सम्पादकीय

जन्मदिन विशेष: अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम की कामयाबी के पीछे था इस शख्स का हाथ

Gulabi Jagat
23 March 2022 4:03 PM GMT
जन्मदिन विशेष: अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम की कामयाबी के पीछे था इस शख्स का हाथ
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एक अमेरिकी पायलट चार्ल्स ऑगस्टस लिंडबर्ग ने 1960 में यह कहा था कि ‘हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं
एक अमेरिकी पायलट चार्ल्स ऑगस्टस लिंडबर्ग ने 1960 में यह कहा था कि 'हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां सपने और हकीकत आपस में बदलते रहते हैं.' कल का सपना आज की उम्मीद में बदलता जाता है और यही उम्मीद आने वाले कल की हकीकत होगी. अगर अतीत में यह मुमकिन हुआ था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा, तो ऐसा वर्नर वॉन ब्रॉन (Wernher von Braun) जैसे कल्पनाशील और स्वप्नद्रष्टा की बदौलत ही मुमकिन होगा.
आज वर्नर वॉन ब्रॉन का जन्मदिन है. वॉन ब्रॉन उन चुनिंदा महान शख्सियतों में से एक थे जिन्होंने रॉकेटों के सहारे अंतरिक्ष व चाँद पर जाने की इंसानी कल्पना को हकीकत में बदलने का काम किया. आज जहां वॉन ब्रॉन को रॉकेट साइंस के जनक और एक महान स्वप्नद्रष्टा (नायक) के रूप में याद किया जाता है वहीं उनके कैरियर के शुरुआती कृत्य उन्हें इंसानियत को तबाह करने के काम में लगे एक कुख्यात खलनायक का भी दर्जा देते हैं.
वॉन ब्रॉन की ही अगुआई में अमेरिका के पहले सैटेलाइट एक्सप्लोरर-1 को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया तथा उस चंद्र अन्वेषण मिशन (lunar exploration mission) को लॉन्च किया गया, जिसने कालांतर में नील आर्मस्ट्रांग को चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक उतारकर इतिहास रच दिया. चंद्र-विजय ने यह साबित कर दिया कि मनुष्य धरती से लाखों किलोमीटर दूर महाकाश और महाकाल के संधि-स्थल पर भी अजेय है. यहाँ तक कहा जाता है कि अगर वॉन ब्रॉन न होते तो शायद आज अंतरिक्ष यात्रा (space travel) शब्द हमारी डिक्शनरी में एक कपोल-कल्पना के रूप में ही दर्ज होता!
वॉन ब्रॉन का जन्म आज ही के दिन 1912 में पूर्वी जर्मनी के एक धनी परिवार में हुआ था. उनके पिता मैग्नस फ़्रीहरर वॉन ब्रॉन एक सिविल सेवक और रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ थे. उनकी मां एमी वॉन क्विस्टोर्प मध्ययुगीन यूरोपीय राजघराने से ताल्लुक रखती थीं. वॉन ब्रॉन बचपन से ही कल्पनाशील थे और अपनी कल्पनाओं की उड़ान में उन्होंने अंतरिक्ष में उड़ान भरने का सपना देखना शुरू कर दिया था. जब वॉन ब्रॉन 13 साल के थे, तब उनकी माँ ने खगोल विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में उनकी जिज्ञासा को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें एक दूरबीन भेंट की. उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ 1925 में तब आया जब उन्होंने महान रॉकेट विज्ञानी हरमन ओबर्थ द्वारा लिखी गई 'द रॉकेट इन इंटरप्लेनेटरी स्पेस' नामक किताब पढ़ी. इस किताब ने अनेक पाठकों के मन में अंतरिक्ष में उड़ान भरने का सपना संजोया, जिनमें किशोर वय के वॉन ब्रॉन भी शामिल थे.
17 साल की उम्र में वॉन ब्रॉन ने बर्लिन स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया. वहाँ उन्होंने एक मैगजीन में चंद्रमा की सैर के बारे में एक लेख पढ़ा और तभी से उनको रॉकेट बनाने की इच्छा प्रबल हुई. उन्होंने 18 साल की उम्र में तरल-ईंधन वाले रॉकेट निर्माण को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाते हुए जर्मन रॉकेट सोसाइटी- वीएफ़आर (वेरीन फुर रॉमशिफाह्रट) में प्रवेश लिया. वीएफ़आर में वॉन ब्रॉन हरमन ओबर्थ के सहायक के रूप में काम करने लगे. वहाँ उन्होंने ओबर्थ की तरल ईंधन से चलने वाले रॉकेट मोटरों के परीक्षणों में मदद की.
1932 तक जर्मन सेना का ध्यान जर्मन रॉकेट सोसाइटी (वीएफ़आर) के प्रयासों की ओर आकर्षित हो चुका था और उसी साल जुलाई में प्रदर्शन के तौर पर मिनिमम रॉकेट या संक्षेप में 'मिराक' को लांच किया गया. इस प्रदर्शन-उड़ान के बाद वॉन ब्रॉन को जर्मन सेना ने अपने लिए तरल ईंधन से चलने वाले रॉकेट बनाने के काम पर लगा दिया. उन दिनों एडोल्फ हिटलर का सितारा चमकने लगा था. वॉन ब्रॉन ने न केवल नाजियों की सेवा करना मंजूर कर लिया, बल्कि वह खौफनाक 'एसएस- Schutzstaffel' (हिटलर और नाजियों का प्रमुख अर्धसैनिक संगठन) में भी शामिल हो गए, जबकि उसी जर्मन रॉकेट सोसाइटी के सदस्य और संभावित प्रोफेसर विली ले ने नाजियों का साथ देने की बजाय जर्मनी छोड़ देना ही बेहतर समझा. लेकिन सोसाईटी के बाकी सदस्यों ने वॉन ब्रॉन का रास्ता ही चुना और वे नाजियों के लिए काम करने लगे.
जर्मन तानाशाह हिटलर रॉकेट को मिसाइल के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए बड़ा बेताब था. हिटलर की इजाज़त और उन्मुक्त वित्तीय समर्थन ने वॉन ब्रॉन को युद्ध के लिए रॉकेट विकसित करने के लिए जी-जान से प्रेरित किया. इथेनॉल और तरल ऑक्सीजन के ईंधन वाली 'ए-2' (एग्रीगेट-2) रॉकेट की शुरुआती डिज़ाइनें 1934 में प्रदर्शित की गईं. इसके बाद का 'ए-3' भी 'ए-2' की तरह शोध स्तर के रॉकेट ही थे. लेकिन 'ए-4' (जिसे बाद में 'वी-2' नाम दिया गया) पहला वास्तविक मिसाइल था. 1934 के अंत तक वॉन ब्रॉन की टीम ने दो रॉकेट सफलतापूर्वक लाञ्च कर दिए थे, जो क्रमशः 2.2 और 3.5 किलोमीटर की दूरी तक उड़ान भर सके.
1937 और 1941 के बीच वॉन ब्रॉन की टीम 'ए-3' और 'ए-5' ग्रुप के तकरीबन सत्तर रॉकेट लांच कर चुकी थी. इनमें से हरेक में 'ए-4' रॉकेट के निर्माण के लिए पुर्जों की जांच की गई. पहले 'ए-4' रॉकेट ने मार्च 1942 में उड़ान भरी. लॉन्च साइट से उड़कर यह रॉकेट मुश्किल से बादलों की थोड़ी थाह ही ले पाया था कि वहां से एक किलोमीटर दूर समुद्र में जा गिरा. दूसरी उड़ान 'ए-4' ने अगस्त 1942 में भरी और इस बार 11 किलोमीटर उठने के बाद फटा.
लेकिन, तीसरी बार उसे सफलता ने चूम ही लिया. 3 अक्टूबर 1942 को पीनेमुंडे (जर्मनी का एक गांव जिसे मिसाइल फैक्ट्री के रूप में विकसित किया गया था) से गरजता 'ए-4' अपने तयशुदा ट्रेजेक्ट्ररी या रास्ते का पालन करते हुए, 198 किलोमीटर दूर, ठीक निशाने पर जा लगा. इतनी अधिक ऊंचाईं तक उस समय तक कोई भी मानव-निर्मित यंत्र नहीं पहुंचा था. इस कामयाब उड़ान के बाद वॉन ब्रॉन और उनकी टीम को इस बात का पूरा विश्वास हो चुका था कि 'ए-4' रॉकेट के जरिए जर्मनी द्वितीय विश्वयुद्ध को आसानी से जीत सकता है. लेकिन हिटलर प्रशासन द्वारा 'ए-4' रॉकेट के सफल परीक्षण को उतनी प्राथमिकता नहीं दी गई जितनी की उसे जरूरत थी.
1943 में तमाम कोशिशों के बाद वॉन ब्रॉन और उनकी टीम ने 'ए-4' रॉकेट के सफल परीक्षण की एक फिल्म हिटलर को दिखाई. हिटलर इससे बहुत खुश हुआ और उसने यह स्वीकार भी किया कि उसने 'ए-4' रॉकेट को तवज्जो न देकर एक बड़ी गलती की थी. बाद में उसने रॉकेट के शोधकार्य को सबसे अधिक प्राथमिकता देने का आदेश दे दिया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, जर्मनी कई मोर्चों पर हार रहा था.
हिटलर द्वारा मिसाइल कार्यक्रम को हरी झंडी दिखाए जाने के बाद 'ए-4' रॉकेट के डिजाइन में बराबर सुधार होते रहे. आखिरकार, सितंबर 1944 में ब्रिटेन और बेल्जियम के खिलाफ काम में लेने के लिए शुरुआती मिसाइल विकसित किए गए. जर्मनी के प्रचार मंत्रालय ने 'ए-4' का नाम 'वर्जेलटंगस्वाफ-2' या 'रिवेंज वैपन-2' रखा; संक्षेप में इसे 'वी-2' कहते थे. मुख्य रूप से ब्रिटेन और बेल्जियम के खिलाफ युद्ध में वी-2 मिसाइलों का प्रयोग किया गया, जिनसे भारी नुकसान और विनाश हुआ. वी-2 में ईंधन के तौर पर ऐल्कोहॉल (इथेनोल) और पानी का मिश्रण तरल ऑक्सीजन के साथ उपयोग किया जाता था और इसकी मार की दूरी 300 किलोमीटर तक थी. यह 1000 किलोग्राम का वजनी बम ले जाकर ठिकाने पर छोड़ सकता था. वॉन ब्रॉन की अगुआई में मिटेलवर्क की वी-2 फैक्टरी ने अगस्त 1944 और मार्च 1945 के बीच 4,575 वी-2 मिसाइलें बनाईं.
द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में, वॉन ब्रॉन गोपनीय 'ऑपरेशन पेपरक्लिप' का हिस्सा बने और लगभग 1,600 अन्य जर्मन वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीकीविदों के साथ गुपचुप रूप से अमेरिका ले जाए गए. अमेरिका पहुंचने पर वॉन ब्रॉन अमेरिकी रॉकेट और अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रणेता बन गए. वॉन ब्रॉन और उनकी टीम को न्यू मैक्सिको में 'व्हाइट सैंड्स' में ले जाया गया, जहां वी-2 रॉकेटों के पुर्जे जोड़कर उनकी लॉंचिंग का काम शुरू हुआ. फरवरी 1946 तक जर्मनी के पीनेमुंडे की वॉन ब्रॉन की पूरी टीम 'व्हाइट सैंड्स' में फिर से आ मिली थी और 16 अप्रेल 1946 को अमेरिका में प्रथम वी-2 लॉंच किया गया. इस प्रकार अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम भी आसमान छूने लगा.
जब सोवियत संघ ने अंतरिक्ष में पहले सैटेलाइट 'स्पूतनिक' को पहुंचा दिया तो इससे अमेरिकी राष्ट्र के अहं तथा गौरव पर कहीं न कहीं चोट पहुंची थी. अमेरिका में फटाफट 1955 में ही नासा की स्थापना की गई और इसके दो साल बाद ही वॉन ब्रॉन और उनकी पूरी 'आर्मी बैलिस्टिक मिसाइल एजेंसी' का तबादला 'नासा' में कर दिया गया. यह इस एजेंसी के अंतरिक्ष कार्यक्रम का प्रमुख केन्द्र बन गया. उस समय तक वॉन ब्रॉन को बाकायदा अमेरिकी नागरिकता का तमगा थमा दिया गया था और उन्होने अमेरिकी 'आईसीबीएम' कार्यक्रम को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया.
लेकिन, अमेरिकी तब चकित रह गए, जब 6 दिसंबर 1957 को छोड़ा गया वेंगार्ड रॉकेट लॉन्च साइट पर ही फट गया. वैज्ञानिक टीवी वेंकटेश्वरन के मुताबिक, बाद में वेंगार्ड रॉकेट की डिजाइन बदली गई और इस लायक बनाया गया कि मात्र 1. 36 किलोग्राम वजन उठा सके, जो स्पूतनिक की तुलना में तो एक अंगूर कहा जा सकता है. बाद में जब वेंगार्ड को सुधारा गया तो भी इसकी क्षमता 2 किलोग्राम वजन उठाने से ज्यादा नहीं थी, जबकि रूसी वैज्ञानिक 1000 किलोग्राम का पेलोड आसानी से आसमान में उड़ा रहे थे. रूसियों का 'आर-7' बूस्टर रॉकेट तो 500 मीट्रिक टन वजन उठाकर वर्ल्ड चैम्पियन ही बन गया. इसकी तुलना में अमेरिका का एटलस बूस्टर केवल 200 मीट्रिक टन ही उठा पाया, जबकि उस समय उसे रॉकेटों में सबसे ताकतवर बताया गया.
अमेरिकियों के हाथ पहली कामयाबी 1958 में लगी. वॉन ब्रॉन के बनाए जुपिटर-सी लॉन्च व्हीकल ने, जो सुधारा गया रैडस्टोन बैलिस्टिक मिसाइल था, एक्सप्लोरर-1 को 31 जनवरी 1958 को सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया. यह अमेरिका का पहला सैटेलाइट था जो अंतरिक्ष में गया. इसको जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) में डिजाइन किया गया था. एक्सप्लोरर-1 वॉन एलन के कॉस्मिक रे से जुड़े प्रयोगों के उपकरण लाद कर ले गया. इस प्रयोग से और इसी तरह के उसी साल प्रक्षेपित अमेरिकी और सोवियत सैटेलाइटों के प्रयोगों से हासिल नतीजों से यह खुलासा हुआ कि पृथ्वी दो विकिरण-मंडलों से घिरी हुई है, जिन्हें वॉन एलन रेडिएशन बेल्ट कहा जाता है. तब तक रूसियों ने स्पूतनिक-2 लॉन्च कर दिया था जो 3 नवंबर 1957 को लाइका कुत्ते को ले उड़ा.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जब अपने उत्कर्ष पर था, तभी 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को अंतरिक्ष में पहुंचाकर अमेरिका से बाजी मार ली. इससे अमेरिका के दिल पर तो साँप लोट गया. 25 मई 1961 को प्रसारित तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने अपने प्रसिद्ध 'स्टेट ऑफ द यूनियन' संदेश में कहा कि 'यह मेरा विश्वास है कि (अब) राष्ट्र को इस दशक की समाप्ति से पहले इंसान को चंद्रमा पर उतारने तथा उसे सुरक्षित पृथ्वी तक वापस लाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संकल्प कर लेना चाहिए.' इसके बाद क्या था! चाँद की सतह पर पहला अमेरिकी उतारने का मिशन चल पड़ा.
नासा के मार्शल सेंटर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि इस मिशन के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह शक्तिशाली रॉकेटों की एक शृंखला का निर्माण करें. वॉन ब्रॉन को नासा के इस मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर का निदेशक बनाया गया. उन्होंने सेटर्न-वी नामक लॉन्च व्हीकल बनाया, जो अमेरिका को चंद्रमा पर पहुंचाने वाला सुपर बूस्टर साबित हुआ. आखिरकार 1969 में नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की धरती पर कदम रखने वाले पहले इंसान के रूप में इतिहास में दर्ज हुए. अभी तक अमेरिका की इस उपलब्धि को कोई और देश नहीं पा सका है और इसमें कोई शक नहीं है कि अगर युद्ध में पराजित जर्मनी से अमेरिकी सेना महान रॉकेट विज्ञानी वर्नर वॉन ब्रॉन को उड़ा न लाती तो अमेरिका इतना ऊंचा छलांग कभी न लगा पाता. 1977 में गॉल ब्लैडर के कैंसर से वॉन ब्रॉन का निधन हो गया और अमेरिका में बतौर नायक अमर हो गए. अस्तु!


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
प्रदीप तकनीक विशेषज्ञ
उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव खलीलपट्टी, जिला-बस्ती में 19 फरवरी 1997 में जन्मे प्रदीप एक साइन्स ब्लॉगर और विज्ञान लेखक हैं. वे विगत लगभग 7 वर्षों से विज्ञान के विविध विषयों पर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं. इनके लगभग 100 लेख प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की है.
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