीय समीकरणों को ध्यान में रख कर ही टिकट दिए जाएं, अन्यथा कांग्रेस प्रत्याशियों का जीतना संदिग्ध हो जाएगा', लेकिन कांग्रेस में उच्च-जातियों का दबदबा बना रहा।
भाजपा ने नीतीश, मांझी और साहनी को आगे कर बिहार की राजनीति में किया प्रयोग
जब समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर 1970 और 1977 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने बिहार में पिछड़ी-जातियों के वर्चस्व का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन पिछड़ों का असली दबदबा मंडल के कंधे पर बैठ लालू और नीतीश ने कायम किया, जिससे 1989 के बाद बिहार 'अस्मिता राजनीति' का गढ़ बन गया, पर जैसे- जैसे अस्मिता की राजनीति गरमाती गई, समाजवादी विचारधारा पीछे छूटती गई और उसने अपने ही लोगों को ठग लिया। ऐसे लोगों को 2014 में एक विकल्प दिखा। मोदी ने उन्हें विकास और समावेशी राजनीति की ओर लौटने का आश्वासन दिया। 2014 और 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा की विजय से स्पष्ट है कि बिहार की जनता भाजपा और मोदी को स्वीकारती तो है, लेकिन 2015 विधानसभा चुनाव से स्पष्ट है कि वह अस्मिता और जातिवादी राजनीति को छोड़ने से घबराती भी है। शायद इसी द्वंद्व को समझ भाजपा ने नीतीश, मांझी और साहनी को आगे कर बिहार की राजनीति में नया प्रयोग किया है। उसने राजनीतिक- गठबंधन का आधार सामाजिक-गठबंधन को बनाया है, जो कभी कांग्रेस की पहचान हुआ करता था। इसीलिए आज केंद्र और 18 राज्यों में भाजपा सत्ता में है। बिहार का चुनाव संभवत: इसे और पुष्ट करेगा।