सम्पादकीय

फागुन के दामन पर प्रेम की गुलाबी मोहर है भगोरिया

Gulabi Jagat
30 March 2022 2:31 PM GMT
फागुन के दामन पर प्रेम की गुलाबी मोहर है भगोरिया
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इस थिरकन को देखना जैसी भीलों के सांस्कृतिक ताने-बाने से गुज़रते हुए उस आदिम गंध को महसूस करना है
महीना फागुन का है. रंगतों का है. वासंती अठखेलियों का है. इस दिलकश मंज़र के बीच मध्यप्रदेश की धार नगरी पार करते ही झाबुआ की झाँकी में मन रमने लगता है. आपस में गूँथी हुई भूरी पहाडि़यों के बीच से गुज़रते हुए आँखें महुआ, करंजी और आम के वृक्षों से अठखेलियाँ करने लगती है. हवा के मद्धम झोंके वसंत की खुश्बू समेट लाए हैं. आम पर बौर आ गये हैं. टेसू फूल उठा है. पलाश के फूलों की लाल केशरिया झलक ऐसी लगती है मानों जंगल होली खेलने की तैयारी कर रहा हो, जैसे किसी ने इस जंगल और ज़मीन पर गुलाल बिखेर दिया हो. सारा जंगल मानों सज-धजकर मेला देखने निकल पड़ा हो. भीलों की बिरादरी के लिए यह जश्न प्रकृति का अनूठा उपहार है.
दिशाओं के उस पार तक फैलती एक अनुगूँज, एक स्वर लहरी, एक मधुर तान….. हर साँस के साथ उठती-गिरती लय-ताल पर यहाँ जीवन आनंद का उत्सव मना रहा है. सुरमई इच्छाएँ समय की थाप पर थिरकती हैं और उमंगों की उंगली थामकर समय में ही अपने होने की गवाही देती हैं. ये है भीलों की रंग-रूपहली दुनिया. भगोरिया के दामन में धरोहर की धड़कनों को थामें यह सदियों से अपने वजूद पर फ़क्र करती इंसानी उसूलों का पैग़ाम देती रही है.
इस थिरकन को देखना जैसी भीलों के सांस्कृतिक ताने-बाने से गुज़रते हुए उस आदिम गंध को महसूस करना है जो हम सब की रूह में बहुत गहरे तक रची-बसी है. भगोरिया एक ऐसी ही आदिम यात्रा पर चल पड़ने का आमंत्रण है. इस सफ़र के कई पड़ाव हैं. कई पहलू हैं जिन्हें देखे-जाने बग़ैर भगोरिया की पहचान पूरी नहीं होती. सिलसिला शुरू होता है भगोरिया हाट से.पुराने ज़माने की तरह आज भी भील अपने वासंती पर्व को कई दिनों तक मनाया करते हैं. भगोरिया हाट फागुन की पूर्णिमा आने के सात दिन पहले ही भरने लगते हैं और धुरेड़ी पर यह सिलसिला चरम पर पहुँचता है. भील बालाएँ और किशोर इन हाटों में यायावरी करते हैं. बाँसुरी की तान छेड़ते हुए भील युवक वहाँ अपने होने की गवाही देते हैं.
भोर होते ही भील लड़कियाँ और लड़के भगोरिया हाट की ओर चल देते हैं. लड़कियाँ अपने गाँव की सहेलियों के साथ सज-धजकर निकल पड़ती हैं. लड़के भी अपने गाँव की मित्रमण्डली के साथ आते हैं. सिर्फ़ युवा ही नहीं, गाँव के जेठे-सयाने, स्त्री-पुरूष और बच्चे भी यह मेला देखने आते हैं. झाबुआ अंचल में होली के त्यौहार से सात दिन कोई न कोई हाट गाँवों में भरता ही है. इन सात दिनों में वही हाट भगोरिया हाट कहलाने लगता है.
भगोरिया हाटों में भील लड़कियाँ और लड़के एक-दूसरे को जीवन साथी के रूप में चुनते हैं. कोई भील किसी भीलनी पर रीझकर उसके चेहरे पर गुलाल मल देता है. पर यह एकतरफा रीझना काफी नहीं है. अगर गुलाल का जवाब गुलाल से न आये तो समझ लेना चाहिए कि बात नहीं बनी. जीवन साथी की यह खोज इस मेले में दिन भर चलती रहती है. दिन, चढ़ते-चढ़ते, मेला अपने पूरे शबाब पर पहुँचता है. देखते-देखते शाम घिर आती है और सूरज के डूबने के साथ ही सब अपने गाँव लौटने लगते हैं, इस वादे के साथ कि अगले भगोरिया हाट में फिर होगी मुलाकात.
भगोरिया हाट का नज़ारा भीली संस्कृति को बहुत नज़दीक से देखने का मौका भी होता है. भील युवक कानों में मूँदड़े और टोटवा (कानों की बालियाँ) गले में बनजारी साँकल, हाथों में नारहमुखी चाँदी के कड़े, भुजाओं में हटके और पाँवों में बेड़ी पहनकर सजते हैं. उन्हें रंगीन रूमाल भी खूब भाते हैं. वे रंग-बिरंगे अंगरखे, सलूके और धोती पहनते हैं. उनके सिर पर गहरे लाल, हरे और नीले रंग के बीस हाथ लम्बे साफे शोभते हैं. वे टोलियाँ बनाकर अपने-अपने गाँव से बाँसुरियाँ बजाते हुए आते हैं. दूर से बाँसुरी की धुन कानों में पड़ते ही कोई भील बाला अपना साज-श्रृंगार भूलकर मेला देखने निकल पड़ती है.
भीलों का जीवन विंध्याचल, सह्यद्रि और सतपुड़ा पर्वतों के बीच सघन वनों से गुँथा है. मध्यप्रदेश के पश्चिमी छोर झाबुआ, धार, रतलाम और खरगोन जि़लों में फैले जंगलों में भीलों और उनकी उप जातियों-भिलाला, पटेलिया, बरेला, राँठ, धानुका और नायकड़ा का भी बसेरा है. इन वनवासियों का जीवन भौगोलिक स्थिति के कारण गुजराती, राजस्थानी और मराठी संस्कृति के प्रभाव से अछूता नहीं रहा. इनकी बोली, पहनावे और खानपान पर इनका असर साफ़ दिखता है. पर आज भी ये अपने तीर और कामठी से पहचाने जाते हैं. अपने अचूक निशाने के लिए प्रसिद्ध भील महाभारत के प्रसिद्ध धनुर्धारी पात्र एकलव्य को अपना वंशज मानते हैं. कुछ दन्तकथाओं के अनुसार शिव के कुल से भी वे अपना नाता जोड़ते हैं. झाबुआ के भगौर गाँव में पातालेश्वर महादेव का मंदिर भी है.
कहते हैं कि झाबुआ के पास बसा भगौर गाँव कभी भीलों के ही राज्य की राजधानी रहा. वे इस अंचल पर राज्य करते थे और धार नगरी के ज्ञान सम्पन्न राजा भोज को लड़ाइयों में सैनिक सहायता भी देते थे. लोक प्रसिद्धि है कि प्राचीन काल में यह भगोर नामक स्थान एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में भी अपनी पहचान रखता था. कहा जाता है कि यह भृगु ऋषि के नाम पर बसाया गया था. भील अपने गीतों में जासमा आडनी का जस गाते हैं जिसने भगोर में सरोवर बनाया. भगोर की समृद्धि की कथाएँ भीलों में प्रचलित हैं. भगोरिया हाट की कहानी इसी भगोर से जुड़ी मानी जाती हैं.
भगोरिया नृत्य से पहले भगुरिया थान (नाच स्थल) पर गड़े गए काठ के स्तम्भ की होम देकर पूजा की जाती है. यह पूजा गाँव का मुखिया करता है और फिर मादल, काँसे की थालियाँ, फेफरया (शहनाई) और बाँसुरियाँ बज उठती हैं.
भीलनियाँ महारास की गोपियों की तरह भगोरिया हाट में नाचती हैं. वे नृत्य के समय अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेती हैं. कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखती हैं. उनके कानों के कुण्डल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते हैं. भगोरिया हाट का यह नाच भगोरिया नृत्य के नाम से मशहूर हो गया है. इसकी ताल पाँच और छह मात्राओं के टुकड़ों की होती है. जैसे-जैसे उमंग बढ़ती जाती है नृत्य की लय भी तेज होती जाती है. भगोरिया में भाव नृत्य नहीं होता, आनंद का सारा आवेग अंग संचालन में ही उमड़ता है.
भगोरिया नृत्य में लहराती उमंगें क़ुदरत की नेमत के लिए आत्मा की गहराइयों से उभरा आभार हैं. ये रूहानी खुशी फ़सल की अच्छी पैदावार का नतीजा है. इन्द्रदेव की कृपा, पुरखों का आशीर्वाद और भीलों का परिश्रम जब फलीभूत होता है तो जैसे आसमान पर खिला सपनों का इन्द्रधनुष धरती पर उतर आता है. आस्थाएँ अपने इष्ट के सामने सिर झुकाती हैं. अनुष्ठान के पवित्र भाव रूह-रक्त में उतरते हैं और उम्मीद का उजास लिए जीवन की मधुरिमा में फिर से लौटने का उत्साह लिए भीलों का कुनबा अपनी मुक्ति का महापर्व मनाने मचल उठता है.
सारा कल्मष, सारी कटुता, सारा अवसाद एक अनुरागी-कामना से भरकर प्रेम का पैग़ाम रचता है. तमाम संकोचों और बंधनों से निकलकर जीवन की रंगभूमि एक उत्सव में बदल जाती है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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