सम्पादकीय

जन्मदिन विशेष लॉरेंस ड्युरेल : भारत में जन्मा प्रसिद्ध ब्रिटिश उपन्यासकार जिसे कभी रास न आई औपचारिक शिक्षा

Gulabi
28 Feb 2022 6:35 AM GMT
जन्मदिन विशेष लॉरेंस ड्युरेल : भारत में जन्मा प्रसिद्ध ब्रिटिश उपन्यासकार जिसे कभी रास न आई औपचारिक शिक्षा
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जन्मदिन विशेष लॉरेंस ड्युरेल
डॉ. विजय शर्मा.
द्रुत गति और खूब ऊर्जा के साथ बोलने वाले लॉरेंस जॉर्ज ड्युरेल का जन्म 27 फरवरी 1912 को भारत में हुआ था। इस ब्रिटिश उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, कवि, यात्रा वृतांत लेखक तथा अनुवाद का जन्म जालंधर में हुआ और एक मजेदार बात बताऊं उसका छोटा भाई जेराल्ड ड्युरेल मेरे शहर यानी जमशेदपुर में जन्मा था।
इधर, जेराल्ड ड्युरेल जिन्होंने 'माई फैमिली एंड अदर एनिमल्स', 'बर्ड्स, बीस्ट्स एंड रेलेटिव्स' तथा 'द गार्डन ऑफ गॉड' जैसी किताबें लिखीं और जो अपने कीट-पतंगों तथा पशु-पक्षी प्रेम के लिए जाने जाते हैं।
बड़ा लेखक, पर रास न आती शिक्षा
लॉरेंस ड्युरेल की प्रारंभिक शिक्षा भारत में सेंट जोसेफ'स स्कूल नॉर्थ पॉइंट दार्जलिंग में हुई थी। लॉरेंस सैमुअल ड्युरेल, उनके इंजीनियर पिता ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकारी थे और भारत के विभिन्न स्थानों में कार्यरत थे। उनकी मां का नाम लुइसा फ्लोरेंस डिक्सी था। अधिकांश पिता की भांति उनके पिता मानते थे कि बेटे को इंडियन सिविल सर्वेंट बनना चाहिए। अत: ग्यारह साल की उम्र में उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया था। मगर बेटा आठ साल से लिखने की ओर मुड़ चुका था, उसे औपचारिक शिक्षा रास नहीं आती थी।
20 साल की उम्र होते न होते उसकी पहली किताब प्रकाशित हुई। पिता पढ़ने-लिखने के लिए अच्छी खासी रकम भेजते और बेटा उसे नाइट क्लब, फास्ट कार और अन्य तमाम बातों में उड़ा रहा था। लॉरेंस यूनिवर्सिटी की परीक्षा कभी पास न कर पाए।
कैंब्रिज के लिए उन्होंने आठ बार कोशिश की और असफल रहे, गणित कभी उनसे न संभला। कैंब्रिज ने भले ही आठ बार प्रयास के बाद उन्हें दाखिला न दिया लेकिन काफी बाद में कैलिफोर्निया इंस्ट्युट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने उन्हें ह्युमनिटीज विषय में लेक्चर देने के लिए विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया और वे वहां कुछ समय शिक्षण करते रहे। पिता के गुजरने के बाद वे लोग कुछ दिन इंग्लैंड में रहे फिर 1935 में यूनान के कोर्फ़ु द्वीप में आ गए।
इंग्लैंड में लिखना उन्हें सहज न लगता, इसके लिए वे यूरोप के अन्य देशों में जाते रहे। लिखने के लिए पागल लॉरेंस ड्युरेल को आजीविका के लिए कई पापड़ बेलने पड़े,लेकिन लिखना उनका सबसे बड़ा जुनून था। जिस तीव्र गति से वे बोलते थे उसी तीव्र गति से वे लिखते भी थे। शुरु में प्रकाशन में काफ़ी दिक्कतें आईं। बाद में वे बीसवीं सदी के एक बड़े और खूब प्रसिद्ध लेखक बने।
पेरिस रिव्यू पत्रिका के अनुसार लॉरेंस का साक्षात्कार करना एक उपहार की भांति रही क्योंकि वे बेवकूफी भरे प्रश्नों के उत्तर भी बुद्धिमता से देते थे। पेरिस रिव्यू में उनका एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित है। गद्य लिखना उन्हें आसान लगता था, उसे वे एक बार में लिख लेते हैं लेकिन कविता के लिए मशक्कत करनी पड़ती है।
उनका मानना था-
कविता को पकड़ना छिपकली को बिना उसकी पूंछ कटे पकड़ने की तरह है, क्योंकि जब आप छिपकली पकड़ने का प्रयास करते हैं तो वह आपको भरमाने के लिए अपनी पूंछ काट कर फेंक देती है। उन्हें अनोखा लगा जब उन्हें पता चला कि जॉर्ज बार्कर उनसे टाइपराइटर मांग कर कविताएं लिखते हैं, पहले वो सोचते थे बार्कर अपने लोगों को खत लिखने के लिए उनसे टाइपराइटर मांगते थे।
ड्युरेल का मानना है कि उसका लेखन आत्मकथात्मक नहीं है और न ही वे वास्तविक लोगों को अपने लेखन में लाते हैं।
लॉरेंस ड्युरेल ने विभिन्न नामों तथा बिना नाम के भी खूब लेखन किया। एक दिन में वे दस पन्ने लिख सकते थे, इसीलिए कहानी उनसे नहीं सधती थी जबकि वे ओ. हेनरी की खूब प्रशंसा करते थे। उन्हें चालीस पन्ने लिखना सरल लगता था।
उनके लिए 'टाइम्स' का कॉलम लिखना भी मुश्किल काम होता था क्योंकि वे 1000 शब्द चाहते थे जो लॉरेंस के लिए कठिन काम था अत: वे पांच-आठ हजार शब्द लिखकर भेज देते और उन लोगों को मनमर्जी से उसकी काट-छांट करने की अनुमति भी दे देते। विदेश सेवा में सीनियर प्रेस ऑफ़ीसर थे, इस पद पर रहते हुए उन्होंने तमाम पत्राचार किए। यहां काम करते हुए उन्होंने संक्षिप्तता तथा डेडलाइन के दबाव पर काम करना सीखा।
वे सफलता-असफलता में भाग्य को एक प्रमुख तत्व को मानते थे। मजेदार बात यह है कि जिसके काम को इतने चाव से पढ़ा जाता है, वह खुद अपने काम को बिल्कुल पसंद नहीं करता है, दोबारा पढ़ना नहीं चाहता है। प्रूफ देखने के समय उसे मितली आती है और सिरदर्द के लिए वह दवा खाता है। एक बार लिखने के बाद वह उसे दोबारा देखना पसंद नहीं करता है।
वे अपने लेखन में बार-बार समान चरित्रों का प्रयोग करते हैं अत: उनके एक आलोचक के अनुसार, ड्युरेल अपने लेखन में कभी सही विभेद नहीं करते हैं, उनके लिखे में वास्तविक और काल्पनिक लोगों में कोई अंतर नहीं होता है। वैसे ड्युरेल का मानना है कि उसका लेखन आत्मकथात्मक नहीं है और न ही वे वास्तविक लोगों को अपने लेखन में लाते हैं।
लेखक के साथ चित्रकार भी
वे चित्रकार भी हैं मगर खुद को बहुत बुरा और भोथरा चित्रकार मानते हैं। आलोचकों की ओर ध्यान न देने वाले इस लेखक का मानना था यदि वे आलोचकों की बात पर कान धरने लगे तो उनका लिखना रुक जाएगा। वे मानते थे कि अच्छी-बुरी दोनों तरह की आलोचना लेखन में बाधा डालती है, कम-से-कम दो दिन काम रुक जाता है। और चूंकि वे आजीविका के लिए लिखने पर ही निर्भर थे, अत: इस तरह का खतरा मोल नहीं ले सकते थे।
वे जिसकी प्रशंसा करते थे उसकी नकल में उन्हें संकोच न था और खुद को चोर कहने से नहीं हिचकते थे। असल में प्रभाव को ही वे नकल मानते थे। जबकि वे जहां कुछ अच्छा देखते उसका अध्ययन करते और उसे पुनर्सृजित करने का प्रयास करते।
लॉरेंस ने अपनी शैली चेतन रूप से विकसित नहीं की बल्कि लेखन के साथ वह विकसित होती गई। वे कहते हैं लेखन खुद विकसित होता है और लेखन के साथ लेखक विकसित होता है।
वे लिखने के पहले बहुत कम कथानक बनाते हैं, उन्हें डर था कि यदि वे पहले से सब तय कर लेंगे तो यह लेखन यांत्रिक हो जाएगा। वे किताब को जीवंत रहने देना चाहते हैं और उसे स्वयं ही विकसित होने देते। एक तिहाई से अधिक प्लानिंग वे कभी नहीं करते। उन्हें पहले से मालूम नहीं होता है यह किस दिशा में जाएगा। नाटक के विषय में उनका मत था कि नाटककार को बेहतर नाटक लिख सकने के लिए अपना लिखा मंच पर प्रदर्शित होते अवश्य देखना चाहिए।
उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध कार्य 'दि एलैक्जांड्रिया क्वार्टेट' है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह चार किताबों ('जस्टिन', 'बाल्थाज़ार', 'माउंटओलिव' तथा 'क्लेआ') का समुच्चय है, जो 1957 से 1960 के बीच प्रकाशित हुआ। पहले तीन भाग द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले और उस काल में मिश्र के लोगों और घटनाओं का चित्रण है। चौथा भाग छ: साल बाद के काल पर आधारित है। स्वयं लेखक के अनुसार इनकी थीम पूर्व और पश्चिम की तत्वमीमांसा का मिलन है।
आलोचक इसकी शैली की शोभा, विविधता तथा चरित्रों की स्पष्टता, पर्सनल तथा पोलिटिकल के मध्य आवाजाही के लिए प्रशंसा करते हैं। द टाइम्स लिटरेरी सप्लिमेंट इसकी प्रशंसा में लिखता है, 'अगर कभी किसी एक साहित्यिक कृति के प्रत्येक वाक्य में लेखक की तत्काल पहचान की मुद्रा है, तो वह यह है।'
यह चतुष्टय खूब चर्चित हुई और इसे इंग्लिश की 100 प्रमुख किताबों में स्थान मिलता है। लॉरेंस के अनुसार इन चारों को साथ-साथ पढ़ा जाना चाहिए। 'दि एलैक्जांड्रिया क्वार्टेट' के अलावा उन्होंने 'पाइप्ड पाइपर ऑफ़ लवर्स', 'पैनिक स्प्रिंग', 'द ब्लैक बुक', 'द डार्क लैबिरिंथ','व्हाइट इगल्स ओवर सर्बिया', 'जुडिथ' जैसे उपन्यास, 'ब्रोमो बमबास्टर्स', 'सैफो', 'एन आइरिश फ़ाउस्टस' 'एक्टे' नाटक, तथा 'स्टिफ़ अपर लिप' जैसे हास्य लिखे। ढ़ेर सारा यात्रा विवरण और पत्र तो हैं ही। 1954 में उन्हें रॉयल सोसायटी ऑफ लिटरेचर का फेलो चुना गया। जब वे साइप्रस में रह रहे थे उन्होंने 'बिटर लेमन्स' लिखा, जिसे 1957 का डफ कूपर पुरस्कार मिला।
लॉरेंस ड्युरेल जिंदगी को मानते थे कठिन
लॉरेंस ड्युरेल को कला आसान लगती थी और जिंदगी कठिन। ऐसे लॉरेंस ने जिंदगी में चार बार शादी की। पहली पत्नी नैन्सी इसोबेल मेयर्स से उनका 1942 में तलाक हो गया और बेटी पेनिलोप को ले कर नैन्सी जेरुसेलम चली गई। एलैक्जांड्रिया में रहते हुए इव कोहेन एक यहूदी स्त्री से वे मिले थे 1942 से उनका उससे संबंध था 1947 में उन्होंने इव से शादी की। इस विवाह से उत्पन्न बेटी का नाम उन्होंने यूनानी कवयित्री के नाम पर सैफो रखा।
1955 में उनका इव से तलाक हो गया तथा उन्होंने 1961 में तीसरी बार शादी की। लेकिन इस बार यहूदी पत्नी क्लाउड-मैरी 1967 में कैंसर से गुजर गई। 1973 में चौथी बार उन्होंने विवाह किया लेकिन इस बार भी उनका संबंध न टिका और फ्रैंच पत्नी गिसलाइन से उनका 1979 में तलाक हो गया।
नोबेल पुरस्कार की कहानी
नोबेल समिति अपने नामांकित उम्मीदवारों के नाम 50 साल तक गुप्त रखती है। 2012 में जब उनके रिकॉर्ड खुले तो ज्ञात हुआ कि 1961 में लॉरेंस ड्युरेल का नाम साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित हुआ था परंतु अंतिम सूची में नहीं पहुंचा तथा अगले साल वे मजबूत दावेदारों की सूची में शामिल थे लेकिन उस साल का पुरस्कार जॉन स्टीनबेक को मिला।
समिति को लगा इस साल उन्हें वरीयता न दी जाए, उनका 'दि एलैक्जांड्रिया' काफ़ी नहीं है, भविष्य में उन पर ध्यान रखा जाए। पर यह कभी हो न सका। शायद बाद में समिति के सदस्यों को उनका लेखन इस पुरस्कार योग्य न लगा। कुछ लोगों के अनुसार उनके लेखन में अश्लीलता की प्रचुर मात्रा होना इसका कारण रहा। वैसे लॉरेंस की माने तो वे अपने स्वभाव के कारण हास्य और कटाक्ष लिखने के लिए जितनी अश्लीलता चाहिए उतनी ला नहीं पाते थे।
स्वयं को मात्र इंग्लैंड का न मान कर कोस्मोपोलिटन मानने वाले लॉरेंस ड्युरेल एक लम्बे समय से चेन स्मोकर थे अत: उन्हें फेफड़ों की बीमारी हो गई मगर 1990 में उनकी मृत्यु हृदयाघात से हुई। इसके पांच साल पहले 1985 में उनकी छोटी बेटी ने आत्महत्या की थी। द गार्डियन पत्रिका के अनुसार 'ड्युरेल बीसवीं सदी के सर्वाधिक बिकने वाले और सर्वाधिक प्रसिद्ध इंग्लिश उपन्यासकार' हैं। आज अगर वे जीवित होते तो 110वां जन्मदिन मना रहे होते। उन्हें उनके जन्मदिन पर अमर उजाला टीम की ओर से स्मरण करना अच्छा लग रहा है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायित्व नहीं है।
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