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बिहार में जहरीली शराब पीने की वजह से 33 लोगों की मौत हो गई है
बिहार में जहरीली शराब पीने की वजह से 33 लोगों की मौत हो गई है. कई लोगों की आंख की रोशनी चली गई है. इन हादसों के बाद इस बात को लेकर बहस तेज हो गई है कि बिहार सरकार द्वारा पांच साल पहले शुरू की गई शराबबंदी फ्लॉप है, यह बेवजह लागू की गई थी और इसे अब हटा लेना चाहिए. इस बहस में दो तरह के लोग शामिल हैं.पहले वो जो पहले दिन से कह रहे थे कि शराबबंदी बेकार की चीज है. शराब पीना और न पीना यह व्यक्तिगत चयन की बात है.
बिहार सरकार या किसी दूसरी सरकार को ऐसे कामों में नहीं फंसना चाहिए. दूसरे वे लोग हैं, जो शराबबंदी के बाद भी जगह-जगह आसानी से उपलब्ध हो रहे शराब की वजह से परेशान हैं, वे देख रहे हैं कि शराबबंदी का जो फायदा बिहार को होना था, वह हुआ नहीं. जो लोग पहले दिन से शराबबंदी कानून के खिलाफ हैं, उनके लिए तो शराबबंदी सफल भी रहती तो वे इसके खिलाफ रहते. शराबबंदी की विफलता के रूप में उन्हें यह साबित करने का एक तर्क मिल गया है कि यह कोई जायज कानून नहीं है.
वे लोग शराब पीने और न पीने को व्यक्तिगत पसंद नापंसद की बात मानते हैं और कहते हैं कि सरकार को ऐसे मामलों में दखल नहीं देना चाहिए. मगर वे इस बात को या तो भूल जाते हैं, यह नजरअंदाज कर देते हैं कि एक व्यक्ति के शराब पीने का असर सिर्फ उसपर नहीं. उसके परिवार पर भी पड़ता है. खास तौर पर महिलाएं, जो शराब पीने वाले पुरुषों की मां, बहन, बेटी या पत्नी होती है. वह कई दफा शराब पीकर अनियंत्रित हो चुके पुरुषों की वजह से कई तरह की प्रताड़ना झेलती है.
यह प्रताड़ना शारीरिक से लेकर मानसिक तक होती है. इसी वजह से देश और दुनिया में जगह-जगह महिलाओं ने शराब के खिलाफ अभियान चलाए.
बिहार के संदर्भ में भी अक्सर इस बात को भुला दिया जाता है कि यहां महिलाओं ने लंबे समय से शराबबंदी के खिलाफ अभियान चलाया था. शराबबंदी कानून का सारा क्रेडिट बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार को दे दिया जाता है. जबकि बिहार में शराबबंदी कानून 2016 में लागू हुआ, उससे पहले 2005 से 2015 तक नीतीश कुमार के राज में बिहार में शराब शहरों से निकलकर गांव-देहात की गलियों तक पहुंची थी. उसी जमाने में पहली बार बिहार में पंचायत स्तर पर शराब की दुकानें खोलने के लिए ठेके दिए गए थे. और इन ठेकों की वजह से नशे की लत गांव-गांव तक पहुंच गई थी.
जिन्हें 2016 से पहले का दौर याद है, वे जानते हैं कि कैसे गांव की महिलाएं अलग-अलग इलाकों में शराब के खिलाफ आंदोलन किया करती थीं. ये आंदोलन रोहतास से लेकर मुजफ्फरपुर तक बगहा से लेकर जमुई तक हर जगह हुए. महिलाओं ने अवैध शराब की भट्ठियां तोड़ीं. शराब पीकर घर लौटने वालों को जलील किया और कई जगह वे शराब माफियाओं की पिटाई का भी शिकार हुईं.
उस समय तक ग्रामीण महिलाओं की निगाह में उनकी सबसे बड़ी समस्या अपनी कमाई शराब में उड़ाकर घर लौटने वाले उनके पति ही थे. वे शराब के नशे में उनके साथ मारपीट करते थे, उनकी कमाई छीन लेते थे, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते थे. धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि छोटे बच्चे भी इस नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं.
पंचायत स्तर पर खोले गए शराब के ठेके उन दिनों नीतीश कुमार के लिए किरकिरी की वजह हुआ करते थे. इसलिए 2015 की चुनाव में जीतने के बाद उन्होंने तय किया कि वे महिलाओं की इस मांग को मान लेंगे. मगर इसके पीछे उनकी सदाशयता कम और महिलाओं को वोट बैंक के रूप में तैयार करने की राजनीतिक मंशा अधिक थी. बहरहाल 2016 के अप्रैल महीने में बिहार में शराबबंदी लागू हो गई.
मगर इस कानून को लागू करते वक्त एक बड़ी चूक यह हुई कि पहले सरकार ने आंशिक शराबबंदी लागू करने की योजना बनाई थी, जिसके मुताबिक शहरों में कुछ सरकारी शराब की दुकान खोले जाने थे. मगर उन दुकानों का भी इतना विरोध हुआ कि सरकार ने पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी. सरकार को इस फैसले से बचना चाहिए था. खैर.
असली दिक्कत इस कानून को लागू कराने में हुई. पहले इसे समाज सुधार के नजरिए से देखा गया था. जिसमें जागरूकता और साथ ही साथ शराब की लत के शिकार लोगों के लिए नशामुक्ति और उनके पुनर्वास की भी योजना बनी थी. तब यह तय हुआ था कि राज्य के सभी 38 जिले के सदर अस्पतालों में नशामुक्ति केंद्र खुलेंगे. वहां इसके लिए कुछ बेड रिजर्व रहेंगे.
शराब या शराब का कारोबार छोड़ने वालों को कोई रोजगार शुरू करने में मदद की जाएगी. उनका पुनर्वास होगा. शराब को लेकर बड़े पैमाने पर जनजागरण अभियान चलेगा. नीतीश कुमार इस अभियान को पूरे देश में चलाना चाहते थे. साथ ही वे पूर्ण नशामुक्ति की तरफ बढ़ना चाहते थे.
उस वक्त सब बेहतर लग रहा था. मगर धीरे-धीरे बिहार सरकार का फोकस शिफ्ट होने लगा. नशामुक्ति का जो अभियान बड़े पैमाने पर चलना था, वह न के बराबर चला. पुनर्वास भी नहीं के बराबर हुआ. इस तरह उन लोगों को जो इस कानून के लागू होने से पहले नशे की गिरफ्त में थे, उन्हें उनके ही भरोसे छोड़ दिया गया कि वे कैसे इसके गिरफ्त से बाहर आते हैं. उनमें से ज्यादातर लोगों ने नशे का तरीका बदल लिया. वे शराब के बदले गांजा, स्मैक, भांग, ताड़ी आदि पीने लगे.
वे नशे की लत की वजह से बार-बार राज्य से बाहर जाने लगे. फिर धीरे-धीरे राज्य में हर जगह शराब आसानी से उपलब्ध होने लगी. कच्ची शराब भी हर जगह बनने लगी. ऐसे में वे फिर से शराब का सेवन उसी तरह करने लगे, जिस तरह 2016 से पहले करते थे. यानी इस कानून का नतीजा सिफर हो गया.
जानकार मानते हैं कि बिहार में शराबबंदी के असफल होने की यही वजह है. इसे पूरी तरह पुलिस महकमे के भरोसे छोड़ दिया गया. कहा जाता है कि पुलिस वालों ने इसे रोकने के बदले इसका सामानांतर सिस्टम तैयार करवा दिया. अगर इसके साथ-साथ नशामुक्ति और पुनर्वास की प्रक्रिया पर फोकस किया जाता. वह अभियान निरंतर चलाया जाता तो शायद यह स्थिति पैदा नहीं होती.
लोग एक बार समझ जाते कि शराब पीना उनके लिए नुकसानदेह है, वे इस लत से बाहर निकल आते तो ज्यादातर लोगों के लिए शराब की जरूरत ही खत्म हो जाती. मगर इस प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा की गई. मान लिया गया कि अगर शराब उपलब्ध नहीं होगी तो लोग खुद बखुद पीना छोड़ देंगे. जबकि शराब हर जगह आसानी से उपलब्ध है.
अभी भी, इतनी फजीहत के बाद भी सरकार इसी तरह सोच रही है कि शराब की उपलब्धता को रोका जाए. मगर शराबबंदी की सफलता इस बात में नहीं है कि जब शराब नहीं हो तो लोग पीना बंद कर दें. इसकी सफलता इस बात में है कि शराब उपलब्ध हो भी तो लोग पीने से परहेज करें. वे लोग जो शराब के खतरों से वाकिफ नहीं हैं, वे इससे वाकिफ हो और इससे सामान्य रूप से परहेज करें.
इसका तरीका नशामुक्ति और पुनर्वास ही है. सरकार जैसा कह रही है कि वह छठ के बाद बड़ा अभियान चलाएगी, तो अपने उस अभियान में उसे नशामुक्ति और पुनर्वास के बारे में गंभीर योजना बनानी चाहिए. सिर्फ शराब की उपलब्धता को रोकने और जागरूकता अभियान चलाने से यह अभियान सफल नहीं होगा.
साथ ही इस अभियान की समय सीमा तय होनी चाहिए और उसके बाद सरकार को पूर्ण शराबबंदी से आंशिक शराबबंदी की तरफ बढ़ना चाहिए. ताकि जो लोग अपना भला बुरा समझते हुए और दूसरे को परेशान किए बगैर कभी-कभार शराब पीते हैं, उन्हें शराब उचित तरीके से उपलब्ध हो सके. क्योंकि पूर्ण शराबबंदी का नुकसान राज्य के पर्यटन और उद्योग क्षेत्र को भी हो रहा है. अगर दूसरे राज्य के लोग यहां आकर शराब पीना चाहें तो उनके साथ सख्ती बरतना बहुत जरूरी नहीं है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
पुष्यमित्र
पुष्यमित्र ,लेखक एवं पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक. विभिन्न अखबारों में 15 साल काम किया है. 'रुकतापुर' समेत कई किताबें लिख चुके हैं. समाज, राजनीति और संस्कृति पर पढ़ने-लिखने में रुचि.
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