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जब सर्वोच्च अदालत अपने फैसले में जॉर्ज ऑरवेल की रचना 1984 का ज़िक्र कर दे तो यह बात लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक समझा जाना चाहिए
रवीश कुमार जब सर्वोच्च अदालत अपने फैसले में जॉर्ज ऑरवेल की रचना 1984 का ज़िक्र कर दे तो यह बात लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक समझा जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जॉर्ज ऑरवेल का नाम होना ही उन तमाम आशंकाओं को वास्तविकता के करीब ले आता है, जिससे सरकार अनजान बने रहने का नाटक करती है. ऑरवेल का ज़िक्र होना आपातकाल से आगे फासवीदा की आहट का एक ऐसा संकेत है जिसे समझने की ज़िम्मेदारी अदालत ने आम जनता की समझ पर नहीं छोड़ी है बल्कि अपनी तरफ से कह दिया है कि आज का भारत कहां खड़ा है और इस भारत में आपके पीछे कौन दिन रात खड़ा है. बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू. यह तो सुना होगा आपने. इसी 1984 से आया है जिसके रचनाकार का नाम जॉर्ज ऑरवेल है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जॉर्ज ऑरवेल का नाम एक बार आया है, उनकी सिर्फ एक लाइन है लेकिन जॉर्ज ऑरवेल की हर पंक्ति उस तंत्र की सोच का हिस्सा है जिसे ऑरवेलियन स्टेट कहते हैं. जिसमें स्टेट साये की तरह नागरिक पर नज़र रखता है. एक रहस्य की तरह उसके बेडरूम तक में हर पल रहता है, जिस रहस्य के डर से नागरिक करवटें तक नहीं बदलता, ग़ुलाम की तरह सहमा रहता है. जिस तरह से आज के भारत में सरकार से सवाल पूछने को देशद्रोह से जोड़ दिया गया है, 1984 में ऑरवेल ने ऐसे ही हर शब्द का नया मतलब लिखा है. उपन्यास के चौथे पन्ने पर ही बता दिया है कि ऐसे स्टेट के लिए युद्ध शांति है, स्वतंत्रता ग़ुलामी है और अज्ञानता शक्ति है. वही अज्ञानता जो व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के अंकिलों और हिन्दी प्रदेश के नौजवान ख़ुद को ताकतवर समझने लग जाते हैं. हमलावर बन जाते हैं.
मोतिहारी में जन्मे जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 1984 की पंक्तियों की चर्चा तभी होती है, जहां फासीवाद और उसकी आहट होती है. पेगासस मामले में जांच कमेटी बनाए जाने का फैसला लिखते समय चीफ जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली के ज़हन में ऑरवेल की यह पंक्ति यूं ही नहीं आई होगी. इस फैसले में जॉर्ज ऑरवेल की एक ही पंक्ति है लेकिन उस एक पंक्ति को न तो आप पूरे उपन्यास की अवधारणा से अलग कर सकते और न ही इस फैसले को उस उपन्यास के बिना समझ सकते हैं. फैसले की पहली लाइन ही शुरू होती है ऑरवेल की इस पंक्ति से
"यदि आप कोई राज़ रखना चाहते हैं, तो आपको इसे अपने आप से भी छिपाना ही होगा."
इसके बाद अदालत कहती है कि याचिकाओं में ऑरवेलियन चिन्ताओं को उठाया गया है कि कथित रूप से आधुनिक तकनीक के इस्तमाल से यह सुनने की कोशिश हुई कि आप क्या सुन रहे हैं, देखा गया कि आप क्या देख रहे हैं और पता लगाया गया कि आप क्या कर रहे हैं.
ऑरवेलियन चिन्ताओं को समझने के लिए आपको उनकी रचना 1984 पढ़नी ही पड़ेगी. अंग्रेज़ी के अलावा ये हिन्दी और पंजाबी में भी है. क्या हिन्दी के अखबार इस फैसले को विस्तार और प्रमुखता से छापेंगे ताकि आम जनता ऑरवेलियन ख़तरों को समझ सके, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने लिखा है कि "किसी व्यक्ति को यह जानकारी हो कि कोई जासूसी कर रहा है, उसका असर नागरिक होने के अधिकारों के इस्तमाल पर पड़ेगा ही. ऐसे में वह ख़ुद को सेंसर करने लगेगा. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इसका डरावना असर होगा. यह प्रेस पर हमला है इससे सही और भरोसेमंद जानकारी देने में प्रेस की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा."
अब वायर की यह रिपोर्ट इतिहास का हिस्सा है जिसे रविशंकर प्रसाद ने अनाप-शनाप बता दिया था. किसी पत्रकार के फोन की जासूसी का मतलब है कि आप 114 रुपये पेट्रोल भराएंगे, ग़रीब होते जाएंगे और हमसे भी तकलीफ नहीं कह पाएंगे. पूछने पर यही कहेंगे कि सब चंगा सी. इसीलिए कोर्ट ने कहा है कि पत्रकारों के सूत्रों की सुरक्षा बहुत ज़रूरी है और यह मामला केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि आम लोगों की निजता के अधिकार का भी है.
जुलाई महीने में मानसून सत्र शुरू होने वाला था, वायर में पेगासस जासूसी कांड को लेकर खबर छप गई जिसके लिए दुनिया के कई देशों के 80 पत्रकार कई दिनों से मेहनत कर रहे थे. कुछ फोन के जासूसी होने की पुष्टि हुई और संभावित लोगों की जासूसी की सूची मिली थी जिसमें आज के आई टी मंत्री अश्विनी वैष्णव के भी नाम हैं. इसके बाद भी आईटी मंत्री ने संसद में कह दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है. विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया था तो विपक्ष पर आरोप लगा कि वह सदन चलाने नहीं देना चाहता. जबकि विपक्षी नेताओं के फोन की जासूसी भी सामने आई थी.
पेगासास पर्दाफाश के सामने आने के दो दिन के भीतर फ्रांस में जांच शुरू हो गई. भारत सरकार ने जांच क्यों नहीं की. केवल विपक्ष की साज़िश बताती रही. गोदी मीडिया और हिन्दी अखबारों ने इसका कवरेज़ ही डिटेल में नहीं किया ताकि जनता को कुछ समझ ही न आए. याचिकाकर्ता जगदीप चोकर ने कहा है कि क्या सरकार ने पेगासस स्पाइवेयर ख़रीदा था, अगर सरकार ने नहीं ख़रीदा था तब तो और भी गंभीर मामला बनता है. इसके होने की जानकारी सरकार में किस किस को थी. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उन पत्रकारों के फोन की जासूसी नहीं कर सकते जिनकी रिपोर्ट और सवाल से सरकार को दिक्कत होती है. तब तो ये लोकतंत्र इंगलिस में फिनिशे हो जाएगा. कोर्ट ने सरकार की तमाम दलीलों को ठुकरा दिया. साफ कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किसी की निजता का हनन नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि "मई 2019 में व्हाट्सएप कंपनी ने पाया था कि उसके यूज़र के फोन में पेगासस जासूसी साफ्टवेयर है. उस दौरान ख़बर आई थी कि कुछ भारतीय भी इससे प्रभावित हैं. इसका ज़िक्र 20 नवंबर को संसद में इलेक्ट्रानिक और सूचना प्रोद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी संसद में किया था."
व्हाट्सएप कंपनी ही सबको फोन कर बता रही थी कि आपके फोन की जासूसी हुई है क्या तब सरकार को जांच नहीं करनी थी. जब एक्सप्रेस की रिपोर्ट के लिए पत्रकार सीमा चिश्ती ने भारत सरकार के गृह सचिव और टेलिकाम सचिव से जवाब मांगा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. फैसले का शब्दश: अनुवाद मुश्किल है लेकिन सार रूप में कोर्ट ने कहा है कि अदालत ने जब याचिकाकर्ताओं के सामने कई आपत्तियां रखीं, तब कुछ और याचिकाएं आईं जिनमें कई ऐसे तथ्य सामने लाए गए जिन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता. जैसे प्रतिष्ठित सिटिज़न लैब की रिपोर्ट, विशेषज्ञों के हलफनामे, दुनिया के भर के समाचार संस्थानों में छपी ख़बरें, विदेशी सरकारों और कानूनी संस्थाओं की प्रतिक्रियाओं ने अदालत को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि यह मामला न्यायिक अधिकार क्षेत्र के दायरे में आता है. बेशक सॉलिसिटर जनरल ने कहा है कि ये सारी रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, किसी ख़ास मकसद से छपी है लेकिन उन्होंने मौखिक तौर पर ही ऐसा कहा. ऐसे मौखिक आरोपों से मामले को खारिज नहीं किया जा सकता है. सुनिए तब रविशंकर प्रसाद ने किस दंभ से कहा था कि ये साज़िश है. "भारत की राजनीति में कुछ लोग सुपारी एजेंट हैं क्या? क्या कोई अंतरराष्ट्रीय साजिश होती है तो उसके एजेंट बन जाते हैं?"
अंतरराष्ट्रीय साज़िश की यह बोगस थ्योरी कोर्ट में पिट चुकी है. बल्कि कोर्ट ने कहा है कि भारत के नागरिकों की निगरानी करने में विदेशी संस्थाएं हो सकती हैं तो क्या सरकार को ही जांच नहीं करनी चाहिए थी. अदालत के अनुसार सरकार ने अपना स्टैंड साफ-साफ नहीं रखा. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार को हर बार फ्री पास नहीं मिल सकता है.
अगर कोर्ट कहे कि किसी सरकारी एजेंसी या किसी और एजेंसी पर भरोसा करने के बजाय हमने स्वतंत्र रूप से एक कमेटी बनाई है तो सरकार की क्या विश्वसनीयता रह जाती है. अदालत को कहना पड़ा कि उसे मूकदर्शक बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. क्या यह टिप्पणी शर्मनाक नहीं है. कोर्ट ने कहा कि इसलिए जांच ज़रूरी है "ताकि पता लगे कि इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के मौलिक अधिकार पर क्या असर पड़ा है, किस तरह से नागिरक प्रभावित हुए हैं. क्या इस देश के नागरिकों की निगरानी में कोई विदेशी सरकार, एजेंसी, प्राइवेट संस्था शामिल है? यह भी आरोप है कि केंद्र या राज्य सरकारें नगरिकों के अधिकारों के उल्लंघन में शामिल रही हैं. इन सब कारणों से केंद्र सरकार की याचिका को हम खारिज करते हैं और एक एक्सपर्ट कमेटी बनाते हैं."
इस कमेटी की कोई समय सीमा तय नहीं की गई है. आठ हफ्ते बाद सुनवाई होगी. इस कमेटी के छह सदस्य होंगे जिसके अध्यक्ष होंगे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आर वी रविंद्रन. पूर्व आईपीएस आलोक जोशी, International Electro-Technical Commission के अध्यक्ष डॉ संदीप ओबराय और इसके अलावा तीन अन्य तकनीकि विशेषज्ञ होंगे. जिनके नाम हैं राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और डीन डॉ नवीन कुमार चौधरी, केरल के अमृता विश्व विद्यापीठम के प्रोफेरस डॉ प्रबहारन पी और IIT बांबे के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अश्विनी अनिल गुमस्ते.
इस मामले में 9 याचिकाएं दायर हुई थीं. एडिटर्स गिल्ड के साथ साथ पत्रकार एन राम, प्रेम शंकर झा, प्रांजय गुहा ठाकुर्ता, शशि कुमार, रुपेश कुमार सिंह, इप्शिता शताक्षी, एस एन एम आब्दी भी याचिकाकर्ता बने. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म के जगदीप एस चोकर के अलावा नरेद्र मिश्रा, सुप्रीम कोर्ट के वकील एम एल शर्मा, पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, सीपीएम सांसद जॉन ब्रितास और के एम गोविंदाचार्य ने भी याचिका दायर की.
इस ऐतिहासिक मुकदमे के लिए कुछ वकीलों के ऐतिहासिक प्रयास का उल्लेख भी ज़रूरी है. कपिल सिब्बल, श्याम दीवान, अरविन्द दातार, चंदर उदय सिंह, राकेश द्विवेदी, मनीष तिवारी और मीनाक्षी अरोड़ा ने शानदार काम किया है. आम लोगों के फोन में साफ्टवेयर भेज कर बातचीत रिकार्ड करने का मामला नहीं है, इस साफ्टवेयर से आपके फोन में फर्जी सबूत डाल कर आपको हमेशा के लिए जेल में बंद किया जा सकता है. आपके फोन का कैमरा ऑन किया जा सकता है और देखा जा सकता है कि आप कहां क्या कर रहे हैं. सरल हिन्दी में ऐसे सोचिए, आप नहा रहे हों और सरकार देख रही हो. आप कपड़े बदल रहे हों और सरकार देख रही हो तो क्या आप कपड़े बदलेंगे, नहाएंगे? चाहेंगे कि सरकार देखे. इसे कहते हैं निजता का उल्लंघन. ब्रीच ऑफ प्राइवेसी. 1984 के एक हिस्सा पढ़ रहा हूं आपको आज का भारत दिखाई देगा.
"पार्टी के अलावा किसी से वफादारी नहीं होगी. बिग ब्रदर के अलावा किसी के लिए प्यार नहीं होगा. दुश्मन के ऊपर विजय पाने के बाद जो हंसी होती है, उसके अलावा कोई हंसी नहीं होगी. कला, साहित्य, विज्ञान - कुछ नहीं होगा. हम सर्वशक्तिमान हैं, हमें तो विज्ञान की ज़रूरत नहीं होगी. मगर मत भूलो - सत्ता का नशा हमेशा रहेगा बढ़ता रहेगा और महीन होता चला जाएगा. एक ऐसे विरोधी को कुचल देने का अहसास बना रहेगा जो असहाय और मजबूर है. अगर तुम्हें भविष्य की छवि देखनी है तो एक ऐसे जूते की कल्पना करो जो हमेशा के लिए एक इंसानी चहरे पर ठप्पे की तरह मारे जा रहा हो."
Rani Sahu
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