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13 फरवरी उस शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्मदिन है, जिसे दुनिया भर ने मोहब्बत से गाया
कहते हैं मौका भी है और दस्तूर भी… तो चलो आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को याद करें. मौका उनके जन्मदिन का है और उन्हें याद करने के दस्तूर कई हैं. पहला तो यह कि वसंत का माह है और मोहब्बत के शायर को याद किया जाए. दूसरा यह कि उजाला अब भी दाग़-दाग़ लगता है, सहर अब भी शब गज़ीदा महसूस होती है. कि और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा कि महबूब से कहने को जी चाहता है, मुझसे पहली-सी मुहब्बत न मांग.
13 फरवरी उस शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्मदिन है, जिसे दुनिया भर ने मोहब्बत से गाया. जिसे इंकलाब की मुट्ठियों को तानते हुए गया. जिसे इंसान की खींची सरहदों के पार अपना दु:ख बयां करने के लिए गाया. जिसे विद्रोह की आवाज बना कर गाया. जिसे उम्मीद बना कर गाया गया. जहां जहां फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को गाया गया, वहां वहां तख्त उछलते हुए महसूस हुए. वहां वहां ताज गिरते हुए लगे. हुकूमतें जिससे नफरत करती रही, अवाम जिसे मोहब्बत करती रही.
वह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जिसे गुजरे जमाने की मशहूर गायिका नूरजहां, मेहंदी हसन, जगजीत और आज के युवाओं ने भरपूर गया है. जब मोहब्बत की बात चलती है तो उनका लिखा याद आता है और हम गुनगुना लेते हैं, 'आप की याद आती रही रात भर/ चांदनी दिल दुखाती रही रात भर.' या हम गुनगुता लेते हैं, 'गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले/चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले'. और जब दु:ख गाढ़ा होता है तो आवाज उठती है, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बां अब तक तेरी है…. बोल कि सच ज़िंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह ले.
फ़ैज़ अहमद फै़ज़ का जन्म 13 फरवरी 1912 को पंजाब के ज़िला नारोवाल की एक बस्ती काला क़ादिर (अब फ़ैज़ नगर) में हुआ था. फैज़ अहमद फैज़ का असली नाम फ़ैज़ अहमद खान था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना तखल्लुस भी फ़ैज़ ही रख लिया. बंटवारे के बाद पाकिस्तान जा कर बस गए फ़ैज़ ने एक नहीं कई किरदारों को जिया था. फ़ैज़ ब्रिटिश सेना में कर्नल थे और पाकिस्तान के 2 प्रमुख अखबारों के संपादक भी रहे. सन् 1941 में जब हिटलर की सेना सोवियत यूनियन को तबाह करने में जुटी थीं, तब नाजी ताकतों से लड़ने के लिए फै़ज़ बतौर वालंटियर ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए थे.
युद्ध समाप्त होते ही उन्होंने सेना से विदा ले ली. लाहौर जाकर उन्होंने दैनिक अखबार 'पाकिस्तान टाइम्स' का सम्पादन शुरू किया. सन् 1947 में भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ. लेकिन विभाजन के दंश के साथ. ऐसी आधी-अधूरी आज़ादी पर सवाल उठाते हुए फ़ैज ने एक नज़्म लिखी है. हालांकि, दस्तावेज बताते हैं इस नज़्म के लिए फ़ैज़ को आलोचना भी सहनी पड़ी थी. मगर आज भी देश में कई लोग हैं जिन्हें उजाला दागदार नजर आता है. जिन्हें लगता है कि उनके हक की रोशनी कहीं किसी अट्टालिका में कैद कर ली गई है तब फ़ैज़ ही याद आते हैं. बार-बार याद आते हैं. इस में नज़्म में फ़ैज़ कहते हैं कि दाग़-दाग़ उज़ालों वाली यह आज़ादी वह आज़ादी नहीं है जिसके लिए हम लड़ रहे थे. अभी हमारे अरमान अधूरे हैं, उस सुबह के लिए अभी और चलना है.
ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं.
ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं…
अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
निज़ाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई….
9 मार्च 1951 को हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने की साजिश रचने के आरोप में फ़ैज़ को गिफ्तार किया गया. उन पर 'रावलपिंडी षडयंत्र' का आरोप लगाया कर उन्हें करीब पांच सालों के लिए जेल में डाल दिया गया. उन पर मौत का खतरा मंडरा रहा था. जेल में फ़ैज़ ने 1940 से छूटा कविता का दामन दोबारा पकड़ा. वे जेल में थे तब ही उनका दूसरा कविता संकलन 'दस्त-ए-सबा' तैयार हुआ. तीसरे संकलन 'जिंदांनामा' की लगभग सारी कविताएं जेल के दौरान ही लिखी गईं.
फैज अहमद फैज को 1962 में रूस के सर्वोच्च पुरस्कार लेनिन शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा गया. पुरस्कार लेने हेतु जब उन्हें रूस जाने की अनुमति मिली तो वे तत्काल वापस न आकर दो साल के लिए आत्मनिर्वासन पर ब्रिटेन चले गए. 1964 में वे पाकिस्तान वापस लौटे.
जुल्फिकार अली भुट्टो के सत्तासीन होने के फ़ैज़ शिक्षा मंत्रालय के तहत सांस्कृतिक सलाहकार नियुक्त किया. यहां वे चार सालों तक रहे. 1977 में पुनः पाकिस्तान में सैनिक तख़्तापलट हुआ. फ़ैज़ अपने ओहदे से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि उन्हें मुल्क से भी बेदख़ल होना पड़ा. 1978 से 1982 तक का दौर फ़ैज़ ने निर्वासन में गुजारा. 1976 में अदब का लोटस पुरस्कार दिया गया. साल 1990 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान "निशान-ए-इम्तियाज़" से नवाज़ा. उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले नोबेल पुरस्कार के लिए उनका नामांकन किया गया था.
1979 में उन्होंने 'हम देखेंगे' नज़्म लिखी थी. यह तब लिखी गई थी जब सेना प्रमुख जिया उल हक ने पाकिस्तान में प्रधानमंत्री भुट्टो का तख्ता पलट कर फौज की हुकूमत कायम की थी. 'हम देखेंगे' नज़्म जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का परचम थी. इस नज़्म पर पाबन्दी लगाई गई. मगर शब्द कहां रूकते हैं? फ़ैज़ के जीते जी और बाद में भी यह नज़्म मुक्ति का हथियार बन गई है.
इतिहास गवाह है कि 1985 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने देश में मार्शल लॉ लगा दिया था. महिलाओं के साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लग गई. ऐसे में 'हम देखेंगे' नज़्म एक बार फिर गूंज उठी. पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका इकबाल बानो ने जब एक लाख लोगों की मौजूदगी में काली साड़ी पहनकर इसे गाया तो सब झूम उठे. जबकि फ़ैज़ तो नवंबर 1984 में दुनिया छोड़ चुके थे. उनके न होने के बाद भी उनकी नज़्म पाकिस्तानी हुकूमत की चूलें हिला दी थी.
जब उन्हें पाकिस्तान से बाहर निकाल दिया गया तब पूरी दुनिया ने उन्हें गले से लगा लिया. यह मोहब्बत उन्हें उनकी शायरी के कारण ही मिली थी. फ़ैज़ अपनी शायरी के कारण अब तक हुक्मरानों की आंख की किरकिरी बने रहे तो आवाम के चहेते. उनकी शायरी में प्रतिरोध भी है और उम्मीद भी.
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगेवो दिन कि जिसका वादा है
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे.
जाहिर है, सत्ता उनसे चिढ़ती है और जनता को उनकी शायरी में अपने दर्द का अक्स नजर आता है. फै़ज़ किसी देश के हो सकते हैं मगर उनकी शायरी हर उस देश और वहां के नागरिक की है जो उजाले की राह तक रहा है. उन्हें हर वह युवा पढ़ता है और गाता है जो बागी हो रहा है. उनकी जुबां पर फ़ैज़ की 'मेरी पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग', 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे' तथा 'यह दाग दाग उजला शबगजीदा सहर' जैसी पंक्तियां यकबयक चढ़ ही जाती है.
मुझसे पहली-सी मुहब्बत नज़्म की बात किए बिना तो फ़ैज़ पर बात पूरी ही नहीं हो सकती है. पहली नजर में यह एक आशिक के दिल की बात महसूस होती है मगर यह वतन परस्त का बयान है.
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है …
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग.
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का आशिक मन लिखता है कि तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है … मगर तुरंत ही कहता है और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा. राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा. आशिक के लिए महबूबा से मिलन से बड़ी राहत क्या है आखिर क्या है जो उसे कहने के लिए मजबूर करता है, अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै?
प्रेमी को प्रेम के इतर समाज में फैली बुराइयां दिखती हैं. वह सदियों के अंधेरे को खत्म करने के लिए मुहब्बत से दूर हो जाना चाहता है. महबूबा का हुस्न अब भी दिलकश है मगर उसे मुल्क की बदरंग तस्वीर नजर आती है और वह महबूबा से मिलन की नहीं मुल्क के बदलाव की ख्वाहिश करता है. शायर फ़ैज़ की आरजू वस्ल नहीं बल्कि मुल्क की बेहतरी है. आइए, फ़ैज़ को पढ़ते हुए हम अपने समय के नासूरों को पहचाने और राहतों को पाने का काम करें.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पंकज शुक्ला पत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
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