सम्पादकीय

भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती : हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई

Rani Sahu
9 Sep 2021 10:35 AM GMT
भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती : हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई
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ऐसी रचनाओं के माध्यम से भारत के गौरवशाली अतीत का बोध करवाते हुए नवजागरण की आधार शिला रखने वाले आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र की आज जयंती है

रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो। सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो। सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो॥
अब सबके पीछे सोई परत लखाई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥
ऐसी रचनाओं के माध्यम से भारत के गौरवशाली अतीत का बोध करवाते हुए नवजागरण की आधार शिला रखने वाले आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र की आज जयंती है. भारतेंदु युग नव जागरण का युग है. खड़ी बोली का विकास इस युग का महत्वपूर्ण आयाम है. यूरोप पुनर्जागरण के बरअक्स भारत में नवजागरण हुआ और चेतना का यह उदय भारतेंदु के आंगन से हुआ है. यह उदय कितना महत्वपूर्ण है यह जानने के लिए भारतेंदु के साहित्य को जानना आवश्यक है.
14वीं और 17 वीं सदी यूरोप का पुनर्जागरण काल है. यह वह समय था जब यूरोपीय देशों में सांस्कृतिक-धार्मिक आंदोलन व प्रगति हुई. इस संघर्ष से जीवन के हर क्षेत्र में नई सोच का विस्तार हुआ. यह नई कलाओं, साहित्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का समय था. यूरोप में पुनर्जागरण था वह भारत में नवजागरण कहलाया. फिर से जागना नहीं बल्कि नव चेतना का अभ्युदय हुआ. उन्नीसवीं सदी के अंत औ बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में बंगाल में समाज सुधार और राष्ट्र भक्ति के आंदोलन हुए. यह बंगाल का नवजागरण काल कहा जाता है.
बंगाल में प्रस्फुटित यह चेतना 19 वीं शताब्दी के मध्य में हिंदी प्रदेश में अंकुरित हुई. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिन्दी पट्टी में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना के विकास का कार्य हुआ. इस तरह हिन्दी नवजागरण काल 1857 से माना जाता है. हिन्दी-प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना की जागृति और सामाजिक परिवर्तन के इस आंदोलन के सूत्रधार भारतेंदु हरिश्चंद्र थे. भारतेंदु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है.
महज 35 वर्ष की उम्र में सबको छोड़ गए भातेंदु
भारतेंदु का जन्म बनारस के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार में 9 सितंबर,1850 को हुआ था. शारीरिक व्याधियों के कारण 34 वर्ष की अल्प आयु में ही 6 जनवरी 1885 को वाराणसी में ही उनका निधन हो गया. इतनी कम आयु में जाना नियति थी, तो भारतेंदु ने व्यापक साहित्य रच कर वामन जीवन में विराट कार्य किया. केवल पंद्रह वर्ष की उम्र से ही भारतेंदु ने लेखन शुरू कर दिया था. अठारह वर्ष की उम्र में उन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया.
छोटे से जीवन मे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने करीब 70 ग्रंथों की रचना की है, जिनमें एक ओर भक्ति काल की परंपरा का निर्वाह था, तो दूसरी ओर नई लीक का निर्माण. पूर्वजों की परंपरा के अनुरूप उन्होंने भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, श्रृंगार आदि की रचनाएं लिखी तो आगत के लिए मार्गदर्शन सिद्धांत गढ़ते हुए अपने समय और दौर की रूढ़ियों, सीमाओं, संकटों को रेखांकित करता और उनका समाधान बताता साहित्य कर्म किया.
इस तरह, भारतेंदु युग प्रवर्तक साहित्यकार बने. उनके इस अभियान में कवियों और लेखकों का बड़ा समुदाय भागीदार बना, जिसे 'भारतेंदु मंडल' के नाम से जाना जाता है. भारतेंदु के साथ ही उनके मण्डल के अधिकांश सदस्यों ने अपनी पत्रिकाओं का प्रकाशन किया. इन पत्रिकाओं के माध्यम से भारतेंदु मंडल ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार, नवजागरण और समाजसुधार का एक वृहद अभियान चलाया. पत्र-पत्रिकाओं में उठाए जाने वाले मुद्दे अंततः देश के मुद्दे बने.
गरीबी, पराधीनता, अमानवीय शोषण का चित्रण भारतेंदु के साहित्य का लक्ष्य
भारतेंदु ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया. मगर ऐसा करना आसान न था. इनदिनों अभिव्यक्ति पर जैसा संकट है उससे कहीं अधिक जोखिम ब्रिटिश शासन में था. 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज अधिक सतर्क हो गए थे. कंपनी शासन की जगह ब्रिटिश राज अस्तित्व में आ गया था और ब्रिटिश शासन का प्रतिरोध आसान नहीं था. ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य को माध्यम बनाया. रंगमंच को विद्रोह का औजार बनाया.
प्रहसन के जरिये सरकार के विरोध का वातावरण बनाया. भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी जैसी कृतियां इसका उदाहरण है. 'अंधेर नगरी और चौपट राजा' तो आज भी सबसे बड़ा व्यंग्य मुहावरा बना हुआ है. 34 साल के अपने जीवनकाल में ही उन्होंने हिंदी साहित्य को ऐसा समृद्ध किया कि पूरा काल उन्हीं के नाम से जाना जाता है. भारतेंदु ने साहित्य में प्रतिरोध की नींव रखी. साहित्य में जिस सोच का बीजारोपण हुआ वह बाद में समाज और राजनीति में प्रतिबिंबित हुआ.
भारतेंदु के लेखन में आजादी का स्वप्न दिखता है. एक लेखक का स्वप्न अंततः समूचे राष्ट्र की आकांक्षा बनी. धार्मिक एकता की जरूरत का जिक्र करते हुए भारतेंदु ने अपने एक भाषण में कहा था कि घर में जब आग लग जाए तो देवरानी और जेठानी को आपसी डाह छोड़कर एक साथ मिलकर घर की आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए. यहां देवरानी जेठानी से उनका आशय हिंदू मुस्लिम से है. घर की फूट को विकास की सबके बड़ी बाधा कहते हुए उन्होंने लिखा :
जगत में घर की फूट बुरी.
घर की फूटहिं सो बिनसाई, सुवरन लंकपुरी.फूटहिं सो सब कौरव नासे, भारत युद्ध भयो.
जाको घाटो या भारत मैं, अबलौं नाहिं पुज्यो.
फूटहिं सो नवनंद बिनासे, गयो मगध को राज.
चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ, आपु नसे सहसाज.
जो जग में धनमान और बल, अपुनो राखन होय.
तो अपने घर में भूलेहु, फूट करो मति कोय॥
मत मतान्तर पर झगड़ने के खतरों को भांपते हुए ही उन्होंने लिखा था कि सभी को अपनेअपने मतों को मानते हुए दूसरे धर्मों का आदर करना चाहिए :
खंडन जग में काको कीजै.
सब मत अपने ही तो हैं
इन को कहा उत्तर दीजै.
भारतेंदु हमेशा जनता से जोड़ने वाली भाषा के पक्षधर रहे. वे जानते थे कि लोकभाषाओं के साथ से ही हिंदी का विकास सम्भव है. तब ही तो उन्होंने लिखा है :
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल.
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात.
हंटर कमीशन को दिए प्रतिवेदशन में भारतेंदु का दर्द
हंंटर कमीशन को दिए अपने प्रतिवेदन में भारतेंदु ने हिंदी की दशा पर जो लिखा था आज स्थितियां उससे अधिक अच्छी नहीं हैं. उन्होंने लिखा था-
इस प्रान्त की प्राथमिक पाठशालाओं में हिंदी भाषा की लिपि का प्रयोग प्रायः पूर्णतया किया जाता है. परन्तु अदालतों और दफ्तरों में फारसी भाषा की लिपि का प्रयोग होता है; अतः उस प्राथमिक शिक्षा का जो एक ग्रामीण लड़का अपने गांव में प्राप्त करता है, कोई मूल्य नहीं है, कोई फल नहीं है.
वर्षों तक एक ग्राम पाठशाला में पढ़ने के बाद जब एक जमींदार का लड़का अदालत में जाता है तो उसे पता चलता है कि उसका सब परिश्रम व्यर्थ गया, अपने पूर्वजों की भांति वह भी बिलकुल अज्ञानी है, तथा वह उस घसीट लिपि (उर्दू) को पढ़ने में बिलकुल असमर्थ है , जो अदालत का अमला प्रयोग में लाता है.
यदि एक निर्धन व्यक्ति के पुत्र को अपने (हिंदी) ज्ञान के भरोसे पर जीविका साधन प्राप्त करने की अभिलाषा है तो उसे शिक्षा विभाग का द्वार खटखटाना पड़ेगा, अन्य विभाग उसे अशिक्षित कहकर वापस कर देंगे. सभी देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है. यह ऐसा देश है जहाँ अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की.
भारतेंदु के संपूर्ण लेखन का मूल स्वर साम्राज्यवाद – सामंतवाद विरोधी है. जिन सवालों से भारतेंदु दो-चार होते हैं, जिन मुद्दों को उठाते हैं, वे आज भी बने हुए हैं. भारत की दुर्दशा कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ती ही जा रही है. देश राजनीतिक तौर पर भले ही आजाद है, पर पूंजीवादी- साम्राज्यवादी शोषण के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिली है.
किसानों का शोषण अंग्रेजी राज में जितना होता था, उससे कम आजाद भारत में नहीं हो रहा है. सांप्रदायिकता के जिस ख़तरे के प्रति भारतेंदु ने आगाह किया था, वह आज और भी उग्र रूप में सामने है. ऐसे में, भारतेंदु का लेखन आज और भी प्रासंगिक हो गया है. इस रचना को पढ़ कर क्या आप यकीन कर पाएंगे कि यह इनदिनों की रचना नहीं है बल्कि डेढ़ सौ साल पहले लिखी गई है :
चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं॥
चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते॥
चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते॥
चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग॥
चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात॥
चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता॥
चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते॥
भारतेंदु हरिश्चन्द्र का बिलिया वाला भाषण
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने नवम्बर 1884 में बलिया के पास ददरी में एक व्याख्यान दिया था जिसे बलिया व्याख्यान या बलिया वाला भाषण के नाम से जाना जाता है. यही व्याख्यान 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है' शीर्षक से `हरिश्चंद्र चंद्रिका´ में प्रकाशित हुआ था. इस में भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कहा था:
हाय अफसोस, तुम ऐसे हो गए कि अपने निज के काम की वस्तु भी नहीं बना सकते. भाइयों, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो. जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताबें पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो. परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का का भरोसा मत रखो. अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो.
यह 1884 की बात थी और अब भूमंडलीकरण के बाद 2021 में हालात क्या हैं? आत्मनिर्भर भारत की खोज मेक इन इंडिया से शुरू हुई थी मगर हम स्किल इंडिया में ही उलझे हैं. भारतेंदु ने ही विकास का पथ बताया है. उन्होंने लिखा है :
अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो. कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं. उन को वहां वहां से पकड़कर लाओ. उनको बांध बांध कर कैद करो. इस समय जो बातैं तुम्हारे उन्नति के पथ में कांटा हों उनकी जड खोद कर फेंक दो. कुछ मत डरो. जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएंगे, दरिद्र न हो जाएंगे, कैद न होंगे वरंच जान से मारे न जाएंगे तब तक कोई देश भी न सुधरैगा.


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