सम्पादकीय

द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए राजग प्रत्याशी बनाकर समावेशी राजनीति को सशक्त बनाती भाजपा

Rani Sahu
29 Jun 2022 10:44 AM GMT
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए राजग प्रत्याशी बनाकर समावेशी राजनीति को सशक्त बनाती भाजपा
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द्रौपदी मुर्मू को भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए राजग प्रत्याशी बनाकर समावेशी राजनीति को और सशक्त किया है

डा. एके वर्मा।

सोर्स - जागरण

द्रौपदी मुर्मू को भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए राजग प्रत्याशी बनाकर समावेशी राजनीति को और सशक्त किया है। उनका राष्ट्रपति बनना तय है। कुछ लोग इसे भाजपा के 'हिंदुत्व' एजेंडे से जोड़ेंगे, मगर पार्टी ने जो समावेशी राजनीति 2014 से शुरू की, उसमें समाज के सीमांत वर्गो के प्रतिनिधियों को शीर्ष पदों पर बैठाने, सत्ता में समुचित भागीदारी देने और उनमें गौरव एवं आत्मविश्वास भरने का प्रयास दिखाई देता है। पहले एक दलित राम नाथ कोविन्द और अब आदिवासी महिला को राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनाना पार्टी के चिंतन को दर्शाता है। भाजपा के फैसलों को प्राय: हिंदुत्व', हिंदू-मुस्लिम और चुनावों से जोड़कर देखा जाता है। ऐसा करने वालों को पार्टी के वे प्रयास दिखाई नहीं देते, जो जनाधार बढ़ाने के लिए सभी दलों को करने चाहिए।
लोकतांत्रिक स्पर्धा में जनाधार का महत्व सर्वविदित है, लेकिन जनाधार बढ़ाया कैसे जाए? सरकार की हर बात पर आलोचना से तो जनाधार बढ़ेगा नहीं। इसके लिए संगठनात्मक विस्तार और विचारधारा का प्रसार जरूरी है। इसी मोर्चे पर भाजपा ने नए प्रतिमान गढ़े हैं। 1980 में जनता पार्टी के टूटने के बाद अस्तित्व में आई भाजपा ने 1984 लोकसभा चुनावों में मात्र दो सीटें और सात प्रतिशत वोट पाए, जबकि कांग्रेस को तब 404 सीटें और 49.1 प्रतिशत वोट मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस 52 सीटों और 19.6 प्रतिशत वोट पर सिमट गई, जिनमें 60 प्रतिशत सीटें केवल केरल, तमिलनाडु और पंजाब से थीं। वहीं भाजपा को 303 सीटें और लगभग 40 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस का घटता और भाजपा का बढ़ता जनाधार इसका संकेत है कि कैसे एक राष्ट्रीय पार्टी गलत विचारधारा, नीतियों और नेतृत्व के कारण जनता से दूर होती जा रही है, जबकि भाजपा अपना जनाधार बढ़ाने में लगी है।
भाजपा के निरंतर बढ़ते जनाधार की बात करें तो इसे लेकर उस पर तमाम आरोप लगाए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा करना जनादेश का अपमान होगा। इसके बजाय यह पड़ताल ज्यादा उपयोगी होगी कि पार्टी दो से 303 लोकसभा सीटों और सात प्रतिशत से 40 प्रतिशत वोट तक पहुंची कैसे? यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने अपनी पुस्तक 'निकोमैकियन एथिक्स' में लिखा है कि यदि हम सुख को प्रत्यक्षत: प्राप्त करने का प्रयास करें तो वह मृगमरीचिका की भांति हमें छकाएगा, लेकिन जब हम कोई अच्छा काम करते हैं तो सुख उसके 'सह-उत्पाद' के रूप में स्वत: मिलता है। यही बात राजनीति में भी लागू होती है। जब राजनीतिक दल केवल सत्ता के लिए प्रयास करते हैं तो वह छकाती है, लेकिन जब वे अपना जनाधार बढ़ाते हैं तो सत्ता उन्हें सह-उत्पाद के रूप में स्वत: मिल जाती है। भाजपा ने यही किया है।
भाजपा ने विगत 42 वर्षो में विचारधारा, संगठन, नेतृत्व और रणनीति सभी स्तरों पर गंभीर काम किया है। देश में शुरू से ही कांग्रेस के नेतृत्व में वामपंथी झुकाव वाली मध्यमार्गी विचारधारा को मान्यता मिली। हालांकि इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेसी विचारधारा में बदलाव हुए और उसका रुझान कुछ दक्षिणपंथ की ओर हुआ। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने जिस उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण को अंगीकार किया, उसमें दक्षिणपंथ की महक आती थी। इसी के चलते दक्षिणपंथी भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ने लगी। फिर अटल बिहारी वाजपेयी का दौर आया। उनके व्यक्तित्व, कार्यशैली और निर्णयों, विशेषकर परमाणु परीक्षणों ने भाजपा के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ाया। एक समय ऐसा आया कि कांग्रेस और भाजपा बराबर की स्थिति में थीं, पर वापमंथियों के समर्थन से कांग्रेस की सरकार बन गई। तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। उन्हें लेकर जनता में यही भाव था कि वह कांग्रेस आलाकमान की कठपुतली मात्र थे। यही वह दौर था जब कांग्रेस विचारधारा, संगठन और नेतृत्व के स्तर पर अपनी जमीन खोती गई। इसी कारण कांग्रेस के बड़े नेता पार्टी से किनारा करते रहे, जो अब भी जारी है।
दूसरी ओर भाजपा न केवल अपनी विचारधारा पर अडिग रही, बल्कि उसने उसे और गहराई देते हुए समावेशी नीतियों से जोड़ा। उसने संगठन, सरकार और राजनीतिक स्पर्धा में समाज के गरीब, उपेक्षित, सीमांत, दलित, वंचित और अन्य पिछड़ा वर्ग को भरपूर प्रतिनिधित्व दिया। ये सभी वर्ग कभी कांग्रेस की छत्रछाया में थे, मगर कांग्रेस को 'अभिजनों' ने हड़प लिया और इन वर्गो को सत्ता एवं नेतृत्व संरचना से बेदखल कर दिया। इसका परिणाम 1967 में दिखा जब आठ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं जिसे 'प्रथम-जनउफान' की संज्ञा मिली। उसी समय से ये तबके कांग्रेस से खिसकने लगे। 1990 में मंडल आयोग लागू होने पर अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित भी कांग्रेस से काफी छिटक गए और क्षेत्रीय पार्टियों जैसे यूपी में सपा-बसपा, बिहार में राजद, कर्नाटक में जद-एस, ओडिशा में बीजद आदि में चला गया, क्योंकि उसी समय देश में अस्मिता की राजनीति परवान चढ़ रही थी। इसे 'द्वितीय-जनउफान' कहा गया।
अगले 24 वर्षो तक केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर चला और अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का बोलबाला रहा। 2014 लोकसभा चुनावों में देश ने 'तृतीय-जनउफान' देखा, जिसमें नरेन्द्र मोदी ने 'द्वितीय-जनउफान' की ऊर्जा को भाजपा की ओर मोड़ दिया। उन्होंने 282 सीटें और 31 प्रतिशत वोट पाकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई जिसमें गरीबों, दलितों, पिछड़ों की सशक्त भूमिका रही। 2019 में 'तृतीय-जनउफान' और सशक्त हुआ। 2014 के मुकाबले भाजपा को 21 लोकसभा सीटें ज्यादा मिली और उसका जनाधार भी 31 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया।
बार-बार सत्ता हासिल करना महत्वपूर्ण हो सकता है, पर उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण जनाधार बढ़ाना है और भाजपा यह काम बखूबी कर रही है। समाज के सभी वर्गो को लग रहा है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और शीर्ष पदों में उनकी समुचित हिस्सेदारी है। पहले राम नाथ कोविन्द और अब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ाना सांकेतिक कदम कहा जा सकता है, पर इसका संदेश बहुत प्रबल है, जो गरीबों, दलितों, आदिवासियों, सीमांत वर्गो और महिलाओं में जाएगा। इससे भाजपा 'तृतीय-जनउफान' को और सुदृढ़ कर अपना जनाधार बढ़ाने में सहायक होगी।
Rani Sahu

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