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- उत्तर प्रदेश में पुनः...
आदित्य चोपड़ा: पांच राज्यों में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद विभिन्न एजेंसियों द्वारा जो मतदान बाद सर्वेक्षण (एक्जिट पोल) किये गये हैं उनकी सच्चाई का पता तो 10 मार्च को मतगणना वाले दिन ही लगेगा परन्तु इनसे इतना नतीजा जरूर निकाला जा सकता है कि इन चुनावों में मतदाताओं का रुख एक पक्षीय नहीं रहा है और उन्होंने अपने वोट के अधिकार का प्रयोग राजनीतिक चतुरता के साथ किया है। हालांकि कुछ राज्यों में जिस तरह के परिणाम इन सर्वेक्षणों में सामने आये हैं उनसे मतभेद प्रकट करने के वाजिब कारण भी हो सकते हैं। इन सब खामियों के बावजूद जिस तरह सभी प्रमुख सर्वेक्षण एजेंसियां उत्तर प्रदेश में स्पष्ट रूप से पुनः भाजपा नीत योगी सरकार के सत्ता पर आने की भविष्यवाणियां कर रही हैं उससे यह साफ जाहिर होता है कि इस प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव व राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयन्त चौधरी की राजनीतिक जोड़ी को हैसियत से ज्यादा वजन दिया गया और विपक्षी गठबन्धन को ठोस कारगर विकल्प के रूप में लिया गया जबकि चुनावी बिसात बिछने पर ही यह साफ हो गया था कि मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के मुकाबले इन पर दो युवक राजनीतिज्ञों की जोड़ी प्रशासनिक पैमाने पर बहुत हल्की पड़ती दिखाई दे रही है। परन्तु मीडिया के मोदी विरोधी वर्ग ने जिस तरह इस जोड़ी के साथ बन्धी जाति व साम्प्रदायिक समीकरण का विस्तार मतदाताओं के मनोविज्ञान पर किया वह जमीनी हकीकत से इसलिए दूर था क्योंकि उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों के जवाब में भी सशक्त प्रतिरोधी समीकरण बनने की संस्कृति का पिछले तीस साल में जबर्दस्त उदय हुआ है। राज्य में भाजपा की विजय को अखिलेश यादव का कथित जातिगत 'इन्द्रधनुषी गठजोड़' इस वजह से नहीं रोक सकता था क्योंकि इसके विरुद्ध मोदी और योगी का 'शिव धनुषी' युग्म लगातार अपनी टंकार से चुनावी धरातल को झंकृत कर रहा था। चुनावी मैदान में विजय का पहला नियम यह होता है कि जो भी दल अपना विमर्श खड़ा करके अपने विरोधी को उस पर रक्षात्मक बना देता है वही विजय का पात्र बन जाता है। स्वतन्त्र भारत का पूरा चुनावी इतिहास इसका पक्का सबूत है। अतः गठबन्धन समर्थक विश्लेषकों या चुनावी पंडितों को निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश में अंत तक भाजपा की ओर से प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमन्त्री श्री योगी द्वारा खड़े किये गये विमर्श पर ही अन्त समय तक विपक्षी गठबन्धन की ओर से सफाई दी जाती रही और गठबन्धन ने जो महंगाई व बेरोजगारी का विमर्श खड़ा किया था उसके जवाब में योगी ने अपनी सरकार द्वारा गरीब जनता के लिए चलाई गई विभिन्न जन कल्याण योजनाओं को आगे कर दिया। जिससे सत्ता विरोधी भावनाएं समाज के एक खास वर्ग तक ही सीमित होकर रह गईं। मगर इसमें भी कोई दो राय नहीं हैं कि अखिलेश व जयन्त की जोड़ी ने बेरोजगारी के मुद्दे पर युवा वर्ग के पढे़-लिखे वर्ग को प्रभावित किया जिसकी वजह से यह मुद्दा भी पूरे चुनाव में चर्चित रहा। परन्तु अखिलेश-जयन्त की जोड़ी के समर्थकों ने जिस तरह मुस्लिम-यादव समीकरण को चुनाव के पहले चरण से ही अपनी विजय का प्रतीक बनाया उसकी तीखी प्रतिक्रिया समाज के अन्य पिछड़े वर्गों में हुई और यह तबका भाजपा के साथ, विशेषकर प. उत्तर प्रदेश में, पूरी निष्ठा के साथ जुड़ा रहा। मगर इस सबसे ऊपर जिस तरह भाजपा ने चुनावों में केन्द्रीय मुद्दा राज्य की कानून-व्यवस्था और माफिया राज की समाप्ति को बनाया, उसे जातिवाद से ऊपर उठ कर मतदाताओं ने बहुत गंभीरता से लिया और इस मामले में योगी सरकार द्वारा किये गये कामों को सराहा जिससे भाजपा के प्रति आम रुझान बनने में मदद मिली। महत्वपूर्ण यह भी कम नहीं है कि इस मुद्दे को सर्वप्रथम प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ही अपनी प्रथम वीडियो (वर्चुअल) रैली में उठाया था। इससे सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया कि जो सत्ता विरोधी भावनाएं अखिलेश-जयन्त की जोड़ी चुनाव के शुरूआती दौर में उठाते हुए दिखाई पड़ रहे थे वह हांशिये पर जाने लगी और समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी सरकार ( 2012 से 2017) के दौरान किये गये कारनामों पर जवाबदेही की मुद्रा में आ गई। कोरोना काल से लेकर लखीमपुर कांड तक की घटनाओं पर जिस योगी सरकार को गठबन्धन रक्षात्मक पाले में लाने की रणनीति बना रहा था उसकी धार स्वतः ही खत्म होती चली गई और योगी ने उल्टे विपक्ष को कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर लपेट दिया। लोकतन्त्र में चुनावों को केवल सत्ता विरोधी भावनाओं को भुना कर ही नहीं जीता जा सकता बल्कि सरकार द्वारा किये गये कार्यों के बूते पर भी जीता जा सकता है, योगी का पूरा विमर्श इसके बाद इसी धुरी पर घूमता नजर आया। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि चुनावों में सत्ता विरोधी स्वर ही मुखर होकर सामने आता है क्योंकि उसमें सत्ता के प्रति रोष या गुस्सा होता है जबकि सत्ता समर्थक वर्ग शान्त रहने में ही भलाई समझता है। राज्य के चुनावों में मतप्रतिशत कम रहने के कारण की किसी भी सर्वेक्षण एजेंसी ने पड़ताल करने की जहमत नहीं उठाई है। इसकी वजह यही है कि जो मोदी विरोधी मीडिया है वह सच्चाई को छिपे रहने देना चाहता है। प्राकृतिक नियम है कि विरोध जब प्रबल होता है तो वह 'उबलता' है और अपने वजूद का सबूत देता है परन्तु उत्तर प्रदेश में परिस्थिति इसके विपरीत निकली। अतः 10 मार्च को यही सच हमारे सामने आना चाहिए।