सम्पादकीय

जन्मदिन विशेष: जनेऊ और गोत्र की सियासत के बीच अटल जी की ओर देखना जरूरी है

Gulabi
25 Dec 2021 4:47 AM GMT
जन्मदिन विशेष: जनेऊ और गोत्र की सियासत के बीच अटल जी की ओर देखना जरूरी है
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जनेऊ और गोत्र की सियासत के बीच अटल जी की ओर देखना जरूरी है
पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की आहट के बीच राजनीतिक दलों में धर्म को लेकर बहस तेज हो गई है. अब हर कोई खुद को सबसे बड़ा हिन्दू साबित करने में जुट गया है. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी खुद को 'असली हिंदू' और बीजेपी को 'हिंदुत्ववादी' यानि उनके हिसाब से 'नकली हिंदू' बता रहे हैं. ऐसे में हिन्दू धर्म के साथ-साथ धर्म और राजनीति पर भारतरत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद करना बेहतर होगा. वाजपेयी सनातनी हिन्दू तो रहे ही, लेकिन हिन्दू धर्म के मर्म को समझने और समझाने की प्रतिभा उनमें खूब रही.
वाजपेयी ने हिन्दू धर्म पर एक निबंध में लिखा, "हिन्दू धर्म के प्रति मेरे आकर्षण का सबसे मुख्य कारण है कि यह मानव का सर्वोत्कृष्ट धर्म है. हिन्दू धर्म न तो किसी पुस्तक से जुड़ा है और न ही किसी एक धर्म प्रवर्तक से, जो कालगति से असंगत हो जाते हैं. हिन्दू धर्म का स्वरूप हिन्दू समाज द्वारा निर्मित होता है और यही कारण है कि यह धर्म युग-युगान्तर से संवर्धित और पुष्पित होता आ रहा है". वाजपेयी हिन्दू धर्म को जीवन की एक विशिष्ट पद्धति और शैली मानते रहे, जो संपूर्ण जीवन को दृष्टि में रखता है. वे धर्मपरायण और ईश्वर पर भरोसा रखने वालों में से रहे.
असली हिंदू और नकली हिंदू की सियासत के बीच अटल जी की सोच
जब पूरे समाज में जातियों को लेकर राजनीतिक पहचान बनाने की कोशिश हो रही हो और राजनेता खुद को असली हिंदू बताने के लिए अपनी जनेऊ और गोत्र बता रहे हों, उस वक्त वाजपेयी की ओर देखना ज़रूरी हो जाता है. एक बार वाजपेयी ने कहा था- आपको मालूम है जब मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए पूरा समय देने के लिए निकला, उस समय तक जनेऊ पहनता था. बाद में मैंने जनेऊ उतार दिया, क्योंकि मुझे लगा कि यह जनेऊ मुझे अन्य हिन्दुओं से अलग करता है. पहले शिखा और सूत्र, हिन्दू की दो पहचान थीं. अब बहुत से लोग चोटी नहीं रखते. इस पर यह कहना कि उन्होंने हिन्दुत्व छोड़ दिया है, ठीक नहीं है. हां, जब चोटी ज़बर्दस्ती काटी जाती थी, तो उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य था.
धर्म केवल आस्थाओं पर आधारित नहीं है. सर्वधर्म सम्भाव हमें जीने का तरीका सिखाता है.
दिसम्बर 1992 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद व्याख्यानमाला में 'सेक्यूलरिज़्म' पर वाजपेयी का भाषण अहम है. वाजपेयी 'सेक्यूलरिज़्म' की पश्चिमी अवधारणा को स्वीकार नहीं करते, लेकिन गांधी के 'सर्वधर्म सम्भाव' को मानते हैं. धर्म की व्याख्या करते हुए वाजपेयी कहते हैं कि धर्म और 'रिलीजन' के अंतर को समझना चाहिए. 'रिलीजन' का संबंध कुछ निश्चित आस्थाओं से होता है. जब तक व्यक्ति उन आस्थाओं को मानता है तब तक वह उस रिलीजन या मजहब का सदस्य बना रहता है और ज्योंही वह उन आस्थाओं को छोड़ता है, वह उस रिलीजन से बहिष्कृत हो जाता है. धर्म केवल आस्थाओं पर आधारित नहीं है. सर्वधर्म सम्भाव हमें जीने का तरीका सिखाता है. सेक्यूलरवाद की भारतीय कल्पना अधिक सकारात्मक है.
अपने भाषण के आखिर में वाजपेयी गुरु गोविंद सिंह को याद करते हुए सुनाते हैं-
देहुरा मसीत सोई, पूजा ओ नमाज ओई,
मानस सभै एक पै,अनेक को प्रभाव है.
अलख अभेख सोई, पुराण ओ कुरान कोई,
एक ही सरूप सभै, एक ही बनाव है.
यानि मंदिर और मस्जिद, पूजा और नमाज, पुराण और कुरान में कोई अंतर नहीं है. सभी मानव एक और समान हैं और एक ही कर्ता की रचना है.
'छूआछूत एक पाप है, अभिशाप है, अस्पृश्यता कलंक है'
संसद में 1968 में अटल जी ने अपने भाषण में छुआछूत को लेकर बड़ी गंभीर चर्चा की, जो सबके बस की बात नहीं. वाजपेयी ने कहा, हम इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि छूआछूत हिन्दू धर्म का हिस्सा है. छूआछूत एक पाप है, अभिशाप है, अस्पृश्यता कलंक है. जब तक यह कलंक हमारे माथे से नहीं मिटेगा, हम दुनिया के सामने सिर ऊंचा करके खड़े नहीं हो सकते और मैं नहीं समझता कि हिन्दू शास्त्र कहते हैं कि अस्पृश्यता चलनी चाहिए.
वाजपेयी कहते हैं, अगर शास्त्रों की ऐसी व्याख्या हुई है तो वह गलत व्याख्या हुई है और हम उसे मानने के लिए तैयार नहीं हैं. मैं एक कदम और आगे जाकर यह कहने के लिए तैयार हूं कि कल अगर परमात्मा भी आ जाए और कहे कि छूआछूत मानो, तो मैं ऐसे परमात्मा को भी मानने के लिए तैयार नहीं हूं. मगर परमात्मा ऐसा नहीं कर सकता तो जो परमात्मा के भक्त बनते हैं उनको भी ऐसी बात नहीं करनी चाहिए.
अल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के पक्षधर रहे वाजपेयी
जनसंघ के अध्यक्ष के तौर पर वाजपेयी ने कहा, जनसंघ सभी भारतीयों को एक मानता है और उन्हें हमेशा के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के तौर पर बांटने का विरोधी है. लोकतंत्र में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का निर्णय राजनीति के आधार पर होता है, मजहब, भाषा या जाति के आधार पर नहीं. सभी अल्पसंख्यकों के प्रति जनसंघ समान व्यवहार का हामी है. उनके साथ यदि कोई भेदभाव किया जाता है तो ग़लत है, और जनसंघ उसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाएगा.
वाजपेयी आडवाणी की रथयात्रा निकालने के पक्ष में भी नहीं थे.
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि राम मंदिर निर्माण मुद्दे को लेकर वाजपेयी कभी बहुत कम्फर्टेबल नहीं रहे. वाजपेयी साधु-संत समाज के राजनीति में दखल को भी पसंद नहीं करते थे. उनका मानना था कि साधु समाज पूजा पाठ करे, राजनीति का काम राजनेताओं को करने दे. वे हमें क्यों बताएं कि क्या करना है. वाजपेयी कहते थे कि क्या हम उनको पूजा पाठ के तरीके सिखाते हैं. दूसरी तरफ जब बीजेपी ने पालमपुर प्रस्ताव में राम मंदिर आंदोलन से जुड़ने का फ़ैसला किया तो वाजपेयी को यह प्रस्ताव और बीजेपी की इसमें सक्रिय भूमिका दोनों ही पसंद नहीं थी. यह प्रस्ताव खुद लालकृष्ण आडवाणी ने तैयार किया था. तब जसवंत सिंह उन्हें इस प्रस्ताव का विरोध करने के लिए उकसा रहे थे.
अध्यक्ष के प्रस्ताव पर आमतौर पर बहस और वोटिंग नहीं होती. प्रस्ताव पास हो गया. वाजपेयी शायद तब अकेले पड़ गए थे. वाजपेयी आडवाणी की रथयात्रा निकालने के पक्ष में भी नहीं थे, लेकिन जब पार्टी ने फ़ैसला कर लिया तो वाजपेयी ने ही दिल्ली में हरी झंडी दिखा कर आडवाणी को रथयात्रा के लिए विदा किया था.
हीरेन मुखर्जी और वाजपेयी के बीच हुआ पत्र व्यवहार अहम है
राम मंदिर विवाद पर 1989 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हीरेन मुखर्जी और वाजपेयी के बीच हुआ पत्र व्यवहार अहम है. जब हीरेन मुखर्जी ने राम जन्मभूमि को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की बात की तो वाजपेयी ने अपनी चिट्ठी में जवाब दिया- हीरेन दा, आपकी तरह मैं भी इस मामले के शांतिपूर्ण हल के पक्ष में हूं. जब मैंने कहा कि अदालत इस मामले को हल नहीं कर सकती तो मेरा मतलब सिर्फ़ यह था कि ऐसे संवेदनशील मामले में जहां विवाद ने भावनाओं, खासकर धार्मिक भावनाओं को गहराई तक छुआ हो, अदालत के किसी भी फ़ैसले को लागू करवाना बहुत मुश्किल होगा. बदकिस्मती से सरकार ने इस सिलसिले में शाहबानो मामले में अदालत के फ़ैसले को बदल कर मिसाल पहले ही बना दी है.
वाजपेयी ने आडवाणी से कहा, "आप शेर की सवारी कर रहे हैं"
वाजपेयी ने लिखा कि जहां तक इस इमारत को राष्ट्रीय स्मारक बनाने का सवाल है तो यह पूछा जा सकता है कि यह स्मारक किस बात की होगी. धार्मिक असहिष्णुता, एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के लोगों द्वारा तोड़ने की स्मृति के सिवाय, यह किस चीज़ का स्मारक होगा. भले ही बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया हो और अब वहां राम मंदिर का निर्माण शुरु हो गया हो, लेकिन वाजपेयी ने लिखा था कि मैंने यह कभी नहीं कहा कि मस्जिद को गिराना चाहिए. मेरी अपनी भारत की खोज ने मुझे यह विश्वास दिलाया है कि भारत सिर्फ़ हिन्दू राष्ट्र के रूप में ही जिंदा रह सकता है.
वाजपेयी ने लिखा कि दो साल पहले बम्बई में एक जनसभा में मैंने सुझाव दिया था कि मुसलमान राम-जन्मभूमि हिंदुओं को सौंपे और हिन्दू सद्भावना को ध्यान में रखते हुए वर्तमान भवन को बिना गिराए वहीं सुरक्षित रख दें और थोड़ा सा हटकर अपना नया मंदिर बनाएं. तब किसी ने इस सुझाव की परवाह नहीं की.
हीरेन दा, आप पवित्र ईंटों को अयोध्या के प्रस्तावित मंदिर के लिए ले जाने की बात से घबरा गए हैं. मैं यह भी बताना चाहता हूं कि बीजेपी इस अभियान में भागीदार नहीं है, भले ही उसके कुछ सदस्य निजी स्तर पर अभियान में शामिल हों….
काशी और मथुरा विवाद पर भी वाजपेयी ने लिखा कि अगर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के सिलसिले में कोई आपसी समझौता संभव हो तो इस आंदोलन से जुड़े लोगों से यह आग्रह किया जा सकता है कि वे मथुरा और काशी को अयोध्या से न जोड़ें.
अटल जी कई मुद्दों पर आडवाड़ी से इत्तेफाक नहीं रखते थे
जुगलबंदी किताब में विनय सेनापति ने लिखा है कि वाजपेयी और आडवाणी के संबंधों के बीच पहली दरार अयोध्या आंदोलन के दौरान दिखाई पड़ी. सेनापति ने कहा है, जैसे ही आडवाणी की अयोध्या रथयात्रा शुरु हुई. इंटेलिजेंस ब्यूरो के कुछ अफसरों ने वाजपेयी से मुलाकात कर उन्हें देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक हिंसा के कुछ टेप दिखाए. वाजपेयी ने तुरंत आडवाणी को फोन कर रथयात्रा रोकने का अनुरोध किया. वाजपेयी ने आडवाणी से कहा, "आप शेर की सवारी कर रहे हैं", लेकिन आडवाणी ने वाजपेयी की सलाह मानने से इंकार कर दिया और अपनी रथयात्रा जारी रखी.
आखिरी बात- वाजपेयी ने तत्कालीन सर संघचालक बालासाहब देवरस के सामने एक मांग रखी थी – संघ 'हिंदू' की जगह 'भारतीय' शब्द का प्रयोग करे. उनकी मांग पर सरसंघचालक देवरस ने कहा कि भारतीय शब्द है तो बहुत अच्छा, लेकिन हिंदू बोलने में हीनता का बोध क्यों?
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