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उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव के संदर्भ में, कांग्रेस पार्टी की नेता प्रियंका गांधी ने एलान किया है
सुभाषिनी अली उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव के संदर्भ में, कांग्रेस पार्टी की नेता प्रियंका गांधी ने एलान किया है कि पार्टी 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को टिकट देगी। उन्होंने यह भी कहा कि उनका बस चलता, तो वह 50 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारतीं। कई लोगों ने कांग्रेस पार्टी के इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। हालांकि, यह बात सही नहीं है, फिर भी यह घोषणा इस मामले में स्वागत-योग्य है कि इसने महिलाओं के चुनाव लड़ने के अधिकार को लेकर होने वाली चर्चा को एक लंबे अंतराल के बाद फिर से शुरू कर दिया है।
किसी भी प्रजातंत्र को प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें समाज के तमाम हिस्सों को प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त हो। यही वजह है कि हमारे संविधान ने दलितों और आदिवासियों के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी संख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण को अनिवार्य बनाया। अगर ऐसा न किया गया होता, तो सामाजिक विषमता के चलते इन हिस्सों के लोगों को विधायी सदनों में पहुंचने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे समाज के कई ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें अब भी प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है। हर चुनाव में यह देखने को मिलता है कि मतदान में खड़े होने और जीतने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों की संख्या घटती जा रही है; अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और आम मजदूरों व किसान परिवारों के सदस्यों की संख्या बहुत कम या न के बराबर हो गई है। यही नहीं, देश की आबादी का आधा हिस्सा, यानी महिलाएं, लोकसभा और विधानसभाओं में बहुत हद तक अदृश्य हैं। इसका साफ मतलब है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था अनवरत सिकुड़ रही है और उस पर कुछ विशेष तबके के पुरुषों का वर्चस्व बढ़ रहा है। यह हमारी जनवादी प्रणाली के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। इससे पार पाना बहुत ही जरूरी है।
इसी संदर्भ में महिलाओं के आरक्षण के सवाल को देखा जाना चाहिए। किसी भी विधानसभा और लोकसभा में चुनी हुई महिलाओं की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रही है। इसका यही अर्थ है कि महिलाओं को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार से, प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से, वंचित रखा जा रहा है। साल 1996 में, यानी 25 साल पहले, विधानसभाओं और लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया था। लेकिन तब से लेकर आज तक उसे पारित नहीं किया जा सका है। इसके पीछे पुरुष प्रधानता की सोच के अलावा कोई दूसरा कारण नहीं है, और वामपंथी दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों पर यह सोच किस हद तक हावी है, इसका स्पष्ट एहसास तब होता है, जब महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा के पटल पर रखा जाता है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को उतारने की बात कहने वाली प्रियंका गांधी की कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, दोनों के नेतृत्व वाली सरकारों (क्रमश: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने इस विधेयक को पारित करने से परहेज किया है। निश्चित तौर पर इससे हमने अपने प्रजातंत्र को मजबूत करने का मौका अनेक बार गंवाया है।
फिलहाल, हमारे देश में पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हैं। इसने समाज को काफी फायदा पहुंचाया है। इससे कई तरह के बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। एक तो, हर तबके की महिलाओं ने बड़ी संख्या में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पाया है। जहां भी उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और निष्ठा का जबरदस्त परिचय दिया है। यही कारण है कि केरल जैसे प्रांत में उनकी संख्या 42 प्रतिशत तक पहुंच गई, क्योंकि सीट के अनारक्षित हो जाने के बाद भी अच्छा काम करने वाली महिला ने चुनाव जीतकर दिखा दिया है। अब तो कई राज्यों ने इन सीटों को 50 फीसदी तक बढ़ा दिया है, इससे निचले स्तर पर महिलाओं को बल मिला है।
हालांकि, यहां यह याद रखना भी आवश्यक है कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा है, जिसे महिलाओं का इस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करना या आगे बढ़ना रास नहीं आया है। ऐसे लोग लगातार इन चुनी हुई महिलाओं की आलोचना करते हैं। वे वक्त-वक्त पर कहते रहते हैं कि महिलाएं मोहरा होती हैं, वे निक्कमी होती हैं, वे भ्रष्ट होती हैं इत्यादि। ऐसा लगता है कि इन महिलाओं ने ही अपने आप को मोहरा बना दिया है। इसमें पुरुष प्रधानता और प्रशासनिक उदासीनता का कोई हाथ नहीं है और चुने हुए पुरुष तो ईमानदारी व कार्य-निष्ठा के प्रतीक हैं!
जहां एक तरफ, महिला आरक्षण को बढ़ाया जा रहा है, वहीं इसको सीमित करने की कोशिशें भी खूब चल रही हैं। हरियाणा जैसे राज्य में तो महिला उम्मीदवारों के सामने 10वीं पास होने की शर्त रखी जा रही है, मानो उनके कम पढ़े-लिखे होने की मूल वजह सरकारी नीतियां नहीं, बल्कि उनकी अपनी कमजोरी है। ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है। साफ है, हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण बनाने और उसे विस्तृत करने वाली ताकतों के बीच लगातार खींचतान चल रही है। आजादी के इस 75वें साल में, जहां चौतरफा जश्न मनाया जा रहा है, इस बात पर चिंता जताने की भी सख्त जरूरत है कि हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण और निहित स्वार्थों के अधीन बनाने की कोशिशें आज के दौर में ज्यादा प्रभावी दिख रही हैं। इसकी दिशा को पलटना जनवादी ताकतों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करने वालों को महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल को भी अपने संघर्ष का अहम हिस्सा बनाना होगा।
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