सम्पादकीय

दक्षिण में अपना विस्तार खोजती भाजपा

Rani Sahu
19 July 2022 10:23 AM GMT
दक्षिण में अपना विस्तार खोजती भाजपा
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राष्ट्रपति चुनाव के मतदान में दक्षिण भारत के ज्यादातर वोट भाजपा की प्रत्याशी के खिलाफ ही गए हैं

एस श्रीनिवासन,

राष्ट्रपति चुनाव के मतदान में दक्षिण भारत के ज्यादातर वोट भाजपा की प्रत्याशी के खिलाफ ही गए हैं, तो आश्चर्य नहीं। भाजपा दक्षिण में पांव पसारने के लिए लगातार सक्रिय है, हैदराबाद में हाल ही में आयोजित भारतीय जनता पार्टी की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक इसी कोशिश की एक कड़ी थी। उत्तर, पूर्व और पश्चिमी भारत में अपूर्व सफलता के बाद भाजपा पिछले कुछ समय से दक्षिण में दाखिल होने के हरसंभव प्रयास कर रही है, हालांकि उसे इसमें सफलता बहुत कम मिली है। साल 2024 के संसदीय चुनावों में वह इस परिपाटी को बदलने की कोशिश में है, लेकिन क्या उसे सफलता मिलेगी?
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में दक्षिण के पांच राज्यों और एक केंद्रशासित क्षेत्र की कुल 130 सीटों में से भाजपा 21 सीटें जीतने में सफल रही थी। इसका अर्थ है कि उसकी जीत का प्रतिशत 16 रहा। 2019 में 22 प्रतिशत, यानी 29 सीटें जीतकर उसने अपनी ताकत बढ़ाई। अब उसका मकसद 2024 में अधिक से अधिक सीटें जीतने व राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी अपनी छाप छोड़ने का है। हालांकि, पिछले दो संसदीय चुनावों में देश के बाकी हिस्सों में भारी बहुमत हासिल करने के बावजूद दक्षिण में भाजपा सफल होने के लिए जी-जान लगा रही है, जिसकी दो मुख्य वजह है। पहली, वह इस धारणा को मिटाना चाहती है कि वह उत्तर भारतीय या 'हिंदी पट्टी' की पार्टी है। और दूसरी, रणनीतिक रूप से दक्षिण की जीत उसे एक ऐसी सुरक्षा देगी, जिससे वह उत्तर भारत के प्रदर्शन में आई किसी गिरावट के अंतर को पाट सके
इन पांच दक्षिणी राज्यों में से कर्नाटक में भाजपा पहले से मौजूद है। मगर वह सफलता मोदी युग से पहले की है। उस वक्त भाजपा के सबसे बड़े नेता येदियुरप्पा राज्य में बदलाव लाने में सफल रहे थे- शुरुआत में 2007 में जनता दल (एस) के साथ गठजोड़ करके और बाद में 2008 में अपने दम पर वह सत्ता में आए थे। येदियुरप्पा को मतदाताओं को सहानुभूति मिली थी, क्योंकि उन्हें जद (एस) की राजनीति का शिकार माना गया था। उन्हें वादे के मुताबिक आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद से वंचित कर दिया गया था। मगर बाद में खनन घोटाले में आरोपित होने पर उनको मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। चूंकि भाजपा उनके बचाव में नहीं उतरी, इसलिए उन्होंने पार्टी से नाता तोड़ लिया। उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई, लेकिन 2014 में वह फिर से भाजपा में शामिल हो गए, जिससे भाजपा को फिर से राज्य में अपनी धमक दिखाने में मदद मिली।
साल 2018 के विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ येदियुरप्पा के प्रचार-प्रसार करने के बावजूद भाजपा अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी,पर दलबदल के बाद येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने व विश्वास मत हासिल करने में सफल रहे। हालांकि, बाद में उनकी जगह पर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बना दिया गया, जिनके नेतृत्व में ही पार्टी अगले साल चुनाव में उतर सकती है। नए मुख्यमंत्री के कार्यकाल में हिजाब, हलाल और अजान को लेकर कई विवाद पैदा हुए, जिनमें मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया। मगर उसकी जीत इतनी आसान नहीं लगती है। उसे कांग्रेस का मजबूत प्रतिरोध झेलना पड़ सकता है।
साल 2019 में जिन 29 संसदीय सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी, उनमें से अधिकांश (25 सीटें) कर्नाटक की हैं। यही कारण है कि उसके लिए यह एक अहम राज्य है। चूंकि विधानसभा चुनावों के एक साल के भीतर संसदीय चुनाव होंगे, इसलिए भाजपा 2023 के चुनाव में बहुमत पाने की इच्छुक है। इससे 2024 के लोकसभा चुनाव में उसे अपने पक्ष में माहौल बनाने में मदद मिलेगी। भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी का आयोजन तेलंगाना में किया, क्योंकि राज्य में दो उप-चुनावों, दुब्बाक व हुजूराबाद में जीत और हैदराबाद निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बाद उसे यहां अपने लिए उम्मीदें दिख रही हैं। वह ध्रुवीकरण के अलावा कई अन्य मुद्दों पर ध्यान दे रही है, जिनमें प्रमुख हैं- वंशवादी राजनीति और 'डबल इंजन सरकार' के जरिये बेहतर शासन का आह्वान, यानी केंद्र और राज्य में अगर एक ही पार्टी की सरकार बनती है, तो विकास कहीं अधिक तेजी से होगा।
हालांकि, सच यह भी है कि भारत में क्षत्रप आमतौर पर पारिवारवाद से उपजे नेता रहे हैं, और दक्षिण इसका कतई अपवाद नहीं है। तेलंगाना में टीआरएस, आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी, कर्नाटक में जद (एस), तमिलनाडु में द्रमुक आदि सभी दलों का नेतृत्व वंशवादी कर रहे हैं। केरल में वामपंथी पार्टियों के कारण राजनीति कुछ अलग है, लेकिन वहां भी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कई राजनेता हैं। मगर भाजपा इस पर ध्यान नहीं देती, क्योंकि उसके यहां भी ऐसे राजनेता हैं। हालांकि, यह बहस का एक अन्य मुद्दा है कि परिवारवाद राज्य के विकास में बाधक है? रही बात सांप्रदायिकता की, तो उत्तर की तुलना में दक्षिण ध्रुवीकरण के लिहाज से उतना अस्थिर नहीं रहा है। पर धार्मिक दरारें यहा भी हैं, और भाजपा सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मसलों को उठाकर इसका लाभ बटोरने की कोशिश कर रही है। जैसे, कर्नाटक में हिजाब और हलाल मीट, हैदराबाद में निजामों के शासन, केरल में लव जेहाद, तमिलनाडु में गणेश चतुर्थी एवं मंदिरों पर राज्य के नियंत्रण सहित तमाम विवाद पैदा हुए।
अगला मुद्दा शासन है। परंपरागत रूप से सभी दक्षिणी राज्य उत्तर की तुलना में बेहतर शासित हैं। ऐसे में, बेहतर प्रशासन देने का उसका वादा कहां तक टिकेगा, यह सबसे अहम सवाल है। इतना ही नहीं, सभी दक्षिणी राज्यों में बेहतर सामाजिक संकेतक हैं और स्वास्थ्य व शिक्षा में उनकी उपलब्धियां उत्तरी राज्यों से अधिक हैं। लिहाजा भाजपा के लिए चुनौती यह है कि वह मतदाताओं को कैसे यकीन दिलाए कि क्षेत्रीय दलों की तुलना में वह अच्छा शासन देगी?
फिर, भाजपा के पास दक्षिण में कोई बड़ा नेता भी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी उसके स्टार प्रचारक हैं और तुरुप का इक्का भी। भाषा भी एक मसला है। लिहाजा पार्टी संसदीय चुनाव में बेशक अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करे, लेकिन विधानसभा चुनावों में परिस्थितियां बिल्कुल अलग होंगी। विधानसभा चुनाव में उसे क्षेत्रीय दलों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। लिहाजा वह नई राजनीतिक जगह बनाकर अपने प्रदर्शन को सुधारने के प्रयास कर रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सोर्स Hindustan Opinion Column


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