सम्पादकीय

बिरसा मुंडा जन्मोत्सव: उन्हें राष्ट्रीय नेता का वाजिब हक दिलाने वाला अहम कदम

Rani Sahu
16 Nov 2021 12:32 PM GMT
बिरसा मुंडा जन्मोत्सव: उन्हें राष्ट्रीय नेता का वाजिब हक दिलाने वाला अहम कदम
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क्या आपने अपने स्कूल में जनजातीय हीरो और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के बारे में पढ़ा था? मैंने केवल संदर्भों में उनके बारे में सुना था

चिंतन गिरीश मोदी क्या आपने अपने स्कूल में जनजातीय हीरो और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के बारे में पढ़ा था? मैंने केवल संदर्भों में उनके बारे में सुना था, उनकी कहानियों से वाकिफ नहीं था. असल में मूल निवासियों के योगदान को इस तरह मिटा दिया गया है कि इसके लिए शिक्षकों और लेखकों को दोष देने का कोई मतलब नहीं रह जाता. वे उस बड़े सिस्टम के हिस्सा हैं जिसने उपनिवेशवाद के विरोधी मुहिम – जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा की कहानियों में फिट नहीं बैठती – को भूल जाना बेहतर समझा.

रविवार, 14 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया था, "जैसे हम 15 अगस्त, 26 जनवरी, गांधी जयंती और सरदार पटेल जयंती मनाते हैं, वैसे ही जनजातीय गौरव दिवस के रूप में हम 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती मनाएंगे. उस दिन हम वैभवशाली जनजातीय संस्कृति और राष्ट्र के विकास में उनके योगदान का उत्सव मनाएंगे." साथ ही उन्होंने झारखंड में, भगवान बिरसा मुंडा मेमोरियल उद्यान और म्यूजियम का भी उद्घाटन किया.
ब्रिटिश उपनिवेशवाद की वैधता पर सवाल
जनजातीय इलाकों में अंग्रेजी कब्जे के खिलाफ बहुत सी क्रांतियां हुई थीं और इन बगावतों का नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया था. उन्हें अपने नारे 'महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना' के लिए याद किया जाता है. यह नारा ब्रिटिश उपनिवेशवाद की वैधता पर सवाल खड़ा करता है. इस नारे का मतलब है: "महारानी के शासन को खत्म करो, और आओ हम दोबारा अपने राज्य की स्थापना करें!" उन्होंने ईसाई धर्म (हालांकि, पहले उन्होंने इसे अपनाया था) का त्याग कर दिया था. वह ब्रिटिश मिशनरियों के खिलाफ थे और उन्होंने 'बिरसाइट' नामक नए धर्म की स्थापना की थी.
पीएम मोदी ने, एक धार्मिक नेता के रूप में बिरसा मुंडा के महत्व पर प्रकाश डाला. साथ ही उनके जन्मदिन की तुलना राम नवमी और कृष्ण जन्माष्टमी से की. पीएम की घोषणाओं के राजनीतिक संदर्भ का विश्लेषण तो आने वाले दिनों में राजनीतिक जानकार करेंगे. लेकिन एक पूर्व शिक्षक होने के नाते मैं इसे एक उल्लेखनीय मौका मानता हूं. बिरसा मुंडा को लंबे समय तक राष्ट्रीय नेता की जगह एक स्थानीय नेता माना जाता रहा है. इसलिए उनके बारे में दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों की तरह नहीं पढ़ाया गया.
महाश्वेता देवी की किताब
इस विषय में सबसे पहले मैंने तब सोचना शुरू किया जब मैंने महाश्वेता देवी की किताब, Etoa Munda Won the Battle (1989) को पढ़ा. इस किताब को नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है. यह बच्चों के लिए लिखी गई कल्पना पर आधारित किताब है. जिसमें आदिवासी लड़के Etoa के बारे में बताया गया है. वह हाथीघर में अपने दादा मंगल के साथ रहता है. मंगल को उम्मीद है कि Etoa की औपचारिक शिक्षा उसे मजबूत करेगी और वह गांव के बड़े लोगों और सरकारी अधिकारियों के अत्याचारों के खिलाफ खड़ा हो पाएगा.
इस किताब को पढ़ते वक्त मुझे विचार आया कि उन स्कूलों में आदिवासी बच्चे कितना अलग-थलग महसूस करते होंगे जहां उनके त्योहारों, उनकी सांस्कृतिक परंपराओं और उनके नेताओं का कोई जिक्र तक नहीं होता. किताब में लेखिका उन तारीखों का जिक्र करती हैं जो Etoa और उसके समुदाय के लिए बहुत अहम हैं. पहला, 15 नवंबर, मुंडाओं के महान नेता बिरसा भगवान का जन्मदिन और दूसरा, 30 जून, जिसे सिधु-कान्हु दिवस के रूप में मनाया जाता है.
महाश्वेता देवी का उपन्यास अरण्येर अधिकार (1977), जिसे 1979 में साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ था, बिरसा मुंडा के जीवन पर केंद्रित है. यह केएस सिंह की मौलिक कृति, Dust-Storm and Hanging Mist: Story of Birsa Munda and his Movement (1966) पर आधारित है. देवी की प्रेरणा से सिंह ने अपनी कृति को संशोधित किया, और 1983 में इसका नया संस्करण, Birsa Munda and his Movement 1874-1901: A Study of a Millenarian Movement in Chotanagpur आया.
एक आईएएस अफसर का शोध
केएस सिंह एक आईएएस अफसर थे, जो छोटानागपुर के कमिश्नर रहे और Anthropological Survey of India के डायरेक्टर-जनरल भी थे. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित, इस संशोधित संस्करण को archive.org पर प्राप्त किया जा सकता है. सिंह बताते हैं कि उन्होंने यह अध्ययन अपने कार्यकाल के दौरान किया था, जब वे अगस्त 1960 से दिसंबर 1962 के बीच, उस उपमंडल के इंचार्ज अफसर थे, जहां मुख्य तौर पर मुंडा जनजाति के लोग निवास करते थे.
सिंह लिखते हैं, "इस कृति के लिए मेरा शोध उलगुलान विद्रोह के एक सामूहिक गीत से शुरू हुआ. मैंने इसे 1960 में 30 दिसंबर की रात को, बिरबंकी नामक स्थान में – जो खुंटी से करीब 28 मील दूर है – सुना था. यह घुमावदार पहाड़ियों वाला इलाका है. यह गीत, भजन के तर्ज पर था जिसे अलाव के चारों ओर नृत्य करते हुए गाया जा रहा था. इस गीत में आगामी क्रांति की बात की जा रही थी."
अफसर के तौर पर केएस सिंह की जिम्मेदारी कल्याणकारी और विकास योजना पर नजर रखना था. फिर भी वे मुंडाओं की परंपरा में दिलचस्पी रखते थे. अपने कार्यकाल के समय बिरसाइट भक्तों से मुलाकातों के दौरान उन्हें "अपने लोगों पर बिरसा के प्रभाव" के बारे में पता चला. हालांकि, ये लोग शुरू में सिंह को लेकर आशंकित थे, किंतु धीरे-धीरे वे सहज हो गए और उन्होंने अपने भगवान के उपदेशों और उनकी रचनाओं के बारे में बताना शुरू किया.
सिंह ने बिरसा मुंडा के आंदोलन के बारे में शोध ग्रंथ लिखा. उनके मुताबिक, यह "अपनी जड़ों से कृषि आधारित, अर्थ में आक्रामक, और अंतत: राजनीतिक है". वे लिखते हैं, "अपने भाषणों में बिरसा कृषि पर जोर देते थे और अपने लोगों की समस्याओं का राजनीतिक हल ढूंढते थे. वह नए राजा (स्वयं) की अगुवाई में बिरसाइट राज की स्थापना के हिमायती थे."
बिरसा मुंडा के जन्मदिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने के मोदी के प्रयासों का जनजातीय स्कूली बच्चों के जीवन पर क्या वास्तविक प्रभाव पड़ेगा? क्या इस उत्सव में ऐसे प्रयास शामिल किए जा सकेंगे जिससे स्कूली प्रशासक और शिक्षक जनजातीय जीवन का सम्मान करने के लिए प्रेरित होंगे? शिक्षक, विद्रोह के प्रतिनिधि बिरसा मुंडा के बारे में किस तरह बात करेंगे? आइए इंतजार करें और देखें.
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