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- अपराध बड़ा या आपराधिक...

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समाज, जिसमें व्यक्ति रहता है, मानवीय समाज कहलाता है। मानवीय समाज मानवीय नियम और कानूून समाज व्यवस्था को चलाने के लिए अलग-अलग समाज के लिए बनाए जाते हैं। बने हुए सामाजिक नियमों को तोडऩे को अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और मानवीय नियम विभिन्न समय और सभ्यताओं के अनुसार प्रतिपादित किए जाते हैं। जिस समय मानव समाज की रचना हुई अर्थात मनुष्य ने अपना समाजिक संगठन प्रारंभ किया, उसी समय से उसने अपने संगठन की रक्षा के लिए नैतिक, सामाजिक आदेश बनाए। उन आदेशों का पालन मनुष्य का ‘धर्म’ बतलाया गया। किंतु, जिस समय से मानव समाज बना है, उसी समय से उसके आदेशों के विरुद्ध काम करने वाले भी पैदा हो गए और जब तक मनुष्य प्रवृत्ति ही न बदल जाए, ऐसे व्यक्ति बराबर होते रहेंगे। युगों से अपराध की व्याख्या करने का प्रयास हो रहा है। अतएव के. सेन ने अपराध की सत्ता इतिहास काल के भी पूर्व से मानी है। अतएव इसकी व्याख्या कठिन है। पूर्वी तथा पश्चिमी देशों के प्रारंभिक विधानों के नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक नियमों का तोडऩा समान रूप से अपराध था। सारजेंट सटीफन ने लिखा है कि समुदाय का बहुमत जिसे सही बात समझे, उसके विपरीत काम करना अपराध है। ब्लेकस्टन कहते हैं कि समुचे समुदाय के प्रति कत्र्तव्य है तथा उसके जो अधिकार हैं उनकी अवज्ञा अपराध का निर्णय नगर की समूची जनता करती थी। आज के कानून में अपराध ‘सार्वजनिक हानि’ की वस्तु समझा जाता है।
दो सौ वर्ष पूर्व तक संसार के सभी देशों की यह निश्चित नीति थी कि जिसने समाज के आदेशों की अवज्ञा की है, उससे बदला लेना चाहिए। इसीलिए अपराधी को घोर यातना दी जाती थी। जेलों में उसके साथ पशु से भी बुरा व्यवहार होता था। यह भावना अब बदल गई है। आज समाज की निश्चित धारणा है कि अपराध शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार का रोग है, इसलिए अपराधी की चिकित्सा करनी चाहिए। उसे समाज में वापस करते समय शिष्ट, सभ्य, नैतिक नागरिक बनाकर वापस करना है। अतएव कारागार यातना के लिए नहीं, सुधार के लिए है। यह तो स्पष्ट हो गया कि अपराध यदि नैतिक तथा सामाजिक आदेशों की अवज्ञा का नाम है तो इस शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं बतलाया जा सकता। फ्रायड वर्ग के विद्वान प्रत्येक अपराध को कामवासना का परिणाम बतलाते हैं तथा हीली जैसे शास्त्री उसे सामाजिक वातावरण का परिणाम कहते हैं, किंतु ये दोनों मत मान्य नहीं हैं। एक देश में एक ही प्रकार का धर्म नहीं है। हर एक में एक ही प्रकार का सामाजिक संगठन भी नहीं है, रहन-सहन में भेद है, आचार-विचार में भेद है, ऐसी स्थिति में एक देश का अपराध दूसरे देश में सर्वथा उचित आचार बन सकता है। कहीं पर स्त्री को तलाक देना वैध बात है, कहीं पर सर्वथा वर्जित है। कहीं पर संयुक्त परिवार का जीवन उचित है, कहीं पर पारिवारिक जीवन का कोई कानूनी नियम नहीं है। सन 1946-47 में इंग्लैंड में चोरबाजारी करने वालों को कड़ा दंड मिलता था। फ्रांस में उसे एक ‘साधारण’ बात समझा जाता था। कई देश धार्मिक रूप से किया गया विवाह ही वैध मानते हंै। पूर्वी यूरोप तथा अन्य अनेक सभ्यवादी देशों में धार्मिक प्रथा से किए गए विवाह का कोई कानूनी महत्त्व ही नहीं होता। मनोविज्ञान अपराध को मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम मानता है।
जिस व्यक्ति का बाल्यकाल प्रेम और प्रोत्साहन के वातावरण में नहीं बीतता उसके मन में अनेक प्रकार की हीनता की मानसिक ग्रंथियां बन जाती हैं। इन ग्रंथियों में, उसकी मन में, उसकी बहुत सी मानसिक शक्ति संचित रहती है। डा. अलफ्रेड एडलर का कथन है कि जिस व्यक्ति के मन में हीनता की मानसिक ग्रंथियां रहती हैं वह अनिवार्य रूप से अनेक प्रकार के अपराध करता है। यह अपराध वह इसलिए करता है कि स्वयं को वह दूसरे लोगों से अधिक बलवान सिद्ध कर सके। हीनता की ग्रंथी जिस व्यक्ति के मन में रहती है, वह सदा भीतरी मानसिक असंतोष की स्थिति में रहता है। वह सब समय ऐसे कामों में अपने को लगाए रहता है जिससे सभी लोग उसकी ओर देखें और उसकी प्रशंसा करे। हीनता की मानसिक ग्रंथी मनुष्य को ऐसे कामों में लगाती है जिनके करने से मनुष्य को अनेक प्रकार की निंदा सुुननी पड़ती है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को सदा चर्चा का विषय बनाए रखना चाहता है। यदि उसके भले कामों के लिए चर्चा नहीं हुई तो बुरे कामों के लिए ही हो। उसकी मानसिक ग्रंथी उसे शांत मन नहीं रहने देती। वह उसे सदा विशेष काम करने के लिए प्रेरणा देती रहती है। यदि ऐसे व्यक्ति को दंड दिया जाए तो इससे उसका सुधार नहीं होता, अपितु इससे उसकी मानसिक ग्रंथी और भी जटिल हो जाती है। ऐसे अपराधी के उपचार के लिए मानसिक चिकित्सक की आवश्यकता होती है। क्रिमिनोलॉजी मूल रूप से एक सामाजिक दृष्टिकोण से अपराध का अध्ययन है और इस अध्ययन का फोकस यह निर्धारित करना है कि कोई व्यक्ति अपराध करता है या आपराधिक तरीके से कार्य करता है।
आधुनिक मनोविज्ञान ने हमें बताया है कि समाज में अपराध को कम करने के लिए दंडविधान को कड़ा करना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए समाज में सुशिक्षा की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य की कोई प्रवृत्ति बचपन से ही प्रबल हो जाती है तो आगे चलकार वह विशेष प्रकार के कार्यों में प्रकाशित होती है। ये कार्य समाज के लिए हितकर होते हैं अथवा समाजविरोधी होते हैं। जिस बालक को बड़े लाड-प्यार से रखा जाता है और उसे सभी प्रकार के कामों को करने के लिए छूट दे दी जाती है, उसमें दूसरों के सुख के लिए अपने सुख को त्यागने की क्षमता नहीं आती। ऐसे व्यक्ति की सामाजिक भावनाएं अविकसित रह जाती हैं। जीवन सुस्वत्व का निर्माण नहीं होता। इसके कारण वह न तो सामाजिक दृष्टि से भले-बुरे का विचार कर सकता है और न बुरे कामों से स्वयं को रोकने की क्षमता प्राप्त कर पाता है। बालक के माता-पिता और आसपास का वातावारण तथा पाठशालाएं इसमें महत्त्व का काम करती हैं। उचित शिक्षा का एक उद्देश्य यही है कि बालक के भीतर संयम की क्षमता आ जाए। जिस व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की स्थिति जितनी अधिक रहती है, वह अपराध उतना ही कम करता है।
कर्मपाल
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal

Rani Sahu
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