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- बिहार चुनाव: मोदी पर...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मेरा सुंदर सपना टूट गया। जी हां, बात बिहार चुनाव नतीजों की हो रही है, लेकिन सपना केवल तेजस्वी यादव और राहुल गांधी का ही नहीं टूटा। एक्जिट पोल के बाद प्रधानमंत्री मोदी से नफरत करने वाली लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड की बांछें खिली हुई थीं। उसे लग रहा था कि अब मोदी के खिलाफ एक नया विमर्श गढ़ने का समय आ गया है। बिहार में राजग की संभावित हार का ठीकरा मोदी-शाह के सिर फोड़ने की तैयारी हो चुकी थी।
बिहार के नतीजों से सिर्फ यह नहीं तय होना था कि राज्य में सरकार किसकी बनेगी। उनसे राष्ट्रीय राजनीति की आगे की दिशा भी तय होनी थी। राजग की जीत ने बता दिया कि इस दिशा के दिशासूचक यंत्र मोदी होंगे। भाजपा नहीं चाहती थी कि वह बिहार में हारकर बंगाल के चुनाव मैदान में उतरे, पर उसके विरोधी यही चाहते थे। बिहार में हार से भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता।
भाजपा को लग रहा बंगाल में उसकी सरकार बन सकती है
देसी और विदेशी मीडिया तक में यह विमर्श शुरू हो जाता कि किस तरह मोदी के पैर के नीचे से जमीन खिसक रही है। यह भी कि अमेरिका में ट्रंप के बाद अब मोदी के जाने की बारी है। तो तेजस्वी को मुख्यमंत्री न बन पाने का जितना दुख होगा, उससे ज्यादा इस वर्ग को है। जो भी हो, बिहार की जीत के बाद भाजपा को पहली बार लग रहा है कि बंगाल में उसकी सरकार बन सकती है।
कई संदेश और संकेत
बिहार के लोगों ने नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की मंशा और सेवा पर अधिक भरोसा किया।
बिहार चुनाव के संदेश और संकेत कई हैं। बिहार के लोगों ने फिर बता दिया कि वे लालू यादव के जंगलराज को भूले नहीं हैं। 2015 में नीतीश के महागठबंधन में होने कारण लोगों को भरोसा था कि जंगलराज जैसा माहौल नहीं बनेगा। राजद के कोर वोट की राजनीतिक संस्कृति उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है। उसकी सबसे बड़ी ताकत ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। लालू यादव हों या मुलायम सिंह, दोनों का उभार तो हुआ पिछड़ों के नेता के रूप में, लेकिन वे यादव नेता बनकर रह गए।
अगली पीढ़ी जनाधार में कुछ जोड़ने में अभी तक नाकाम रही
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इन्हें मुसलमान वोट मिल जाते हैं, इसलिए इनकी राजनीतिक प्रासंगिकता बनी हुई है। इनकी अगली पीढ़ी अपने जनाधार में कुछ जोड़ने में अभी तक नाकाम रही है। सरकार आने की प्रबल संभावना के बावजूद सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं ने ओवैसी की पार्टी को पांच सीटें देने से गुरेज नहीं किया।
जातीय जनाधार की आक्रामकता लोगों को डराती है
उत्तर प्रदेश में अखिलेश और बिहार में तेजस्वी अपने जनाधार की राजनीतिक संस्कृति में कोई बदलाव लाने में कामयाब नहीं हुए हैं। नतीजा यह है कि इनके जातीय जनाधार की आक्रामकता लोगों को डराती है। एक अन्य समस्या इनकी विकास विरोधी छवि है। इसीलिए प्रधानमंत्री चुनाव के दूसरे चरण में जंगलराज का मुद्दा उठाते हैं और पूरा चुनाव पलट जाता है।
मोदी पर महिलाओं के भरोसे ने लिखी जीत की इबारत
बिहार चुनाव ने यह स्थापित कर दिया है कि शौचालय, घरेलू गैस कनेक्शन जैसी योजनाओं के जरिये भाजपा से महिलाओं को जोड़ने का जो अभियान शुरू किया गया था, वह अब एक संगठित वोट बैंक बन चुका है। यह ऐसा वोट बैंक है, जिसमें जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र का भेद नहीं है। मोदी महिलाओं में सुरक्षा की भावना और उनके जीवन के शुभ का प्रतीक बन गए हैं। मोदी पर महिलाओं के भरोसे ने बिहार में राजग की जीत की इबारत लिखी है।
नीतीश का भी योगदान
इसमें नीतीश का भी योगदान है। पिछले पांच साल के कामकाज की नाराजगी के खिलाफ महिलाएं ढाल बनकर खड़ी हो गईं। उन्होने बढ़-चढ़कर मतदान किया। वे अब परिवार के मुखिया की पसंद के खिलाफ जाकर भी वोट करने को तैयार हैं। महिलाओं के इस राजनीतिक एंपावरमेंट में मोदी की नीतियों ने बड़ी भूमिका निभाई है। वास्तव में नरेंद्र मोदी ने भाजपा के सामाजिक जनाधार का पूरा चरित्र ही बदल दिया है।
भाजपा क्षेत्रीय दलों की तरह राजनीति नहीं कर सकती
भाजपा क्षेत्रीय दलों की तरह जाति की राजनीति नहीं कर सकती। उसका ऐसा कभी जनाधार भी नहीं रहा। वह इस जरूरत की पूर्ति कर रही है कि लोग जातीय अस्मिता की राजनीति के खांचे से बाहर निकलें। पिछले सात सालों में मोदी ने देश की राजनीति में अपना एक और नया वोट बैंक बनाया है। यह है गरीबों, पिछड़ों, दलितों, शोषितों और वंचितों का। इस वर्ग के मन में 'मोदी हैं तो मुमकिन' है का नारा घर कर गया है।
मोदी से विश्वास डिगता नहीं
मोदी ने यह काम केवल भाषणों और नारों से नहीं, अपनी सरकार की योजनाओं के माध्यम से इस वर्ग के जीवन स्तर में बदलाव के जरिये किया है। इसके साथ ही राजनीतिक रूप से उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने का भी काम किया है। तमाम आलोचनाओं के बावजूद इस वर्ग का मोदी से विश्वास डिगता नहीं। वह मोदी को अपना आदमी मानता है। उसे लगता है कि पहली बार एक ऐसा व्यक्ति आया है जो हमारे बारे में सोचता है और हमारे लिए काम करता है।
वोट बैंक या कहें कि 'सोच बैंक'
देश में एक और वोट बैंक या कहें कि 'सोच बैंक' है, जिसके जीवन का लक्ष्य ही मोदी से नफरत करना बन गया है। इस मानसिकता के लोगों को मोदी से सहानुभूति रखने वाला हर व्यक्ति ऐसा तोता लगता है, जिसमें मोदी की जान बसती है। वह फौरन उसकी गर्दन मरोड़ने लगता है। इस वर्ग की धारणा है कि जो भी मोदी के करीब है, वह अच्छा तो हो ही नहीं सकता।
प्रदेश के उपचुनाव से भी राहत की खबर नहीं आई
न्यूज चैनलों पर इनके चेहरे के हाव-भाव से आप समझ सकते हैं कि खबर मोदी के लिए अच्छी है या बुरी? जब एक्जिट पोल के नतीजे आए तो इस वर्ग को लगा कि मोदी की गर्दन हाथ में आ गई। कोरोना महामारी, अर्थव्यवस्था, चीन, कश्मीर सहित तमाम मुद्दों पर मोदी के खिलाफ जनादेश बताने के विमर्श का गुब्बारा उड़ने को तैयार था, लेकिन बिहार के 'सांप्रदायिक' मतदाताओं ने इस गुब्बारे की हवा निकाल दी। कोढ़ में खाज यह कि बाकी किसी प्रदेश के उपचुनाव से भी इस वर्ग के लिए कोई राहत की खबर नहीं आई।
नामदार कामदार से बार-बार हार रहे
एक समय था जब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि विचारधारा पर आधारित पार्टियों के विस्तार की एक सीमा है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने यह साबित किया कि विचारधारा के साथ यदि लोक कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ लोगों और खासतौर से वंचित वर्ग तक पहुंचा दिया जाए तो विचारधारा पर आधारित पार्टियों के विस्तार का आकाश खुल जाता है। लोग बात तो सबकी सुनते हैं, लेकिन बातों को उनके काम से तौलते हैं। इसीलिए मोदी बाजी मार लेते हैं। अगर पार्टी का सर्वोच्च नेता लोगों का भरोसा जीत ले तो सोने में सुहागा। इसलिए नामदार कामदार से बार-बार हार रहे हैं।