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यह तो भारतीय जीवन और साहित्य में पूरी तरह से रचा-बसा है।
संवत्सर का संबंध काल गणना से ही नहीं, बल्कि सुदीर्घ आंचलिक कृत्यों की विविधता से है। भारत के उन भागों में, जहां वर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, लोग इस दिन कई प्रकार के धार्मिक और सामाजिक कृत्य करते हैं। ब्रह्मपुराण में जगत्कर्ता ब्रह्मा ने चैत्र शुक्ल के प्रथम दिन सूर्योदय के समय संसार का निर्माण किया, इस नाते उसी दिन से काल गणना शुरू हुई।
भविष्यपुराण में है कि यह तिथि ब्रह्मा द्वारा सर्वश्रेष्ठ तिथि घोषित की गई है। इस दिन वर्ष के स्वामी की पूजा होती है और तोरण व पताकाएं लगाई जाती हैं। नीम की पत्तियां खाई जाती हैं। डॉ. पांडुरंग वामन काणे अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में मानते हैं कि भारत में संवतों का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है।
विक्रम संवत के उद्भव, प्रयोग तथा विस्तार के विषय में कुछ भी कहना कठिन है। यही बात शक-संवत के विषय में भी है। किन्हीं राजा विक्रमादित्य को, जो ईसा पूर्व 57 में थे, इस संवत को जोड़ा गया है। इस संवत का आरंभ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा और उत्तर भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से है। कुछ आरंभिक शिलालेखों में विक्रम संवत 'कृत' नाम से है।
कुछ शिलालेखों में मालव संवत उल्लिखित है। आठवीं एवं नौवीं शती में विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ के वेडरावे शिलालेख से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर चालुक्य विक्रम संवत चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था 1076-77 ईस्वी।
संस्कृत में लिखे ज्योतिष ग्रंथ लगभग 500 ईस्वी के उपरांत शक संवत का प्रयोग करते हैं। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस पर अनेक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस पर कुछ भी नहीं कहा जा सका है। यह एक ऐसी समस्या है, जो भारतीय इतिहास एवं काल-निर्णय की अत्यंत कठिन समस्याओं में परिगणित है।
कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत का प्रतिष्ठापक माना है। मध्यवर्ती एवं वर्तमान में लिखे ग्रंथों में शक संवत का नाम शालिवाहन है। कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत एक अन्य संवत है, जो लौकिक संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ईसा पूर्व अप्रैल, 3076 में आरंभ हुआ।
शक संवत भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय वर्ष है। नवंबर, 1952 में भारत सरकार ने डॉ. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में 'पंचांग सुधार समिति' (कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी) बनाई थी, जिस पर पूरे भारत के लिए पंचांग बनाने का भार सौंपा गया। इस समिति ने नवंबर, 1955 में अपना निष्कर्ष देते हुए कहा कि स्वतंत्र भारत के प्रशासन द्वारा सबके लिए समान पंचांग की व्यवस्था की जानी चाहिए।
समिति ने जो निष्कर्ष दिए, उनमें ये तीन महत्वपूर्ण हैं-राष्ट्रीय संवत के रूप में शक संवत का प्रयोग होना चाहिए, वर्ष का आरंभ वासंतिक विषुव के अगले दिन होना चाहिए और सामान्य वर्ष में 365 दिन हों, किंतु प्लुत (लीप) वर्ष में 366 दिन हों। सारे उत्सव इसी हिसाब से आते-जाते हैं। इसके अनुरूप ही हमारा आहार-विहार और व्यवहार ढला हुआ है।
यह संवत निवास करता है नए अन्न के दानों में, आम की लुभाती खुशबू में और वसंत दूत कोयल की कूंजती स्वर लहरी में। इस संवत के आरंभ में चारों ओर पकी फसल का दर्शन आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है। चैत्र की प्रतिपदा से महानवमी तक अन्न और जीवन देने वाली पृथ्वी का पूजन माता दुर्गा के रूप में होता है। अष्टमी-नवमी को महादेवी के कन्यारूप में चरण पखारकर नए अन्न को कन्या से जूठा करवाने का अनूठा विधान है।
विक्रम संवत्सर के चेहरे पर जो चमक है, वह अध्यात्म और पुरातन इतिहास की है। तभी तो जब नया संवत शुरू होता है, तो चहुं ओर महकता है धूप का सौरभ और सुनाई देती है मंत्रों की ध्वनि। नव संवत्सर की विशिष्टता है कि इसके शुरू होने पर ही धर्म के मूर्तिमान विग्रह श्रीराम धरती पर उतरते हैं। संवत्सर हमारे जीवन में आने-जाने वाला काल मात्र नहीं है, यह तो भारतीय जीवन और साहित्य में पूरी तरह से रचा-बसा है।
सोर्स: अमर उजाला
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