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बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में हिंदू अध्ययन केंद्र खुला तो कई लोगों की भौहें तन गईं
शंभूनाथ शुक्ल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में हिंदू अध्ययन केंद्र खुला तो कई लोगों की भौहें तन गईं. उन्हें लगता है, कि इस बहाने सरकार अपना हिंदू एजेंडा (Hindu Agenda) लाद रही है. मालूम हो कि 19 जानवरी से वहां पीजी स्तर पर हिंदू अध्ययन (Hindu Studies) की पढ़ाई शुरू हो गई है. अभी इस केंद्र में 46 छात्र हैं, इसमें चार विदेशी हैं. इसमें हिंदू धर्म को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पढ़ाया जाएगा.
यह पहल ठीक है, इस तरह धर्म को आज के समय के अनुकूल बनाने की शानदार पहल होगी. अभी पिछले दिनों एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर की पुस्तक आई है, जिसमें उसने लिखा है कि आधुनिक लोग बाइबिल नहीं पढ़ते, इस वजह से वे अपने धर्म की परंपरा नहीं समझते. उसके अनुसार डॉर्विन और आइंस्टीन ने बाइबिल को पढ़ा था और तब वे अपने निष्कर्ष पर पहुंचे थे.
धर्म इतिहास को भी जोड़ता है
इसी तरह हिंदू समाज भी अपने इतिहास से आंख नहीं चुरा सकता. साथ में यह भी ध्यान रखना होगा कि भारतीय इतिहास को लिखते समय भारतीय पुराणों और उपनिषदों की अनदेखी नहीं की जाए. यह कह कर कि वेद, उपनिषद, पुराण और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य सिर्फ कपोल कल्पनाएं हैं. हम अपनी अज्ञानता ही प्रदर्शित कर रहे होते हैं. ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी साहित्य भले वह धार्मिक हो अथवा सामाजिक अपने समाज की अनदेखी नहीं कर सकता. एक कहावत है कि 'साहित्य समाज का दर्पण होता है.'
अर्थात जैसा समाज होगा वैसा ही उसका साहित्य तो जाहिर है साहित्य भी वैसा ही रचा जाएगा जिस तरह का समाज उस समय रहा होगा. लेकिन जहां पश्चिमी इतिहास लेखकों ने ग्रीक और रोमन पुराणों को इतिहास माना है वहीं भारत में इनकी उपेक्षा कर दी गई है. जाहिर है यहां के इतिहास लेखकों ने सिर्फ सत्ता को ही इतिहास समझा है. यहां जो परस्पर मारकाट है उसकी वजह यही है कि भारतीय इतिहास को समझने की कोशिश कभी नहीं की गई है. जबकि भारत के पुराण और प्राचीन गाथाएं यहां की समरसता का बखान करती हैं.
इसीलिए हम मनुष्य हैं
कई दफे लगता है कि धर्म नहीं होता तो शायद यह मानव जीवन पशु से भी गया गुजरा होता क्योंकि मनुष्य के पास उसका दिमाग है और वह पछताता है, वह उल्लसित होता है तथा अनमना हो जाता है. मानव की इन संवेदनाओं को भरने के लिए धर्म उसको एक नियति प्रदान करता है और मनुष्य भले पछताए या प्रसन्न हो लेकिन धर्म अपनी वर्जनाओं से उसे सामान्य गति देता है. वह बताता है कि जीवन में रंज है तो खुशी भी उतनी ही है और अगर अपार खुशी है तो ऐसा सदा नहीं चलने वाला क्योंकि "हर दिन जात न एक समाना!" अर्थात सारे दिन समान नहीं होते.
जब किसी की 'चढ़दी कला' हो तो वह आसमान में उड़ने लगता है और जैसे ही वह कला उतरती है दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. इसकी वजह यह है कि जब कला ऊपर थी तब आप किसी की परवाह नहीं कर रहे थे और आज जब वह कला उतार पर है तो आपको वही सब लोग याद आते हैं.
अब सोचिए कि अगर धर्म नहीं होता तो कौन मानव को अवलंबन देता. धर्म ने मनुष्य को एक नियति और जीवन जीने की कला प्रदान की है. ताकि वह सबसे एक जैसा व्यवहार कर सके. आधुनिक भारतीय धर्मों में सबसे नवीन धर्म है सिख. जिसमें वेदांत का सार है और और नए युग के अनुरूप उसे मानने वाले समाज को एक समान जीवन जीने की वह सीख देता है. उसके प्रणेता गुरू नानक ने शुरू में कह दिया था-
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत दे सब बंदे!
एक नूर तो सब जग उपज्या कोन भले कोन मंदे!!"
(अर्थात यह सारा चराचर जगत एक ही प्रकाश पुंज से निकला है और सारे धर्म भी. अत: यहां किसे सर्वोत्तम कहा जाए और किसे नीचा? वह प्रकाश पुंज खुद साक्षात परामात्मा ने पैदा किया.)
सुख-दुख विधाता के हाथ
बस सारे झगड़े-टंटे छोड़कर और रास्तों का मोह त्याग कर मंजिल तक पहुंचने का मामला है. आदमी के जीवन में दुख हैं और अगर वह इन दुखों को विधाता का कर्म मानकर चले तो भला काहे का दुख! अयोध्या लौटने पर भरत को जब पता चलता है कि उनकी मां कैकेयी के कहने पर उनके बड़े भ्राता श्री रामचंद्र जी सीता और लक्ष्मण के साथ जंगल चले गए हैं तो उन्हें आघात लगता है और तत्काल वे श्री रामचंद्र जी को वापस ले आने के लिए वन की तरफ प्रस्थान करते हैं. प्रयाग में ऋषि भारद्वाज के आश्रम में पहुंचकर उन्हें पता चलता है कि राम का लौटना असंभव है तो वे दुख के सागर में डूब जाते हैं. तब ऋषि भारद्वाज उन्हें समझाते हैं. इसका वर्णन संत कवि तुलसी दास अपनी रामचरित मानस में यूं करते हैं-
"सुनऊ भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ!
हानि, लाभ, जीवन, मरण, जस, अपजस विधि हाथ!!"
(अर्थात राज कुमार भरत जीवन में हानि, लाभ और आयु या मरण अथवा यश व अपयश मनुष्य के हाथ में नहीं उस विधाता के हाथ में हैं जिसने उसे रचा. इसलिए दुख प्रकट करने का कोई कारण नहीं है.)
कर्म से ही फल मिलेगा
अगर मनुष्य यह मान ले कि जीवन में उसका काम केवल कर्म करना है और फल वह अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं पा सकता है तो काफी हद तक उसे सुकून की जिंदगी मिल सकती है. खुद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है-
"कर्मण्ये वा धिकारस्ते मा फलेषुकदाचन" यानि मनुष्य का अधिकार उसके कर्म तक ही सीमित है, फल की इच्छा उसे नहीं करनी चाहिए. जिस दिन उसने फल की इच्छा की उसी दिन निराशा उसे घेर लेगी. क्योंकि फल कभी भी अपेक्षा के अनुकूल मिल ही नहीं सकता. इस प्रकृति का हर जीवधारी इसी संबल पर जीवित है.
वन में एक पशु घात लगाता है और हिरण के पीछे भागता है. पर कई सौ या हजार मीटर तक की रेस लगाने के बाद भी जरूरी नहीं कि शिकार उसे मिल ही जाए और मिल भी गया तो पता चला कि उससे बलशाली पशु उससे उसका यह शिकार छीन ले गया. तब तो उसे मिला उतना ही जितना कि विधि ने उसके लिए लिखा था. पर अगर विधि के भरोसे बैठे रहे तो फिर मनुष्य काम करना ही बंद कर देगा यानी कर्मण्य हो जाएगा. प्रकृति को अपनी गति से चलते रहने देने के लिए हर प्राणी को अपने योग्य काम तो करना ही पड़ेगा. उसकी इन्हीं कर्मण्यताओं और कर्मों को धर्म निष्पादित करता है इसीलिए धर्म की मनुष्य जीवन में एक सामाजिक उपयोगिता है.
जब कोई न हो तो ईश्वर है
इस्लाम में भी मान्यता है कि मनुष्य कभी अकेला नहीं होता है. हर समय ईश्वर उसके साथ ही रहता है.
हजरत मोहम्मद साहब जब मक्का जा रहे थे तब उनके साथ उनके शिष्य अबू बकर भी थे. एक तरफ असंख्य दुश्मन और दूसरी तरफ सिर्फ हजरत मोहम्मद और अबू बकर. अबू बेहद घबराए हुए थे और चारों ओर सशंकित नजरों से देख रहे थे. हजरत मोहम्मद साहेब ने पूछा कि अबू बकर तुम इतने घबराए हुए से क्यों हो? अबू बकर ने कहा कि हम सिर्फ दो हैं और दुश्मन हजारों की संख्या में इसीलिए डरा हुआ हूं. मोहम्मद साहब ने कहा कि हम दो नहीं तीन हैं. अबू बकर भौंचक्के से उनकी तरफ देखने लगे. वे बोले, कुछ समझा नहीं. हजरत मोहम्मद साहब ने कहा कि अबू बकर हमारे साथ खुदा है. याद करो कि खुदा को अगर तुम याद करते हो तो खुदा हर समय तुम्हारे साथ रहता है. और जब खुदा खुद हमारे साथ है तो फिर डर किस बात का? यह भरोसा हमें धर्म प्रदान करता है. धर्म एक नियामक है जो हमारे जीवन को नियमित करता है.
हर धर्म के पैगम्बर, मसीहा और अवतार मुनष्य के जीवन को नियमित करने ही आते हैं. चाहे वह इसलाम हो, ईसाइयत हो या हिंदू. धर्म ही धारण करने योग्य है इसीलिए वह धर्म है.
धर्म ही सहारा है
आज के इस आपाधापी वाले युग में मनुष्य कब का नष्ट हो चुका होता यदि धर्म उसे संबल नहीं देता. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि धर्म को जानना है तो दुखी पीडि़त व वंचित व्यक्ति के पास जाइए वहां आपको ईश्वर मिलेगा जब आप उसकी सेवा करेंगे. यहां ईश्वर यानी कि तृप्ति यानी कि मंजिल. यह तृप्ति ही ईश्वर है जो मनुष्य को उसका लक्ष्य निर्धारण में मदद करती है. इसीलिए हर समाज सुधारक और एक समान समाज के स्वप्नदर्शा ने धर्म को जीवन के लिए आवश्यक बताया है.
यूं भी हिंदू धर्म में तो धर्म किसी विशेष पंथ का नाम नहीं वरन् साफ कहा गया है कि यह पंथ है. जिस किसी भी पंथ पर चलकर, पंथानुगामी होकर आपको मंजिल प्राप्ति की प्रतीति होती है वही धर्म है. धर्म की इससे अद्भुत और तर्कशील व्याख्या भला और क्या हो सकती है. गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं "मामेकं शरणं ब्रज!" मुझ एक की शरण में आ और साथ में यह भी कहा गया है कि जिस पंथ पर चल रहे हो उसी पर अग्रसर हो-
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