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- बिरजू महाराज
दुनिया में उनकी प्रतिष्ठा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक अहम हस्ताक्षर के रूप में दर्ज की जाएगी, लेकिन सच यह है कि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। जीवन के अलग-अलग आयामों की विशिष्टता से परिपूर्ण पंडित बिरजू महाराज का जीवन संघर्षों के साथ शुरू हुआ, जब सिर्फ नौ साल की उम्र में उनके पिता अच्छन महाराज गुजर गए और परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गिरी।
उनका जन्म चार फरवरी, 1938 को हुआ था और इस लिहाज से देखें तो आजादी के पहले जिस दौर और व्यवस्था में वे पल-बढ़ रहे थे, उसमें समझा जा सकता है कि खुद को और परिवार संभालते हुए उन्होंने आगे चल कर जीवन का जो मुकाम हासिल किया, उसके लिए उन्हें कितने और किस तरह के संकटों से गुजरना पड़ा होगा। वे लखनऊ के 'कथक-बिंदादीन घराने' में पैदा हुए थे, लेकिन बचपन में ही कई चुनौतियों से घिरने के साथ-साथ उन्होंने इस परंपरा को कायम रखा और अपने पिता अच्छन महाराज और चाचा शंभू की पंक्ति में ही अपनी जगह बनाई।
दरअसल, पंडित बिरजू महाराज को कला के क्षेत्र में एक ऐसे अनोखे संस्थान के तौर पर देखा जाने लगा था, जिन्होंने संगीत की दुनिया में अपनी प्रतिभा से कई पीढ़ियों को प्रभावित किया था। हालांकि जब वे महज तीन साल के थे, तभी उनके पिता को यह अंदाजा हो गया था कि उनके बेटे के भीतर किस तरह की प्रतिभा छिपी है। इसी के मुताबिक उन्होंने उनका प्रशिक्षण भी शुरू किया था। मगर अच्छन महाराज की असमय मृत्यु हुई और फिर बृजमोहन के प्रशिक्षण का जिम्मा उनके चाचा ने उठा लिया। उनकी प्रतिभा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज तेरह साल की उम्र में ही बिरजू महाराज ने दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य की शिक्षा देने का काम शुरू कर दिया था।
संगीत की दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज करने के साथ ही बृजमोहन पहले बिरजू और फिर बिरजू महाराज के नाम से मशहूर हुए। इस क्षेत्र में बिरजू महाराज की भूख केवल ज्यादा से ज्यादा सीखने तक सीमित नहीं थी, बल्कि हर वक्त वे नया रचने के लिए खुद को तराशते रहे। बचपन से संगीत और नृत्य की सीख उनके भीतर जिस स्तर तक घुली, उसके बूते ही उन्होंने अलग-अलग तरह की नृत्यावलियों, मसलन, गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव और फाग बहार आदि की रचना की। ताल और वाद्यों की अपनी खास समझ का ही यह हासिल था कि उन्होंने तबला, पखावज, ढोलक, नाल और वायलिन, स्वर मंडल और सितार जैसे वाद्य-यंत्रों के सुरों का भी ज्ञान अर्जित किया।
यों कथक उनके जीवन का ध्येय बना और उन्होंने अपना पूरा जीवन इस नृत्य कला को देश-दुनिया में पहचान दिलाने के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन वे एक उत्कृष्ट कलाकार होने के साथ-साथ शानदार कवि भी थे। उन्हें ठुमरी सहित गायकी के अन्य रूप में भी महारत हासिल थी। सिनेमा के क्षेत्र में भी उनकी जरूरत महसूस की गई। सत्यजित रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' के लिए उन्होंने उच्च कोटि की दो नृत्य नाटिकाएं रचीं।
इसके अलावा, 2012 में उन्हें 'विश्वरूपम' और 2016 में 'बाजीराव मस्तानी' के लिए नृत्य निर्देशन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्होंने 'दिल तो पागल है', 'गदर', 'देवदास' और 'डेढ़ इश्किया' जैसी कई फिल्मों में नृत्य निर्देशन किया था। देश-विदेश में हजारों संगीत प्रस्तुतियों और पद्म विभूषण जैसे सम्मान से विभूषित बिरजू महाराज की अहमियत और जरूरत उनके जाने के बाद और ज्यादा तीव्रता से महसूस की जाएगी।