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बिशन सिंह बेदी
बीते पच्चीस सितंबर को एक ऐसे क्रिकेटर का पचहत्तरवां जन्मदिन था, जिनका मैं सर्वाधिक आदर करता हूं। मैदान में उनकी उपलब्धियों के लिए तो मैं उनका सम्मान करता ही हूं, और संभवतः उससे कहीं अधिक मैदान से बाहर के उनके आचरण के लिए। वह एक महान क्रिकेटर के रूप में ऐसा दुर्लभ उदाहरण हैं, जो कि एक शानदार व्यक्ति भी हैं।
अजीब जरूर है, लेकिन बिशन सिंह बेदी से जुड़ी क्रिकेट की मेरी पहली स्मृतियां गेंद के बजाय बल्ले से जुड़ी हुई हैं। 1969 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ दिल्ली टेस्ट में चौथे दिन बेदी को नाइटवाचमैन के रूप में भेजा गया, और वह खेल खत्म होने के समय तक सुरक्षित बने रहे। अगली सुबह अजीत वाडेकर के साथ उन्होंने डेढ़ घंटे तक बल्लेबाजी की और उस मैच में मिली प्रसिद्ध जीत की बुनियाद खड़ी कर दी। मैंने (और लाखों अन्य ने) ऑल इंडिया रेडियो पर एक-एक गेंद का अनुसरण किया।
लेकिन निस्संदेह महान स्पिनर के रूप में बिशन सिंह बेदी ने क्रिकेट के इतिहास में अपनी पहचान छोड़ी है। मैंने खुद बेदी को अक्सर टेस्ट क्रिकेट और रणजी ट्रॉफी क्रिकेट में गेंदबाजी करते देखा और मैं कभी ऊबा नहीं। बेदी के क्रिकेट जीवन पर केंद्रित एक किताब का उनके पचहत्तरवें जन्मदिन के मौके पर प्रकाशन किया गया है।
द सरदार ऑफ स्पिन नाम से आई इस किताब में बेदी को उनकी पीढ़ी के क्रिकेटरों, जिनके साथ या उनके खिलाफ उन्होंने खेला था, उनके करिअर का अनुसरण करने वाले लेखकों (मैं भी उनमें से एक हूं) और युवा पीढ़ी के ऐसे क्रिकेटरों ने याद किया है, जिन्हें उन्होंने प्रशिक्षित किया या जो उनसे प्रेरित हैं।
यह किताब दिल्ली के पूर्व ओपनर वेंकट सुंदरम के दिमाग की उपज है, जिन्होंने कई वर्षों तक रणजी ट्रॉफी में बिशन सिंह बेदी के मातहत रहकर खेला था और जो बहुत शिद्धत से याद करते हैं कि किस तरह से दिल्ली ने 1979-80 में पहली बार चैंपियनशिप जीती थी, जिसमें वह खुद भी बेदी की प्रेरणदायी कप्तानी में टीम में शामिल थे।
मैं खुद ग्रेग चैपल और माइक ब्रेयरली जैसे बेदी के खिलाफ खेलने वाले विदेशी क्रिकेटरों और मुरली कार्तिक और अनिल कुंबले जैसे भारतीय गेंदबाजों के आलेख पढ़कर भावुक हो गया। बेदी के करिअर पर शुरू से नजर रखने वाले सुरेश मेनन तथा क्लेटन मुर्जेलो जैसे पत्रकारों के लेख भी गहरी दृष्टि लिए हुए हैं।
चूंकि किताब में शामिल मेरा लेख बेदी की गेंदबाजी पर है, मैं इस आलेख में बेदी की शख्सियत के बारे में बात कर रहा हूं। भारतीय क्रिकेट के बारे में आज एक दुखद सच यह है कि जितना बड़ा क्रिकेटर, उतना ही बड़ा अवसरवादी और रीढ़विहीन इंसान। प्रसिद्धि और समृद्धि संपन्न क्रिकेटर हमेशा बीसीसीआई के प्रशासकों के साथ रहना चाहते हैं, हमेशा राजनेताओं के पक्ष में रहते हैं, और व्यक्तिगत नैतिकता या राजनीतिक सिद्धांत के मामलों में कभी भी रीढ़ सीधी नहीं रखते।
निश्चय ही, उम्र के तीसरे और चौथे दशक में चल रहे कुछ भारतीय क्रिकेटर मैदान और रोजाना की जिंदगी के भेदभाव के खिलाफ लड़ते हैं, लेकिन इनमें वे शामिल नहीं हैं, जो सर्वाधिक प्रभावशाली हैं या जिनके पास प्राधिकार हैं। भारतीय क्रिकेट के पूरे इतिहास में संभवतः तीन शख्स ही ऐसे हुए, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे महान क्रिकेटर होने के साथ ही चरित्र और सिद्धांत के मामले में बेहतरीन इंसान भी रहे।
क्रम से देखें, तो इस तिकड़ी में पहले थे पलवंकर बालू। 1875 में एक दलित परिवार में जन्म लेने के बाद उन्हें ऐसी बहुत-सी बाधाएं पार करनी पड़ीं, जो संस्कृति और इतिहास ने उन पर लाद रखी थीं और उसके बाद ही वह धीमी गति के पहले महान भारतीय गेंदबाज बने- यदि हम रणजीत सिंह को अंग्रेज क्रिकेटर मानें, तो जैसा कि उन्हें हमें मानना भी चाहिए- तो वह पहले महान भारतीय क्रिकेटर भी थे।
बालू ने अपनी गरिमा और अपने प्रभाव तथा मैदान की उपलब्धियों के जरिये बी आर आंबेडकर सहित अनेक युवा दलितों को प्रेरित किया। 1911 में भारतीय टीम के पहले इंग्लैंड दौरे के दौरान बालू ने जब 150 विकेट लिए थे, तब घर वापसी के बाद बॉम्बे के वंचित वर्गों ने उनका शानदार स्वागत किया था, जिसमें युवा आंबेडकर ने उनके सम्मान में मानपत्र पढ़ा था। आधुनिक भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली भारतीयों में से एक की यह पहली सार्वजनिक उपस्थिति भी थी।
यदि पलवंकर बालू पहले महान भारतीय गेंदबाज थे, तो विजय मर्चेंट पक्के तौर पर भारत की मिट्टी में पले-बढ़े पहले महान बल्लेबाज थे। कुलीन परिवार में जन्म लेने और एक समृद्ध उद्योगपति का पुत्र होने के बावजूद मर्चेंट ने अधिकांश रईस परिवारों के बच्चों के उलट नैतिक संकोच और अपने सिद्धांतों पर कायम रहे। 1932 में इंग्लैंड दौरे के लिए उनका चयन हो गया था, लेकिन वह बाहर हो गए, क्योंकि महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादी उस वक्त जेल में थे।
बाद में एक खिलाड़ी के रूप में उन्होंने अमर सिंह और सदाशिव शिंदे जैसे टीम के ऐसे साथियों के परिजनों की वित्तीय मदद की, जिनका युवावस्था में निधन हो गया था। रिटायर होने के बाद उन्होंने दिव्यांग बच्चों के अधिकारों के लिए अनथक काम किया और नेशनल सोसाइटी फॉर इक्वल अपरर्च्युनिटीज फॉर द फिजिकली हैंडिकैप्ड को वित्तीय मदद भी की।
बालू और मर्चेंट भारतीय खेल के इतिहास में महान शख्सियत थे, जिन्होंने कभी भी अपनी क्रिकेट की प्रसिद्धि को अपने चरित्र को विकृत या भ्रष्ट करने की अनुमति नहीं दी। मेरे विचार से बेदी तीसरे और शायद आखिरी महान भारतीय क्रिकेटर हैं, जो असाधारण रूप से साहसी इंसान भी हैं।
जब तक वह खेलते रहे, उन्होंने खिलाड़ियों के अधिकारों और हमारे प्रशासकों के धूर्त तरीकों के खिलाफ अभियान चलाया, जिसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। रिटायर होने के बाद उन्होंने अपने कोचिंग कैंप में युवा क्रिकेटरों को तराशने के लिए कमेंटरी से संबंधित आकर्षक अनुबंधों को छोड़ दिया। जब तक वह खेलते रहे या जब वह रिटायर हो गए, उन्होंने हमेशा खेल को अपने से ऊपर रखा है।
बिशन बेदी के पास भारतीय समाज की गहरी समझ और एक मजबूत नैतिक समझ, दोनों हैं। उनकी प्रशंसा का मेरा आधार क्रिकेट के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उस पर कम ही टिका है, बल्कि इसका आधार जीवन और मानवीय आचरण के बारे में उनसे उन वर्षों में मिली सीख है, जब मुझे उन्हें अपना मित्र कह सकने का सौभाग्य मिला।
25 सितंबर, 1946 को पैदा हुए बिशन बेदी और तब नाममात्र को स्वतंत्र हुए देश में बड़े हुए।
पिछले साल, स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में उन संकटों पर एक मार्मिक लेख लिखा था, जो हमारे देश ने उनके जीवन काल में देखे हैं, और उन्होंने स्वयं उनका सामना कैसे किया है। उन्होंने पाकिस्तान के साथ हमारे युद्धों, सिख विरोधी दंगों, और हाल ही में, महामारी के कारण हुए कष्टों के बारे में बात की।
प्रधानमंत्री के अनियोजित लॉकडाउन से उत्पन्न 'दिल दहला देने वाली छवियों' के बारे में बेदी ने लिखा : 'यह हमारे राजनेताओं में करुणा की कमी को उजागर करता है, जिन्होंने अचानक पूर्ण तालाबंदी लागू की। जब कोरोना वायरस के आंकड़ों की बात आती है, तो ईमानदारी और पारदर्शिता भी गायब हो जाती है।'
यदि तेंदुलकर या गावस्कर या कोहली या धोनी या गांगुली में बिशन बेदी के गुणों की आधी क्षमता भी होती, तो भारतीय क्रिकेट पिछले कुछ समय से जिस हाल में है उससे बेहतर होता। हालांकि, बेदी जैसे व्यक्ति न केवल भारतीय क्रिकेट में दुर्लभ हैं, वे भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में भी दुर्लभ हैं। यह हमारे गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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