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सम्पादकीय
इमरान-काल की महंगाई, बेरोजगारी, अराजकता को काबू करना बड़ी चुनौती
Gulabi Jagat
8 April 2022 7:07 AM GMT
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आखिर इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव से बच नहीं सके
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
आखिर इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव से बच नहीं सके। पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने वोटिंग का आदेश दे ही दिया। दक्षिण एशिया के लिए आज यह जरूरी है कि पाकिस्तान अस्थिरता के नए दौर में प्रवेश न कर जाए। इमरान और उनके मंत्रियों का आरोप था कि उनके पास वह कूटनीतिक दस्तावेज है, जिससे सिद्ध होता है कि अमेरिका इमरान सरकार को हटाने की साजिश कर रहा था। उस साजिश में सारे विरोधी दल शामिल हैं।
यह देशद्रोह है। इसी आधार पर विरोधियों के अविश्वास प्रस्ताव को डिप्टी स्पीकर ने रद्द कर दिया था। अदालत इस कूटनीतिक दस्तावेज की उपेक्षा नहीं कर सकती। यह दस्तावेज विवाद का केंद्रीय विषय बन गया है। वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी राजदूत और अमेरिकी विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अफसर के बीच हुई बातचीत का विवरण इस दस्तावेज में है। विरोधियों का मत है कि यह दस्तावेज फर्जी है। मनगढ़ंत है। और यदि यह दो अफसरों के बीच हुई वार्ता का विवरण है तो भी इसे अमेरिकी सरकार का नीति-वक्तव्य कैसे माना जा सकता है?
इसमें शक नहीं कि इमरान की मास्को-यात्रा और यूक्रेन पर तटस्थता अमेरिका को खल गई है और कोई भी अमेरिकी अफसर इस पर इमरान सरकार से अपनी नाखुशी जाहिर कर सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अमेरिका इमरान सरकार को हटाने की साजिश कर रहा है। इस साजिश का एक भी ठोस प्रमाण इमरान और उनके मंत्री पेश नहीं कर सके हैं।
जहां तक विरोधी दलों का इस अमेरिकी साजिश में हिस्सा लेने का सवाल है, यह इल्जाम भी निराधार लगता है, क्योंकि विरोधी दल तो बहुत पहले से मिलकर इमरान सरकार के खिलाफ अभियान चलाए हुए हैं। यदि विरोधी दल अमेरिका के अंध-समर्थक होते तो वे इमरान की रूस-यात्रा पर हंगामा खड़ा कर देते। यह संभव है कि पाकिस्तान के विरोधी दलों ने फौज के नजदीक आने की कोशिश की हो।
हालांकि दोनों प्रमुख विरोधी दलों-मुस्लिम लीग (नवाज) और पीपीपी- के सर्वोच्च नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने अतीत में दंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जुल्फिकार अली भुट्टो को उसने फांसी पर चढ़ाया और नवाज शरीफ को निर्वासित किया लेकिन पाकिस्तान के सेनापति कमर बाजवा और इमरान के बीच जो सांठगांठ चली आ रही थी, वह ढीली पड़ती जा रही है। फौज के इस बदले हुए रवैए को देखते हुए ही ये विरोधी दल, जो एक-दूसरे के जानी दुश्मन रहे हैं, इमरान के खिलाफ एकजुट हो गए।
प्रधानमंत्री के तौर पर शुरू के कुछ माह इमरान फौज की कठपुतली की तरह नाचते रहे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी बड़ी लकीर खींचनी शुरू कर दी। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने कहा था कि भारत यदि दोस्ती का एक कदम बढ़ाएगा तो वे दो कदम बढ़ाएंगे लेकिन जब जनरल बाजवा ने 2021 में भारत के साथ युद्ध-विराम समझौता किया और आपसी व्यापार बढ़ाने की बात की तो इमरान ने कश्मीर का मामला उठा दिया। इमरान अपनी नेतागिरी का जलवा चमकाने में मशगूल हो गए।
तुर्की और मलेशिया के साथ वे नया इस्लामिक संगठन खड़ा करने में जुट गए ताकि सउदी अरब और यूएई को पीछे छोड़ सकें। उन्होंने फ्रांसीसी राजदूत के विरुद्ध चलाए गए ईशद्रोह आंदोलन का भी जमकर साथ दिया। फौज के साथ उनकी खटपट 2019 में तब शुरू हो गई, जब उन्होंने जनरल बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने में आनाकानी की।
उन्होंने बाजवा का कार्यकाल 2022 तक तो बढ़ा दिया लेकिन वे चाहते थे कि आईएसआई के मुखिया जनरल फैज हमीद को बाजवा की जगह ले आया जाए। हमीद को कोर कमांडर बनाकर पेशावर भेज दिया गया ताकि वे अगले सेनापति बन सकें। लेकिन आईएसआई के मुखिया के तौर पर इमरान ने जनरल बाजवा के चहेते जनरल नदीम अंजुम को नियुक्त करने में काफी हीला-हवाला कर दिया। इस अंदरूनी खींचतान के बाहर आते ही सारे विरोधी दलों में जान पड़ गई।
इमरान ने जब 2018 में चुनाव जीता तो माना जा रहा था कि वे जनता द्वारा चुने नहीं गए, बल्कि फौज द्वारा लादे गए हैं। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी बड़ी लकीर खींचनी शुरू कर दी। उन्होंने पाकिस्तान को रियासते-मदीना बनाने की भी कसम खा ली।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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