सम्पादकीय

काशी में भगीरथ प्रयास

Rani Sahu
14 Dec 2021 6:58 PM GMT
काशी में भगीरथ प्रयास
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महादेव, देवादिदेव की काशी में एक और भगीरथ-प्रयास किया गया है

महादेव, देवादिदेव की काशी में एक और भगीरथ-प्रयास किया गया है। देश उसका साक्षी बना है। महादेव और मां गगा का एकाकार रिश्ता रहा है। भगीरथी से काशी विश्वनाथ का मंदिर दिखाई देता है और मंदिर से ही मां को नमन् किया जा सकता है। अब तो 5 लाख वर्ग फुट क्षेत्रफल में काशी कॉरिडोर बनाया गया है। उसमें देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। पूरा प्रांगण ही शिवमय है। नए सिरे से इतिहास उकेरा गया है, स्तुतियों का वर्णन किया गया है। घोर कलियुग में भी आस्था का आधुनिक परिसर बनाया गया है, यकीनन यह अद्भुत और अभूतपूर्व है। मां गंगा का उद्गम भी प्रभु शिव की जटाओं से हुआ था। महासंत भगीरथ के बाद गंगा ने शिव की जटाओं में अर्द्धविराम लिया और फिर वसुंधरा पर प्रवाहित हुईं, ताकि गंगा का शिवत्व बरकरार रहे। किंवदंतियों में भी ढेरों सत्य निहित होते हैं। किंवदंति यह भी है कि काशी पृथ्वी पर नहीं, महादेव के त्रिशूल पर टिकी और बसी है। काशी अनश्वर, अनंत, अविरल और अविनाशी है।

वहां डमरू, तांडव, भस्म और शैवत्व की सरकार है। काशी में सभी धर्मों, राम-कृष्ण, शिव-राम का समन्वय है। काशी सभी प्राणियों और भक्तों की है। बाबा भोलेनाथ सबके हैं। उनके भी हैं, जिन्होंने बार-बार हमले किए और काशी के जरिए सनातन, वैदिक और पौराणिक सभ्यता-संस्कृति के विध्वंस की नापाक कोशिशें कीं। वे इतिहास के काले पन्नों मंे समा चुके हैं। राजा हरिश्चंद्र, सम्राट विक्रमादित्य, महारानी अहिल्या होल्कर, महाराजा रणजीत सिंह माध्यम बने और काशी यथावत बसी रही। उसका पुनरोद्धार होता रहा। वह सिंगार धारण करती रही। काशी का कण-कण, कोना-कोना, रेशा-रेशा और सांस-सांस शिव-शंभु के हैं। उपनिषदों से महाभारत तक में काशी के अमरत्व का उल्लेख है। काशी प्राणी मात्र का मोक्ष-धाम है। दरअसल यह अखंड भारत की आध्यात्मिक राजधानी है। लाखों विदेशी पर्यटक आते हैं, सिर्फ काशी की आध्यात्मिकता का एहसास करने। देश में अनेक मंदिरों, मठों, आस्था-केंद्रों के पुनरोद्धार होते आए हैं। महादेव भी विध्वंस नहीं, निर्माण के भगवान हैं। शिव ने विश्व का विध्वंस नहीं, निर्माण ही किया है। शिव के साथ काशी में ब्रह्मांड के भगवान, संपूर्ण देवत्व और कल्याण-स्वरूप शैवत्व भी है, लिहाजा जैन धर्म के चार तीर्थंकरों का जुड़ाव, आदि शंकराचार्य की ज्ञान-प्राप्ति, महात्मा बुद्ध से लेकर संत कबीर और संत रविदास के संबंध भी काशी के साथ हैं।
आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रो. रामचंद्र शुक्ल आदि सृजनकर्ता भी काशी ने ही दिए हैं। यह वैविध्य ही काशी की परंपरा है। प्रेम की परंपरा के साथ मौत का मंगल भी काशी का प्रतीक-रूप है। आलेख के लेखक ने दो बार काशी का प्रवास किया है। संकरी गलियों, ऊबड़-खाबड़ रास्तों में बसी काशी भी देखी है। काशी विश्वनाथ मंदिर एक संकरी गली में था। दर्शन और पूजा-पाठ करने में भक्तों को परेशानी होती थी। काशी या बनारस में रिक्शे पर घूमना बेहद मुश्किल था। शहर और मां गंगा के घाटों पर गंदगी के ढेर होते थे। शायद ये स्थितियां इसलिए थीं, क्योंकि बाबा भोलेनाथ काशी का परिसंस्कार कराना चाहते थे। एक आधुनिक 'भगीरथ' की तलाश में थे। इतिहास में ऐसा सर्वप्रथम अवसर एक लोकतांत्रिक, निर्वाचित प्रधानमंत्री के हिस्से आया है। राजनीति भी एक भाव, दर्शन और दायित्व है। महादेव ने काशी के श्रृंगार का दायित्व प्रधानमंत्री मोदी को सौंपा था। बेशक प्रधानमंत्री भी कई विरोधाभासों, आलोचनाओं, कमियों और दुखद अध्यायों से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन वह नव-निर्माण के 'विश्वकर्मा' हैं। उन्होंने ऐतिहासिक निर्माण-कार्य रिकॉर्ड समय में सम्पन्न कराए हैं। अभी तो अयोध्या के भव्य प्रभु राम मंदिर के साकार होने का इंतज़ार है। काशी में नव-निर्माण करा सनातन, वैदिक आध्यात्मिकता को जि़ंदा और प्रासंगिक किया गया है। काशी में माथा टेकोगे, तो वह प्रणाम कश्मीर के अमरनाथ, दक्षिण के रामेश्वरम, गुजरात के सोमनाथ और नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर तक जाएगा। प्राणी के हिस्से एक बार में ही इतने पुण्य आएंगे।

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