- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आधुनिक बंगाल के...
Written by जनसत्ता: प्रतिभा के साथ-साथ व्यक्ति में अपने लक्ष्य के प्रति लगन हो, तो वह कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ता चला जाता है। बिधान चंद्र राय का जीवन इसकी मिसाल है। उनका प्रारंभिक जीवन अभावों में ही बीता। बीए परीक्षा उत्तीर्ण कर वे सन 1901 में कलकत्ता चले गए। वहां से उन्होंने एमडी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठाना पड़ता था। मेधावी इतने थे कि एलएमपी के बाद एमडी की परीक्षा दो वर्षों में ही उत्तीर्ण कर कीर्तिमान स्थापित किया। फिर उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए।
वहां से लौट कर उन्होंने सियालदह में अपना निजी चिकित्सालय खोला और सरकारी नौकरी भी कर ली। मगर अपने इस सीमित जीवनक्रम से वे संतुष्ट नहीं थे। सन 1923 में वे सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे दिग्गज राजनेता और तत्कालीन मंत्री के विरुद्ध बंगाल विधान परिषद का चुनाव लड़ा और स्वराज्य पार्टी की सहायता से उन्हें पराजित करने में सफल हुए। यहीं से इनका राजनीति में प्रवेश हुआ।
डाक्टर राय, देशबंधु चित्तरंजन दास के प्रमुख सहायक बने और कम समय में ही उन्होंने बंगाल की राजनीति में प्रमुख स्थान बना लिया। सन 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की स्वागत समिति के वे महामंत्री थे। डा. राय राजनीति में उग्र राष्ट्रवादी नहीं, बल्कि मध्यमार्गी थे, लेकिन सुभाषचंद्र बोस के समर्थक थे।
वे विधानसभाओं के माध्यम से राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष करने में विश्वास करते थे। महानिर्वाचन में कांग्रेस देश के सात प्रदेशों में शासनारूढ़ हुई। यह उनके महामंत्रित्व की महान सफलता थी। वे इतने कुशल और अनुभवी चिकित्सक थे कि रोगी का चेहरा देख कर ही रोग का निदान और उपचार बता देते थे। अपनी मौलिक योग्यता के कारण वे सन 1909 में 'रायल सोसायटी आफ मेडिसिन', सन 1925 में 'रायल सोसायटी आफ ट्रापिकल मेडिसिन' तथा 1940 में 'अमेरिकन सोसायटी आफ चेस्ट फिजीशियन' के फेलो चुने गए। डा. राय ने सन 1923 में 'यादवपुर राजयक्ष्मा अस्पताल' की स्थापना की तथा 'चित्तरंजन सेवासदन' की स्थापना में भी उनका प्रमुख हाथ था।
कारमाइकेल मेडिकल कालेज को वर्तमान विकसित स्वरूप प्रदान करने का श्रेय डा. राय को ही है। सन 1939 से 45 तक 'आल इंडिया मेडिकल काउंसिल' के अध्यक्ष रहे। इसके अलावा वे अनेक कई राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं के सदस्य रहे। चिकित्सक के रूप में उन्होंने पर्याप्त यश और धन अर्जित किया और लोकहित के कार्यों में उदारतापूर्वक दान दिया। बंगाल के अकाल के समय उनके द्वारा की गई जनता की सेवाएं अविस्मरणीय हैं।
डाक्टर बिधानचंद्र राय वर्षों तक कलकत्ता कारपोरेशन के सदस्य रहे तथा अपनी कार्यकुशलता के कारण दो बार मेयर चुने गए। वे सन 1942 से 1944 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे तथा विश्वविद्यालयों की समस्याओं के समाधान में सदैव सक्रिय योग देते रहे।
15 अगस्त, 1947 को उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया। प्रदेश की राजनीति में ही रहना अधिक उपयुक्त समझा। वे बंगाल के स्वास्थ्यमंत्री नियुक्त हुए। सन 1948 में डा. प्रफुल्लचंद्र घोष के त्यागपत्र देने पर प्रदेश के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए और जीवन पर्यंत इस पद पर बने रहे। बंगाल के औद्योगिक विकास के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे।
दामोदर घाटी निगम और इस्पात नगरी दुर्गापुर बंगाल को डाक्टर राय की महती देन हैं। रोग की नाड़ी की भांति ही उन्हें देश की नाड़ी का भी ज्ञान था। देश के औद्योगिक विकास, चिकित्साशास्त्र में महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कार्य तथा शिक्षा की उन्नति में उनका प्रमुख योगदान था। संघर्षमय जीवन, उनकी राजनीति, चिकित्सा के क्षेत्र में महान उपलब्धियों और देश को प्रदत्त महती सेवाओं के लिए उन्हें सन 1961 में राष्ट्र के सर्वोत्तम अलंकरण 'भारतरत्न' से विभूषित किया गया।