सम्पादकीय

दक्षिण को साधने में जुटी भाजपा, कांग्रेस का आधार सिमटने से मिलेगी और ज्‍यादा मदद

Gulabi Jagat
16 July 2022 6:50 AM GMT
दक्षिण को साधने में जुटी भाजपा, कांग्रेस का आधार सिमटने से मिलेगी और ज्‍यादा मदद
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सम्पादकीय न्यूज
राहुल वर्मा। बीते दिनों हैदराबाद में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई। इस आयोजन के लिए हैदराबाद के चयन का निर्णय सुविचारित एवं रणनीतिक कदम था। बैठक से पहले प्रमुख भाजपा नेताओं ने तेलंगाना में डेरा डालकर संपर्क अभियान भी चलाया। फिर कार्यकारिणी के मंच से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हैदराबाद को 'भाग्यनगर' के रूप में संबोधित करने के साथ ही मुस्लिमों के पसमांदा समूह के बीच पैठ बनाने का संदेश भी दिया। इस सबके अलावा हाल में केंद्र सरकार ने उड़नपरी पीटी उषा, सुर सम्राट इलैयाराजा, बाहुबली जैसी फिल्म के लेखक के. विजयेंद्र प्रसाद और समाजसेवी वीरेंद्र हेगड़े को मनोनयन के माध्यम से राज्यसभा भेजने का फैसला किया। इनकी जड़ों की पड़ताल करें तो उषा केरल से, इलैयाराजा तमिलनाडु, विजयेंद्र प्रसाद आंध्र और हेगड़े कर्नाटक से आते हैं। ये दोनों घटनाक्रम अनायास नहीं हैं। ये यही संकेत करते हैं कि भाजपा अब दक्षिण में कर्नाटक से आगे बढ़कर अपने किले मजबूत करना चाहती है। यह दांव उसकी दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है।
भाजपा उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसमें एक स्तर के बाद विस्तार की गुंजाइश सीमित हो जाएगी। पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में भी वह पकड़ बनाने में सफल हुई है। बंगाल में तो वह चौथे पायदान से सीधे दूसरे स्थान पर आकर तृणमूल कांग्रेस को टक्कर देने की स्थिति में आ गई है। ओडिशा में भी वह आक्रामक रणनीति और द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति प्रत्याशी बनाने के दांव से मुकाबले में आने की उम्मीद कर रही है। ऐसे में बचता है दक्षिण, क्योंकि वहां कर्नाटक के अलावा उसका कोई खास आधार नहीं। इसीलिए वह दक्षिण को साधने में जुटी है। इसके पीछे यही उद्देश्य लगता है कि आगामी आम चुनाव में उसे यदि अपने स्थापित गढ़ों में कुछ नुकसान उठाना पड़े तो नए क्षेत्रों से उसकी क्षतिपूर्ति हो जाए।
दक्षिण के पांच राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में लोकसभा की 130 और विधानसभा की 912 सीटें हैं। भाजपा के पास इनमें लोकसभा की 30 सीटें ही हैं और उसमें भी 25 अकेले कर्नाटक से। यानी दक्षिण में कर्नाटक के आगे उसे बहुत काम करना है। इन राज्यों में भाजपा की सफलता कई पहलुओं पर निर्भर करेगी। कर्नाटक में वह मजबूत है, फिर भी 2023 में लगातार दूसरा विधानसभा चुनाव जीतना कुछ मुश्किल जरूर, मगर नामुमकिन नहीं होगा। केरल और पुडुचेरी में उसने जड़ें जमाई हैं, लेकिन तमिलनाडु और आंध्र में वह बहुत कमजोर है। इन राज्यों में भाजपा गठबंधन के लिए किन दलों के साथ आती है और उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि वह कर्नाटक और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव अगले साल जीत पाती है या नहीं।
तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेताओं की भाजपा से बढ़ती रार-तकरार तो यही संकेत करती है कि यहां भाजपा की ताकत बढ़ी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां मात्र सात प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, लेकिन अगले साल हुए लोकसभा चुनाव में उसे 20 प्रतिशत मत मिले और मुख्यमंत्री केसीआर की बेटी भी भाजपा प्रत्याशी से चुनाव हार गईं। इसके बाद डुबक्का और हुजूराबाद उपचुनावों में भाजपा को भारी जीत मिली। हैदराबाद निकाय चुनाव में भी उसे अप्रत्याशित सफलता मिली। स्थिति यह हो गई कि हैदराबाद में अपना मेयर बनाने के लिए केसीआर को ओवैसी की पार्टी का समर्थन लेना पड़ा। ये रुझान तेलंगाना में भाजपा की मजबूती का संकेत करते हैं और यही कारण है कि पार्टी यहां पूरे दमखम से अपनी बिसात बिछाने में जुटी है।
कर्नाटक में कुछ आंतरिक खटपट का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। बीएस येदियुरप्पा की सरकार और संगठन दोनों पर बढ़िया पकड़ थी। सत्ता से उनकी विदाई के बाद राज्य में भाजपा के लिए कुछ समीकरण गड़बड़ा गए हैं। हालांकि, मौजूदा मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई भी येदियुरप्पा की तरह राज्य के उसी ताकतवर लिंगायत समुदाय से आते हैं, लेकिन अभी उनकी पकड़ की परीक्षा होना शेष है। फिर भी भाजपा ने राज्य में अपनी तैयारी शुरू कर दी है। यहां वह हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ सुशासन के दम पर मैदान मारने की उम्मीद बांधे हुए है। उसके लिए राहत की बात यह है कि जहां कांग्रेस में सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के बीच तालमेल का अभाव और टकराव जैसी स्थिति है, वहीं जद-एस की ताकत भी कमजोर हुई है। पिछले लोकसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों के गठबंधन के बाद भी भाजपा उस दक्षिण कर्नाटक में कमल खिलाने में सफल रही, जो राजनीतिक रूप से उसके लिए बंजर भूमि माना जाता था। ऐसे में भाजपा यहां कोई बड़ी गलती नहीं करती तो विधानसभा में वापसी और लोकसभा में अपनी ताकत बनाए रखने में उसे शायद उतनी मुश्किल न आए।
केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा के लिए मजबूत आधार तैयार करने में जुटा है। यहां पार्टी अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए पुरजोर तरीके से जुटी है। यही कारण है कि शीर्ष पदों को लेकर उम्र का पैमाना निर्धारित करने के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव में उसने उम्रदराज श्रीधरन को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी तक बनाया। यहां उसकी रणनीति आक्रामक मुस्लिम विमर्श के चलते ईसाई समुदाय के कुछ मतदाताओं को साधने की लगती है। पड़ोसी तमिलनाडु में भाजपा के लिए दाल गलाना मुश्किल है, पर राज्य का बदलता राजनीतिक घटनाक्रम उसके लिए अवसर बनाता दिख रहा है। यहां अगर अन्नाद्रमुक दोफाड़ हुई और उसका एक धड़ा भाजपा से मिल जाता है तो पार्टी को जमीन मिल जाएगी। तब भाजपा यहां सफलता का मिश्रण तैयार करने में सक्षम हो सकती है। पुडुचेरी में तो भाजपा गठबंधन की सरकार काम ही कर रही है, पर केंद्रीय राजनीति में इस संघशासित प्रदेश की खास हैसियत नहीं। आंध्र में अजेय दिख रहे जगन मोहन रेड्डी के चलते भाजपा के लिए यहां कोई खास संभावना नहीं। रेड्डी की पार्टी और भाजपा के बीच एक मौन सहमति जैसी स्थिति भी यही संकेत करती है कि अपनी जड़ें जमाने के लिए भाजपा वहां गठबंधन के जरिये ही कोई राह तलाश सकती है।
दक्षिण की राजनीतिक हवा में बदलाव के आसार दिखने शुरू हो गए हैं। जैसे-जैसे कांग्रेस का आधार इन क्षेत्रों में सिमटता जाएगा, तो भाजपा के लिए इन राज्यों में पैठ बनाने का रास्ता खुलता जाएगा।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)
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