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बिरजू महाराज का जाना दरअसल जाना नहीं आगमन है
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
कहा जाता है ठुमरी छह प्रकार की होती हैं। विलंबित लय की ठुमरी, मध्य लय की ठुमरी, गत भाव ठुमरी, भाव नृत्य ठुमरी, बोल बनाव ठुमरी और बोल बांट ठुमरी। पंडित बिरजू महाराज के पिता जगन्नाथ प्रसाद मिश्र यानी अच्छन महाराज कथक के महागुरु थे। उनके बड़े पापा बिंदादीन महाराज ने रची थी भाव नृत्य ठुमरी। इसमें गायन, भाव और नृत्य का समावेश होता है। बिंदादीन महाराज की ही रचना है - देखो-देखो कैसे करत है ये रार… जिसे बाद में उनके लखनऊ घराने के अलावा पंडित छन्नूलाल मिश्र सहित अनेक संगीत मनीषियों ने गाया। पिता अच्छन महाराज के ही शिष्य थे बिरजू महाराज। सात वर्ष की उम्र में पिता से शिक्षा लेना शुरू कर दिया था और दो साल बाद पिता गुज़र गए। चाचा शंभु महाराज से भी सीखे। दूसरे चाचा लच्छू महाराज, जिन्होंने मुगले आज़म में नृत्य निर्देशन किया, कई बार फिल्मों से जुड़ने का आग्रह किया लेकिन बिरजू महाराज नहीं माने। बहुत बाद में कुछ फिल्मों में उन्होंने नृत्य निर्देशन किया। लोग उन्हें कथक गुरु के नाम से ही जानते थे। लेकिन वे तबला और गायन, खासकर ठुमरी गायन में भी उतने ही पारंगत थे। तबला पर उनके हाथ चलते देख लगता था जैसे उंगलियां कथक कर रही हों। चेहरे पर तो भाव होते ही थे। वे तबला बजाएं या कथक करें या गायन, सबसे पहले ताल में प्रवेश करते थे। चारों ओर उनकी जो दृष्टि होती थी, वह अलग ही भाव दर्शाती थी। किसी अन्य गायक के साथ जब वे मंच पर होते थे, गायक मुंह से और पंडित बिरजू महाराज आंखों से गाते थे। उनकी आंखों में वे स्वर, वे शब्द, लय और भाव कोई भी देख पाता था। यही सरलता उन्हें महान से महान बनाती गई। पंडित अजय चक्रवर्ती की एक ठुमरी है। भैरवी में। बरजोरी नाहीं रे…नाहीं रे, नाहीं रे… पनिया भरन, गगरी मोरी गिराई, करिके लड़ाई… बरजोरी नाहीं रे… इस पर बगल में बैठकर बिरजू महाराज ने भाव नृत्य किया है। (गूगल में भी आपको मिल जाएगा)। देखिए मौन रहकर जो ठुमरी बिरजू महाराज ने गाई है, खुद पंडित अजय चक्रवर्ती भी आश्चर्य में पड़ गए। गगरी सिर पर रखने और उसके गिरने का जो भाव है, दर्शनीय है। खुद पंडित बिरजू महाराज कहते रहे हैं कि कथक में गिनती यानी ताल और बोलों से चित्र बनाया जाता है। दरअसल यह एक चित्रकथा होती है। जो जैसा चित्र बना पाता है, वैसा कलाकार बन जाता है। अभिनय से आगे तथा गायन और वादन के बीच में कहीं भाव चलते रहते हैं। भावों से भरी इस दुनिया को 84 की उम्र में विदा कह गए पंडित बिरजू महाराज के शिष्य देशभर में हैं। उनकी परंपरा हमेशा रहेगी। उनका जाना दरअसल जाना नहीं, आगमन है। उठान और संचारी उनकी खासियत थी, जो उनके अनेक शिष्यों में कूट कूट कर भरी हुई है। वे अमर रहेंगे। उनकी परंपरा अमर रहेगी। श्रद्धांजलि।
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