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भोपाल गैस त्रासदी और 37 बरस
37 बरस पूरे हो गए हैं विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी यानी भोपाल गैस कांड को। दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी स्याह और सर्द रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली प्राणघातक गैस के नासूर को रिसते 3 लाख 24 हजार 120 घंटे से ज्यादा अर्सा बीत गया है, लेकिन तंत्र की तंद्रा अब तक भंग नहीं हुई है। कुछ सवाल उस रात मौतों की चीत्कार सुनकर ठिठक कर खड़े हो गए थे, वे अब तक वहीं खड़े हैं।
आखिर ये 'भोपाल' क्यों घटा? किसने घटने दिया? और किसने दोषियों को 'कवच कुंडल' दिए? प्रश्नों के उत्तर जहां से आने हैं, वहां चुप्पी के ताले हैं और उस रात शुरू हुआ सतत हादसे का अंतहीन दौर अब तक जारी है, न्याय की बात तो कौन करे, जिंदा बच गए लोग अपने सीने में दफ्न गैस पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपने को अभिशप्त हैं।
दरअसल, उन्हें संवेदनहीन तंत्र ने पल-पल मौत का संत्रास झेलते-झेलते मौत की आखिरी पेशी की आवाज सुनने के लिए अभिशप्त कर दिया है। खतरनाक बात ये है कि हमने ' भोपाल' से कोई सबक नहीं लिया है।
भारत में मई 2020 से जून 2021 के बीच औद्योगिक हादसों में 231 मजदूरों की मौत हुई। आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम के एलजी प्लांट से जहरीली गैस के रिसाव से एक दर्जन मौतों से लेकर के थर्मल पावर प्लांट विस्फोट में 20 मौतों और विरूधनगर पटाखा फैक्ट्री में आग से 21 लोगों की जान चली जाने के हादसे इसमें शामिल हैं। देश में इस साल जनवरी से जून तक छह माह में औद्योगिक हादसो में 117 मौतों का आंकडा बताता है कि न जाने कितने भोपाल सतत् घट रहे हैं।
कोई नहीं जानता कि 37 साल पहले 2 और 3 दिसम्बर की दरम्यानी रात घटे भोपाल हादसे की उम्र कितनी लंबी होगी, संततियां विकलांग और बीमार पैदा होने की बात तो आईसीएमआर की पहली रिपोर्ट में हादसे के तीन बरस बाद ही 1987 में बता दी थी। हादसे में रिसी गैस को मिथाइल आइसोसायनाइड इंगित करने वाली यह रिपोर्ट बताती है कि गर्भवती स्त्रियों में से 24.2 प्रतिशत गर्भपात का शिकार हो गई थीं। जो जन्मे उनमें से 60.9 प्रतिशत शिशु भी ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके।
मौत के पंजे से बच निकले शिशुओं में से भी 14.3 प्रतिशत शिशु दुनिया में शारीरिक विकृति लेकर आए। यह विकृति भी उन शिशुओं में ज्यादा पाई गई जो गैस रिसाव के समय गर्भ में तीन से लेकर नौ माह तक की अवस्था में थे। इतना ही नहीं हादसे के वक्त पांच बरस के रहे बच्चों पर भी गैस का घातक असर हुआ।
वे उम्र बढ़ने के साथ ही सांस की तकलीफ के बढ़ने का शिकार भी हुए। यानी आज जो 36 बरस से 41 बरस की उम्र के गैस पीड़ित हैं, उनकी तकलीफें मुसलसल जारी हैं। यह भी दहला देने वाली हकीकत है कि राज्य सरकार के मेडिको लीगल संस्थान में गैस हादसे के पीड़िताें के सैंपल तक सुरक्षित नहीं रह पाए।
सियासत की बात करें तो उस वक्त की सूबे की और केंद्र की सरकारों ने क्या किया था, जबकि उन्हें करना क्या चाहिए था? यह सवाल अब तक अनुत्तरित हैं। दोनों ही कांग्रेस की सरकारें थीं। प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह। सरकारों ने गिरफ्तार आरोपी वारेन एंडरसन को सुरक्षित और सम्मान सहित अमेरिका जाने का इंतजाम किया था।
इस पर सियासत से लेकर बौद्धिक बहसों के अनेक कारवां गुजर चुके हैं। भाजपा तो भोपाल में बकायदा गैस हादसे और पीड़ितों की समस्या को दाे दशक तक चुनावी मुद्दा बनाती रह चुकी है। गैस त्रासदी और उस वक्त के पूरे वार्डों यानी समूचे शहर को गैस पीड़ित मानने पर जोर देती रही यह पार्टी बीते करीब दो दशक से प्रदेश की सत्ता में हैं, लेकिन गैसकांड वाले मुद्दे पीछे छूट गए हैं।
बीते चार विधानसभा चुनाव में किसी भी सियासी जमात ने गैस कांड पीड़ितों के मुद्दे को चुनावी मुद्दा ही नहीं माना। हालांकि जब अदालती फैसले की वजह से गैस कांड और एंडरसन का मामला चर्चा में आया, तो जांच के लिए कमेटियां बना दी गईं।
वर्तमान सरकार ने भी करीब 11 साल पहले न्यायिक जांच कमेटी बनाई थी। न तो हादसे का मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन इस दुनिया में है, न ही उसके भारतीय साझेदार और न ही उसके मददगार बने तत्कालीन सरकारों के मुखिया।
गैस पीड़ितों की उस वक्त मदद करने वाले लोगों के संगठन भी छिन्न भिन्न होकर नेताओं की संख्या उतनी संख्या तक जा पहुंचे ही हैं जितनी बरसियां बीतती जा रही हैं। न तो गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदारों को सजा ही मिली और न ही पीड़ितों को राहत महसूस कर सकने लायक न्याय। 'भोपाल' को लेकर सियासत बदस्तूर जारी है।
यक्ष प्रश्न यह है कि हमने और दुनिया ने विश्व की भीषणतम युद्ध त्रासदी हिरोशिमा नागासाकी की ही तरह विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड से क्या सीखा? ये हादसा दुनिया के रहबरों के माथे पर सिकन पैदा नहीं कर पाया था, लेकिन इससे सबक लिए बिना दुनिया का भला नहीं हो सकता।
गैस त्रासदी में एक रात में काल कवलित हुए साढ़े तीन हजार और सैतीस साल से लगातार जारी हादसे में तिल तिलकर मृत हुए करीब 35 हजार लोगों को सही मायने में श्रृद्धांजलि यही होगी कि जो बचे हैं उन्हें बेहतर इलाज और मुआवजे से महरूम रह गए लोगों को उनका हक मिले, वरना हर साल बरसी में हम संख्या की एक एक गिरह बढ़ाते जाएंगे, होगा कुछ नहींं।
हालांकि यह भी हौलनाक सच है कि गैस कांड की बरसी पर अब मातम के लिए जुटने वालों की तादाद 20 लाख की आबादी वाले भोपाल में ही सैकड़ा से ज्यादा नहीं होती। जाहिर है हम न सबक ले रहे हैं, न हादसे को लेकर गम बचा है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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