सम्पादकीय

गुजरात के लोक संवाद का मंच है भवाई

Gulabi
30 Sep 2021 10:56 AM GMT
गुजरात के लोक संवाद का मंच है भवाई
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आश्विन मास की नवरात्रि पर भवाई प्रदर्शन

किसी भी सूबे की शक्ल क्या सिर्फ़ मानचित्र पर उभर आई रेखाओं से मिलकर तैयार होती है? या कि उसका असल चेहरा तहज़ीब के उन रंगों से रौशन होता है, जो हज़ारों बरसों के सफ़र में वहां की इंसानियत को उसूलों की राह दिखाता रहा! गुजरात की सरज़मीं के दस्तावेज़ आज भी सांस्कृतिक विरासत के गौरवशाली गाथाओं से भरे हैं. तरक्की के तमाम पायदानों पर चढ़ता भारत का यह राज्य आज भी दुनिया में अपनी रंग-बिरंगी कला परंपराओं की वजह से ही अधिक मशहूर है. यहां जि़क्र हाल ही मंचित हुए भवाई का.

भारतीय रंगमंच अगर इंसानी जीवन की सनातन पुकार है, तो गुजरात की लोक शैली में रचा-बसा भवाई नाट्य भी अभिव्यक्ति का एक ऐसा ही सशक्त माध्यम है. अपनी सांस्कृतिक परंपरा की डोर थामे सभ्यता के नए कूल–किनारों को पार करते मनुष्य के सामुदायिक जीवन की व्यापक गतिविधियां भवाई के मंच पर मूर्त होती देखी जा सकती हैं. यहां गुजरात के लोक रंगों से सराबोर संगीत, नृत्य, अभिनय, संवाद, वेशभूषा, बोली यानी पूरा कलात्मक ताना-बाना इतना लुभावना कि दर्शक देर तक इसकी आगोश में बिंधे रहते हैं.
इस आकर्षण की ख़ास वजह भवाई का कथानक और उसकी पेशगी का अंदाज़े बयां है. भवाई के रंगमंच पर स्वप्न कथाओं और परियों की कहानियों से लेकर, पौराणिक ऐतिहासिक प्रसंग और आज के हालातों का बखान होता है.
आश्विन मास की नवरात्रि पर भवाई प्रदर्शन
गुजरात में आश्विन मास की नवरात्रि के अवसर से भवाई प्रदर्शन का आरंभ होता है. दिवाली के बाद भवाई मंडलियां अपने नियत तथा आमंत्रित गांवों में जाती हैं. खुले रंगमंच पर पूरे रात भर गीत, संगीत और नृत्य के साथ क्रमशः नाटिकाओं, वेशों का प्रदर्शन होता है. भवाई प्रदर्शन में 'प्रहसन' प्रमुख तत्व होता है. भवई की मंडली को 'ढोकु' 'पेडु' तथा सौराष्ट्र में 'बेड़ा" कहा जाता है. भवाई मंडली में 20 से अधिक सदस्य नहीं होते और 9 से कम कलाकार नहीं होते. बीस की संख्या अधिक आदर्श मानी गई है. इस मंडली में स्त्री पात्र, पुरूष पात्र, गायक नर्तक तथा सहयोगी कलाकारों का समावेश होता है.
भवाई खेलने वाली विशिष्ट जाति तरगाला कहलाती है. जो मुख्यतः उत्तर गुजरात में रहती है. इनमें हर मंडली की वंश परंपरागत यजमान जाति तथा बधें हुए गांव होते है. जन-श्रुति से ज्ञात होता है कि भवैया के यजमान किसी न किसी गांव में पटेल ही होते थे. भवैया की कला, व्यवसाय तथा यजमान समुदाय को वांशिक परंपरा से ही प्राप्त करते हैं. वे वर्ष के चार माह छोड़कर सात या आठ माह गांवों में घुमकर भवाई का खेल प्रदर्शन करते है. लेकिन, अब तो अन्य जातियां भी भवाई खेलने लगी और आज भवाई खेलने वाली तथा आयोजक, यजमान जातियां अनेक हैं.
भवाई के पूर्वरंग के अंतर्गत सर्वप्रथम चाचर रचना तथा पूजा विधि का समावेश होता है. चाचर में देवी के प्रतीक रूप में दीपक तथा मशाल जलाने के बाद अंबिका तथा बहुचर आदि देवियों की जय जयकार की जाती है. उसके बाद नायक मंडली के सदस्यों को भवाई शुरू करने का आदेश देता है. भवाई का मुख्य बाध्य भूगंल बजाकर ग्राम्य देवता को आमंत्रित किया जाता है. भवाई का मुख्य वाद्य भूंगल बजाकर ग्राम्य देवता को आमंत्रित किया जाता है. भूगल के साथ तबला, झांझ, ढोलक इत्यादि बाजों को बजाया जाता है.
तरगाला जाति का पेशा बना रहा भवई
भवाई की भाषा मुख्य रूप से गुजराती लोक बोली रही है. उस पर उर्दू खड़ी बोली हिन्दी और मारवाड़ी का प्रभाव भी रहा. मुस्लिम चरित्र प्रधान वेशों में उर्दू और हिन्दी का प्रयोग किया जाता है. मुख्य रूप से भवई तरगाला जाति का पेशा बना रहा. परन्तु आज गुजरात में अनेक जातियों में भवई खेलने की प्रथा है. ब्राह्यणों के अलावा पिछड़ी जातियों में भवाई खेली जाने लगी. इनमें से कुछ मंडलियां देवी अम्बा की पूजा तथा नवरात्रि के लिए तथा कुछ मंडलियां मात्र मनोरंजन के लिए तथा कुछ मंडलियां जीविका के लिए भवाई खेलती हैं.
उदाहरण के रूप में गुजरात में अमुसूचित जातियों में तुरी नामकी जाति के भवाई खेलने के प्रमाण मिलते हैं. तुरी समुदाय के तो जीविका का माध्यम ही भवाई है. अधिकतर भवाईयों के यजमान पटेल बने रहे. इसके साथ ही कुछ भवाई मंडलियों के यजमान क्षत्रीय या राजपूत बनने लगे. खेड़ा जि़ले में क्षत्रियों के भवाईयों को मराठा कहा जाने लगा. भवाई के ऐतिहासिक अध्ययन से मालूम होता है कि चौदहवीं सदी में यह अस्तित्व में आयी. गुजरात के ही ग्रामीण इलाकों में रहने वाले भवाई समुदाय ने जनजागरण और लोक रंजन के उद्देश्य से इस शैली की परिकल्पना की और एक रचनात्मक आंदोलन के रूप में इसे स्थापित किया.
इस अभियान के सूत्रधार बने पंडित ठाकर. वे जाति के ब्राह्यमण थे. पुरोहित कर्म से जुड़े थे. अंबा देवी के भक्त थे. वेद-उपनिषदों तथा अन्य ग्रंथों का गहरा अध्ययन उन्होंने किया. भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी. इन्हीं रूझानों और आस्थाओं के चलते उन्होंने भवाई के लिए अनेक कथानकों की रचना की.
विचार और मनोरंजन की जुगलबंदी के साथ भवाई की प्रस्तुति

भवाई के मंचन को देखते हुए असाईत ठाकुर की विलक्षण सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि का परिचय मिलता है. लोक मंच के लिए इन नाट्य प्रस्तुतियों में गूढ़ चिंतन को सहज शैली में ढालने का अद्भुत कौशल दिखाई देता है. यानी विचार और मनोरंजन की जुगलबंदी के साथ भवाई अपनी प्रस्तुति में चरम पर पहुंचती है. भवाई के रंगमंच को अधिक संसाधन की दरकार नहीं होती. यह ज़मीन पर भी खेला जा सकता है. इस फलक पर भी कोई भी दृश्य प्रभावी ढंग से रच देने का सामर्थ्य कलाकारों में होता है. पूर्वरंग से लेकर नाटक के अंतिम दृश्य तक एक सहज प्रवाह में प्रस्तुति संपन्न होती है.
मां भवानी, देवी सरस्वती, श्रीगणेश या छप्पन भैरव की आराधना के मंगलाचरण से प्रस्तुति शुरू होती है. गुजरात का उदात्त भक्ति संगीत, यहां प्रार्थना के पवित्र भावों का संचार करता कलाकारों में नई उर्जा और उत्साह जगाता है. कथानक सामाजिक, राजनैतिक या पौराणिक ही क्यों न हो, मुख्य पात्रों के बीच विदूषक की उपस्थिति प्रहसन का आनंद बिखेरती रहती है. भवाई की परंपरा को विकसित करने में पुरूषों का ही योगदान प्रमुख रहा है. मंचन में भी पुरूष ही हिस्सा लेते हैं. वे ही स्त्री पात्रों की भूमिका का निर्वाह करते हैं. इन पुरूष कलाकारों के लिए भवाई आजीविका का ज़रिया भी रही. कलाकारों के दल गांव-गांव घूमकर भवई के प्रदर्शन कर दान-दक्षिणा पाकर अपना जीवन यापन करते रहे हैं.
इन संदर्भों के साथ भवाई के मंचन को देखना निश्चय ही कौतुहल जगाता है. एक कहानी गुजरात के मोरवी राजा रावत रनसिंह और उस राज्य की सुन्दनी महेन्द्री के आसपास घूमती है. राजा इस अप्सरा के रूप पर मोहित है. उससे विवाह करना चाहता है और सुन्दरी एक नाग कन्या होने के कारण इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर देती है. यह असहमति ही एक नयी टकराहट बनती है और विचित्र से घटनाक्रम के बीच मोरवी राज्य के पतन की दास्तान उजागर होती है. पारंपरिक वेशभूषा के बीच मुखौटों का इस्तेमाल भवाई की अपनी अलहदा सी पहचान है जो प्रस्तुति को और भी रोचक बना देती है.
भवाई का मंच हमेशा प्रयोग और नवाचार के लिए खुला रहा है. कथानक को समसामयिक घटना-प्रसंगों के अनुकूल बनाने के उद्देश्य से संवादों में परिवर्तन और तात्कालिक सूझ-बूझ से उन्हें गढ़ने का कौशल कलाकारों में देखते ही बनता है. पारंपरिक वाद्यों में तबला, ढोल, झांझ, छोटी शहनाई के साथ बैंजों का इस्तेमाल किया जाता है. गरबा के गीत और उसकी ख़ास लय-ताल भरा संगीत सौराष्ट्र की लोक-संस्कृति की महक बन जाता है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय, कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.


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