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धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने का सबसे खराब तरीका हिंदू या मुस्लिम पक्ष में पक्षपाती और पूर्वाग्रह से ग्रसित होना है।
मुस्लिम विरोधी घृणा की लहर उफान पर है, जिसे जानबूझकर संघ परिवार की वैचारिक पारिस्थितिकी ने पैदा किया है। परेशान करने वाली बात यह है कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग इससे प्रभावित है। इस ज्वार को रोका जाना चाहिए और उलट दिया जाना चाहिए। हालांकि, यह तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक कि धर्मनिरपेक्ष ताकतें और मुस्लिम नेता इस्लामी पक्ष की ऐतिहासिक और समकालीन गलतियों पर चुप रहने की अपनी गंभीर गलती सुधार नहीं लेते। हाल की एक घटना ने मुझे इस बारे में सोचने को विवश किया।
21 अप्रैल को नौवें सिख गुरु तेग बहादुर की चार सौवीं जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से देश को संबोधित किया। यह मौका कुछ मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए सांप्रदायिक उत्पीड़न का जिक्र करने का था। जैसा कि सब जानते हैं, 1675 में मुगल बादशाह औरंगजेब के हुक्म पर दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर का सिर उसी तरह से कलम कर दिया गया था, जिस तरह की बर्बरता के लिए आज आईएसआईएस कुख्यात है। कत्ल किए जाने से पहले औरंगजेब ने गुरु को दो विकल्प दिए थे- या तो वह इस्लाम को अपना लें या मौत को। गुरु तेग बहादुर ने मौत चुनी।
मुगल शासन के दौरान असहिष्णुता और हिंसा की यह कोई अकेली घटना नहीं थी। पांचवें सिख गुरु अर्जन देव को बादशाह जहांगीर के आदेश पर 1606 में इसलिए मार दिया गया, क्योंकि वह धार्मिक सहिष्णुता और बहुलतावाद के घोर समर्थक थे। औरंगजेब ने 1659 में अपने भाई दारा शिकोह का उसके भयभीत बेटे के सामने कत्ल करने का आदेश दिया था। औरंगजेब इस बात से नाराज था कि उसका भाई इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच सद्भाव की बात कर रहा था। भारतीय इतिहास की ऐसी धार्मिक कट्टरता को भुलाना नहीं चाहिए; इसके बजाय इनसे सबक सीखने की जरूरत है।
हालांकि अनेक सेक्यूलरवादी लोगों के ट्विटर पर कमेंट देखकर हैरत के साथ चिंता भी होती है। वे पूछ रहे हैं, 'आखिर मोदी चार सदी पहले जो कुछ हुआ, उसे आज क्यों कुरेद रहे हैं?' ऐसे ही सवाल मध्ययुगीन या आज, भारत या दुनिया में और कहीं, कट्टरतावादी मुस्लिमों द्वारा की गई बर्बरता और अन्याय को लेकर होने वाली बहस में अधिकांश सेक्यूलरवादियों द्वारा किए जाते हैं। मोदी ने संभव है कि गुरु तेग बहादुर की जयंती के मौके का इस्तेमाल अपने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया हो, लेकिन तथ्य यह है कि ऐसे बर्बर कृत्य सिखों और हिंदुओं की स्मृतियों में गहरे तक समाए हुए हैं। अतीत में किए गए जघन्य अपराध समुदायों की सामूहिक स्मृतियों में जगह बना ही लेते हैं। इन्हें ईमानदारी से किए गए आत्मनिरीक्षण, संवाद और परस्पर समन्वय से दूर करने की आवश्यकता है।
सेकुलरवादी आम तौर पर हिंदू सांप्रदायिकता को लेकर काफी मुखर होते हैं, निश्चय ही इसका विरोध होना चाहिए। लेकिन वे अक्सर मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए अपराधों से या तो इनकार करते हैं या फिर उन्हें कम बताने की कोशिश करते हैं। यदि अफगानिस्तान में तालिबान ने टेलीविजन के दौर में बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को, जिन्हें वे काफिरों की मूर्ति बताते थे, तोड़ने से परहेज नहीं किया, तो इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि मध्य युग में धार्मिक आधार पर मूर्तियां नहीं तोड़ी गई होंगी? पाकिस्तान में और कुछ हद तक बांग्लादेश में भी हिंदू अल्पसंख्यकों का जबरन धर्मांतरण किया जाता है और हिंदू लड़कियों की जबरन शादियां कराई जाती हैं। तब फिर कोई कैसे यह दावा कर सकता है कि कट्टर मुस्लिम शासकों के दौर में अतीत में ऐसा नहीं हुआ होगा?
भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान सभी नागरिकों को, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। इसके उलट अनेक मुस्लिम देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को समान अधिकार से इनकार किया जाता है और सेक्यूलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) शब्द को अपने आपमें इस्लाम विरोधी माना जाता है। इन भेदभाव को लेकर मुस्लिम विद्वान और गैर मुस्लिम सेक्यूलर कड़ाई से सवाल नहीं उठाते।
जब मोदी सरकार ने 2019 में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक कानून पेश किया, तो न केवल हिंदुओं ने बल्कि मुस्लिम महिलाओं के एक वर्ग ने भी इसका स्वागत किया। मैंने उत्तर प्रदेश के दोस्तों से सुना है कि तीन तलाक के खिलाफ कानून के समर्थन के कारण मुस्लिम महिलाओं ने हाल के विधानसभा चुनावों में बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया। इसके विपरीत, 1980 के दशक में राजीव गांधी की धर्मनिरपेक्ष सरकार ने शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने समर्पण कर दिया था और गुजारा भत्ता मांगने वाली एक विधवा मुस्लिम महिला को न्याय प्रदान करने में विफल रही। राजीव गांधी का आत्मसमर्पण भारत के राजनीतिक इतिहास में एक प्रमुख मोड़ बन गया, जिससे भाजपा के उदय में बहुत मदद मिली।
धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का एक बुनियादी सिद्धांत है, और इसलिए इसका बचाव किया जाना चाहिए। इसके बिना, भारत की राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सामाजिक सद्भाव गंभीर रूप से खतरे में पड़ जाएगा। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने का सबसे खराब तरीका हिंदू या मुस्लिम पक्ष में पक्षपाती और पूर्वाग्रह से ग्रसित होना है।
सोर्स: अमर उजाला
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