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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। लोकतन्त्र में राजनीति के मुद्दे और विमर्श लोगों के बीच से ही निकलते हैं जिन पर विभिन्न राजनीतिक दल अपने सिद्धान्तों की बुनियाद खड़ी करते हैं। लोगों का सीधा सम्बन्ध अपनी आजीविका से होता है जिसे केन्द्र में रख कर ही राजनीतिक विमर्श लोगों के बीच से निकलते हैं। अतः यह कहना पूरी तरह तार्किक है कि आर्थिक नियामक ही राजनीति को संचालित करते हैं। साठ के दशक में जब आज की भाजपा और तब की जनसंघ पार्टी ने यह नारा दिया था 'हर हाथ को काम, हर खेत को पानी-घर-घर में दीपक जनसंघ की निशानी' तो स्पष्ट था कि इस पार्टी ने अपने राष्ट्रवाद की शर्त को आर्थिक सांचे में ढालने की कोशिश की थी। यह उदाहरण देने का मात्र आशय यह है कि भारत का कृषि क्षेत्र इसकी घरेलू राजनीति के केन्द्र में आजादी के बाद से ही रहा है। इसका कारण भी साफ है कि आज भी भारत में सबसे ज्यादा आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर करती है। मगर इसके साथ ही हमें राजनीति में सामाजिक व सांस्कृतिक पक्ष की भूमिका को भी देखना होगा।
यह अकारण नहीं है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सौवें स्थापना दिवस पर प्रधानमन्त्री ने भारत की बहुधार्मिक विविधतापूर्ण संस्कृति को इसकी ताकत बताते हुए कहा कि भारत प्रत्येक नागरिक का है, चाहे उसका धर्म कोई भी हो। इसके विकास में हर भारतीय की बराबर की हिस्सेदारी है। राष्ट्र को मजबूत बनाने में हर व्यक्ति का योगदान मायने रखता है। अतः बहुत सरल तरीके से समझा जा सकता है कि भारत में खेती करने वाला किसान पूरे भारत का है। उसका धर्म कुछ भी हो सकता है मगर वह कृषि उपज पैदा करके देश को विकसित करता है और प्रत्येक भारतीय के विकास में अपना योगदान देता है क्योंकि उसके मेहनत किये बगैर सामान्य आदमी से लेकर उद्योगपति तक की पेट की क्षुधा नहीं बुझ सकती।