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सोने-चांदी के मेडलों से परे ओलिंपिक ने सिखाए जो इंसानियत के सबक
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| मनीषा पांडेय |अगर कहें कि हर चार साल में होने वाला ओलिंपिक खिलाडि़यों और खेल प्रेमियों के दिल की धड़कन है तो ये बात न फिल्मी होगी, न अतिशयोक्ति. इस थ्रिल को सिर्फ वही महसूस कर सकते हैं तो आधी रात में, तड़के सुबह दिल की धड़कनें थाम स्क्रीन पर नजरें गड़ाए खेल को देख रहे हैं या फिर वो जो सुबह का अखबार आगे से नहीं, बल्कि पीछे से पढ़ना शुरू करते हैं, जहां खेल से जुड़ी खबरें होती हैं.
जिन्हें स्पोर्ट्स की एबीसीडी भी नहीं पता, जैसेकि मैं, वो भी स्पोर्ट भले न समझें, लेकिन उसकी थ्रिल, बेचैनी, घबराहट, तनाव, लगन और खुशी को समझते हैं, जो ठीक उस क्षण में महसूस हो रही होती है, जब कोई हार या जीत से बस बाल भर के फासले पर होता है. जब वह खेल के मैदान में अपनी समूची देह और आत्मा से खुद को न्यौछावर कर देता है, जब सिर्फ एक क्षण जीवन का सबसे निर्णायक क्षण होता है और उस एक क्षण में लिया गया फैसला आगे के पूरे जीवन पर असर डालने वाला होता है. मैं खेल नहीं जानती, लेकिन उस क्षण को जानती हूं. उस थ्रिल को, उस खुशी को, उस एक क्षण की निर्णायकता को.
ये तो बात हुई खेल की, लेकिन खेल से परे ओलिंपिक में ऐसा बहुत कुछ है, जो जीवन की उस किताब की तरह है, जिसे पढ़कर हम थोड़ा बेहतर हो सकते हैं. उन कहानियों की तरह, जो बचपन में सुनी थीं और जिंदगी भर हमारे साथ रहीं. जीवन के उस जरूरी सबकों की तरह, जो हमारे मन और आत्मा की सबसे गहरी तहों को कब छूकर चले आते हैं, हम खुद भी पता नहीं चलता. कोई एक क्षण, दोस्ती का, प्यार का, करुणा का, दया का, सहयोग का, आत्मीयता का, खेल भावना का, आदर का सिर्फ एक क्षण पूरे जीवन के लिए निर्णायक सबक हो सकता है.
रवि दहिया ने मेडल वाला दांव लगाकर बढ़ाया भारत का मान
जब कोई हारने वाला खिलाड़ी जीते हुए के लिए तालियां बजा रहा होता है, जब वो आपस में मेडल बांट साझा कर रहा होता है, जब वो दुख और गुस्से के किसी क्षण में अपना आपा नहीं खोता, जब कोई जीतकर भी हारे हुए के लिए भावुक होता है, जब कोई मदद का हाथ बढ़ाता है, जब कोई जीत से ऊपर इंसानियत को चुनता है.
इस साल 23 जुलाई से जापान की राजधानी टोक्यो में शुरू हुए ओलिंपिक खेलों में ऐसे कई क्षण आए जो जीत-हार और मेडल से परे इंसानियत का , करुणा का, आपसी आदर और सहयोग का संदेश लिए हुए थे. टीवी पर उन्हें देखकर पूरी दुनिया भावुक हुई. लोगों की आंखें भर आईं. सीखने वालों ने उससे सबक भी सीखा. मानवता का संदेश भी.
जब कतर के एथलीट मुताज एस्सा बारशिम ने अपने प्रतिद्वंद्वी एथलीट के चोटिल होने पर अपना नाम वापस लिया तो वो न सिर्फ खेल में, बल्कि जिंदगी में भी जीत गए. जब भारतीय एथलीट रवि दहिया की बांहों में प्रतिद्वंद्वी कजाख पहलवान ने अपने दांत गड़ा रखे थे और उन्होंने उस क्षण में अपार धैर्य बरतते हुए अपना आपा नहीं खोया तो उन्होंने सिर्फ वो खेल नहीं जीता, उन्होंने दिल भी जीत लिया. रवि दहिया ने वो धैर्य दिखाया था, जो लंदन ओलिंपिक में सुशील कुमार के कान काटने पर दूसरा कजाख एथलीट नहीं दिखा पाया था. जो माइक टायसन के काट काटने पर इवेंडर होलीफेल्ड नहीं दिखा पाया था.
क्या इतना आसान होता है दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित खेलों में तकरीबन जीता हुआ गोल्ड मेडल छोड़ देना, जबकि इतिहास में हमेशा के लिए ये दर्ज हो जाएगा कि ये मेडल बारशिम ने दूसरे एथलीट के साथ साझा किया है. किसी को ये नामुमकिन भी हो सकता है, लेकिन शायद उसके लिए नहीं, जिसके लिए इंसानियत गोल्ड मेडल से बड़ी है.
कतर के एथलीट मुताज एस्सा बारशिम और इटली के गियानमार्को तांबेरी
टोक्यो ओलिंपिक में पुरुषों के हाई जंप इवेंट में कतर के एथलीट मुताज एस्सा बारशिम और इटली के गियानमार्को तांबेरी आमने-सामने थे. दोनों खेल के कई चरणों को पारकर और बाकी एथलीटों को हराकर फाइनल में पहुंच चुके थे. अब यहीं फैसला होना था कि गोल्ड मेडल कतर को मिलेगा या फिर इटली को. हाई जंप शुरू हुई. बारशिम और तांबेरी दोनों ने 2.37 मीटर की छलांग लगाई. दोनों बराबरी पर रहे. अब हार-जीत का फैसला कैसे हो. अधिकारियों ने कहा कि दोनों तीन-तीन बार और छलांग लगाएं. तब जिसका परफॉर्मेंस बेहतर होगा, उस आधार पर फैसला किया जाएगा. दोनों ने फिर छलांग लगाई, लेकिन ये क्या इस बार भी दोनों में से कोई 2.37 मीटर से आगे नहीं जा पाया. इस बार भी दोनों एकदम बराबरी पर थे. अब उन्हें एक बार फिर एक-एक ऊंची छलांग लगाने को कहा गया, लेकिन ऐसा होता, इससे पहले ही गियानमार्को तांबेरी ने अपना नाम वापस ले लिया. उनके पैर में चोट लग गई थी, जिसके कारण अब वो छलांग लगाने में खुद को असमर्थ पा रहे थे.
जब एक एथलीट ने नाम वापस लिया तो जाहिर है एक और ऊंची छलांग और गोल्ड मेडल बारशिम का. लेकिन बारशिम ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने हाथ आए इस सुनहरे मौके को इतनी आसानी से जाने दिया कि देखने वाले भी हैरान रह गए. एक चोटिल खिलाड़ी की चोट के बिना पर खुद के लिए मेडल ले लेना बारशिम को गवारा न हुआ. वो अधिकारियों के पास गए और पूछा, अगर मैं भी अपना नाम वापस ले लूं तो क्या होगा. जाहिर है, अधिकारियों का जवाब था कि फिर तो हमें आप दोनों को गोल्ड मेडल देना होगा.
बारशिम ने अपना नाम वापस ले लिया. गोल्ड मेडल मुताज एस्सा बारशिम और गियानमार्को तांबेरी के साथ साझा किया गया और इस तरह बारशिम ने इतिहास लिख लिया. उन्होंने बिना कुछ कहे ये कह दिया कि इंसानियत और करुणा से बड़ा संसार का कोई मेडल, कोई जीत नहीं है. खेल का मकसद और उसका संदेश भी यही है कि हम एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करें और आगे बढ़ने की कोशिश भी करें, खुद को लगातार मांजने, बेहतर बनाने की कोशिश, लेकिन सबकुछ के अंत में जो बचा रहता है, वो ये करुणा, बराबरी, मनुष्यता, आपसी सहयोग और आदर ही है.
कतर के एथलीट मुताज एस्सा बारशिम और इटली के गियानमार्को तांबेरी गोल्ड मेडल जीतने के बाद
इस संदर्भ में मुझे कई दशक पुरानी हैदराबाद की एक घटना याद आती है. हैदराबाद के एक स्टेडियम में बच्चों का रनिंग कॉम्पटीशन हो रहा था. वो बच्चे एक ऐसे इंस्टीट्यूशन से थे, जो मेंटली चैलेंज्ड बच्चों के लिए था. उस दिन उस स्टेडियम में जितने बच्चे दौड़ रहे थे, वे किसी न किसी प्रकार के मानसिक चैलेंज से गुजर रहे थे. स्टेडियम उन बच्चों के पैरेंट्स, टीचर्स और आम लोगों से भरा हुआ था. रेफरी ने सीटी बजाई और बच्चों ने दौड़ना शुरू कर दिया. तभी दौड़ते हुए एक बच्ची गिर गई और उसके घुटने छिल गए. उसके रोने की आवाज सुनकर बाकी दौड़ते हुए बच्चे अचानक रुक और उन्होंने पीछे मुड़कर देखा. बच्ची खड़ी होकर रो रही थी. उसके घुटनों से खून बह रहा था. फिर क्या था, बाकी बच्चे दौड़ना छोड़कर उस बच्ची के पास लौट आए. उन्हें ये भी याद नहीं रहा कि ये प्रतिस्पर्द्धा हो रही है, अभी किसी भी कीमत पर सबकुछ भुलाकर उन्हें बस दौड़ना है और फर्स्ट आना है. वे बच्ची के पास आए, उसे कंधों का सहारा दिया और फिर सारे बच्चे एक साथ उस बच्ची को लेकर धीमे कदमों से चलते हुए रेस के आखिरी पॉइंट तक पहुंचे.
ये दृश्य देखकर खुद रेफरी की आंखों में आंसू आ गए. पूरा स्टेडियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. लोग अभिभूत थे, इन बच्चों की मनुष्यता, उनकी करुणा, आपसी सहयोग की भावना पर. वो बच्चे, जो बाहर की समझदार दुनिया के लिए मंदबुद्धि थे. उनके दिमाग का तो पता नहीं, लेकिन दिल उनके बिलकुल सही जगह पर थे.
कुछ ऐसा ही महसूस हुआ उस दिन बारशिम को देखकर. दिमाग का पता नहीं, लेकिन दिल उनका सही जगह पर था
ऐसे ही रवि दहिया ने उस दिन रिंग में बिना विचलित हुए, बिना आपा खोए जिस असीमित धैर्य का परिचय दिया, वो खेल देख रहे सब लोगों के लिए जिंदगी का सबक है. कुछ भी हो जाए, चाहे कितनी भी तकलीफ और मुश्किल आ जाए, धीरज नहीं खोना चाहिए. और दुनिया का हर खेल अंत में साहस और ताकत के साथ-साथ अपार धीरज भी मांगता है, जिसका परिचय उस दिन रवि दहिया ने दिया.
उस दिन रवि पुरुषों की फ्रीस्टाइल कुश्ती के 57 किलोग्राम वर्ग में खेलते हुए रिंग में एक कजाख पहलवान नूरिस्लाम सनायेव के सामने थे. मुकाबला जब एक बेहद निर्णायक मोड़ पर पहुंच रहा था. सनायेव के कंधे बस जमीन पर छूने ही वाले थे. लेकिन तभी सनायेव ने रवि की बांह में बहुत तेजी से अपने दांत गड़ा दिए. उन दांतों की पकड़ इतनी नुकीली थी कि बाद में रवि की बांह का एक टुकड़ा जमीन पर गिर गया. रवि को उस क्षण में कितनी असह्य पीड़ा हुई होगी, इसका सिर्फ अनुमान ही किया जा सकता है. लेकिन मजाल है जो वो टस से मस हो गए हों. उन्होंने अपनी पूरी ताकत से सनायेव को दबाए रखा. दर्द सहते रहे, लेकिन उस क्षण में अपार धीरज का परिचय देते हुए अपना आपा नहीं खोया. आखिरकार वो जीत गए. अगर रवि उस वक्त हार मान लेते, बिलबिला जाते, दर्द से पीछे हट जाते तो भी कहानी गलत नहीं होती, लेकिन वो नहीं होती, जो अभी है. रवि दहिया को अब हम सिर्फ इसलिए नहीं याद रखेंगे क्योंकि उन्होंने ओलिंपिक में मेडल जीता, हम इसलिए भी याद रखेंगे कि कैसे वो हार के बेहद करीब पहुंचकर सिर्फ अपने आंतरिक बल और आत्मा की सहनशक्ति के बूते वापस लौट आए और खेल की बाजी पलट दी.
हमें हर उस एथलीट पर गर्व है, जिसने टोक्यो ओलिंपिक में मेडल अपने नाम किया, लेकिन मेडल और जीत की इन कहानियों से परे इतिहास में सदा के लिए दर्ज वही होगा, जिसने महान मानवीय गुणों को मेडल से ऊपर माना.