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अमेरिका के नए राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडन ने इसलिए कांटों का ताज पहना है, क्योंकि उनके सामने जितनी गंभीर चुनौतियां घरेलू मोर्चे पर हैं, उतनी ही अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भी। उन्हें एक ओर जहां बुरी तरह विभाजित अमेरिकी समाज को एकजुट करना है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को फिर से बहाल भी करना है। ये दोनों ही काम आसान नहीं। भले ही ट्रंप पराजित हो गए हों, लेकिन उनकी सोच को सही मानने वालों की कमी नहीं। इसीलिए यह कहा जा रहा है कि ट्रंप की पराजय का यह मतलब नहीं कि वह जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका भी पराभव हो गया है। जिस तरह इस पर निगाहें रहेंगी कि बाइडन अमेरिकी समाज की बीच की खाई को पाटने क्या कदम उठाते हैं, उसी तरह इस पर भी कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में उनकी पहल से विश्व व्यवस्था क्या आकार लेती है? यह तो तय है कि वह जलवायु परिवर्तन पर ट्रंप से भिन्न रवैया अपनाएंगे और विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत अन्य वैश्विक संस्थाओं से अमेरिका के अलगाव को खत्म करेंगे, लेकिन इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि वह संयुक्त राष्ट्र में सुधार कर उसे प्रभावी बनाने की कोई ठोस पहल कर सकेंगे या नहीं? इस सवाल के जवाब में यह भी देखना होगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का वह किस हद तक समर्थन करते हैं?