सम्पादकीय

बिहार का 'सोशल साइट' विवाद

Gulabi
24 Jan 2021 10:50 AM GMT
बिहार का सोशल साइट विवाद
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भारतीय संस्कृति में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को जिस ऊंचे स्तर पर प्राचीनकाल से ही रख कर देखा गया है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारतीय संस्कृति में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को जिस ऊंचे स्तर पर प्राचीनकाल से ही रख कर देखा गया है उसका सबसे बड़ा उदाहरण 'महर्षि दुर्वासा' हैं जो अपने तीखे, स्पष्ट व सामान्य अर्थों में कथित दुर-वचनों के लिए ही विख्यात रहे और ऋषि पद पर प्रतिष्ठापित किये गये। या नाम तथा गुण से विभूषित दुर्वासा कटु वचनों के लिए इसलिए जाने गये क्योंकि वह राजा से लेकर प्रजा तक को 'आइना' दिखा कर सत्य का दर्शन कराते थे और उग्र आलोचना से उन्हें अपना रास्ता बदलने को प्रेरित करते थे। अतः बिहार सरकार ने सोशल मीडिया व इंटरनेट पर सरकार से जुड़े लोगों से लेकर मन्त्रियों व विधायकों और सांसदों की तीखी व उग्र आलोचना को आपराधिक श्रेणी में डालने की जो सूचना जारी की है, वह भारत की लोकतान्त्रिक परंपराओं के अनुरूप नहीं कही जा सकती। बेशक यह तथ्य गौर करने लायक है कि आलोचना करने में अश्लील भाषा के प्रयोग से बचा जाना चाहिए और गाली व अभद्र शब्दावली का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।


बिहार सरकार को एेसी सूचना जारी करने से पहले ऐसे विषयों पर ही देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा दिये निर्णयों का अध्ययन करना चाहिए था और फिर किसी फैसले पर पहुंचना चाहिए था। पिछले दिनों ही बम्बई उच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में जो फैसला दिया वह महत्वपूर्ण है जिसमें विद्वान न्यायाधीशों ने कहा था कि 'सार्वजनिक जीवन में कार्यरत लोगों की आलोचना करने का जनता को पूरा अधिकार है। यदि युवा पीढ़ी को हम अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं देंगे तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि वे जो विचार व्यक्त कर रहे हैं, वे सही हैं या गलत हैं।'

उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी पिछले महीने महाराष्ट्र की एक 38 वर्षीय महिला के खिलाफ पुलिस द्वारा मुकदमा दर्ज किये जाने के मामले में की थी। इस महिला ने सोशल मीडिया में महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे व उनके मन्त्री पुत्र आदित्य ठाकरे की तीखी आलोचना की थी और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल किया था। मगर बिहार में अभद्र भाषा के शब्दों के प्रयोग के साथ सत्ता के अंग के व्यक्तियों की आलोचना को 'साइबर क्राइम' का हिस्सा बना दिया गया है और पुलिस को आलोचना करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ 'सूचना व प्रौद्योगिकी कानून' के तहत विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दे दी गई है। हालांकि पुलिस अपनी तरफ से मुकदमे दर्ज नहीं करेगी और किसी व्यक्ति के शिकायत करने पर ही विभिन्न धाराएं लागू करेगी परन्तु कटु वचनों में की गई आलोचना को अपराध बनाने से वैचारिक या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होने का पक्का अन्देशा बना रहेगा, जिसकी गारंटी भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को कुछ शर्तों के साथ दी गई है। यह शर्त हिंसक विचार या हिंसा फैलाने के प्रयासों से सम्बन्धित है और संयोग से भारतीय संविधान का पहला संशोधन भी है जो संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर के जीवन काल में ही प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया था।

बिहार सरकार ने जिस तरह सूचना जारी की है वह भी उचित रास्ता नहीं लगता है। अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं जब केरल की वामपंथी सरकार ने लगभग इसी प्रकार का फरमान राज्य पुलिस कानून में संशोधन करके जारी किया था। इसका चारों तरफ से प्रबल विरोध हुआ था, यहां तक कि स्वयं दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे जन विरोधी व लोकतन्त्र विरोधी कदम बताया था क्योंकि इसमें किसी भी 'आक्रामक सोशल पोस्ट' करने वाले व्यक्ति को जेल भेजने का प्रावधान था। अंत में केरल सरकार ने इस कानून के अमल पर रोक लगा दी थी। अतः बिहार सरकार को सभी पक्षों पर गहन विचार करने के बाद 'साइबर क्राइम कानून' की हदों में 'सोशल मीडिया पोस्ट' को लाना चाहिए था लेकिन इसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि इसी राज्य में 80 के दशक में जब कांग्रेस पार्टी के नेता डा. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमन्त्री थे तो वह स्वतन्त्र प्रेस की आवाज बन्द करने की गरज से कानून लाये थे जिसका प्रखर विरोध हुआ था और अंत में उन्हें अपना कदम वापस लेना पड़ा था। अभिव्यक्ति की आजादी का जज्बा भारतीय लोकतन्त्र की 'प्राण वायु' के रूप में सदियों से बहता चला आ रहा है। इस पर अंकुश लगाना बिहार जैसे राज्य की संस्कृति से बिल्कुल मेल नहीं खाता है क्योंकि इस राज्य के लोगों के रक्त में ही जनतन्त्र इस तरह रचा-बसा है कि यहां का सामान्य नागरिक भी राजनीति के उलझे हुए पेंचों को खोलने में समर्थ माना जाता है। यह रामायण काल के उन 'राजा जनक' की स्थली माना जाता है जो भारतीय प्रागैतिहासिक काल के पहले फकीर राजा (विदेह) हुए। इसके साथ ही वैशाली का प्राचीन लोकतन्त्र इस राज्य की धरोहर है। असली सवाल यह है कि हम युवा पीढ़ी को सभ्य व शालीन तेवरों में तीखी आलोचना करने के लिए प्रेरित करें। भारत का लोकतन्त्र कभी भी आलोचना करने से कमजोर नहीं हुआ है बल्कि हर दौर में और मजबूत होकर ही निखरा है। मगर आलोचना सुसंस्कृत व सभ्य तरीके से होनी चाहिए जिसका लाभ आम जनता के राजनीतिक रूप से सुशिक्षित होने में ही होता है।


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