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- चीन से सावधान: सन बासठ...
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1962 का सबसे बड़ा सबक यह है कि अरमान और औकात के बीच संतुलन बिगड़ने के नतीजे तकलीफदेह होते हैं।
व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र-राज्य अगर अपने मानमर्दन को भूल जाएं, गतिशीलता का मार्ग छोड़कर प्रतिगामी दिशा में जाने लगें, व्यापक सरोकारों की जगह संकीर्ण स्वार्थों से आलिंगनबद्ध रहने लगें और इतिहास से सही सीख लेने की जगह दुराग्रह निर्णायक होने लगे, तो पतन की आशंका बढ़ने लगती है। संदर्भ बिंदु है 1962 का राष्ट्रीय अपमान। प्रधानमंत्री होने के नाते जवाहरलाल नेहरू की सबसे ज्यादा जवाबदेही थी और वह इतिहास के कटघरे में हमेशा खड़े रहेंगे। अगर इस बात को यहीं छोड़ दिया जाए, तो वह इतिहास का अति सरलीकरण हो जाएगा। आखिर, नेहरू के सहयोगी कोई छोटे-मोटे लोग नहीं थे। सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों जैसे कई मुद्दों पर नेहरू लगातार वीटो किए गए। कांग्रेस कार्य समिति में बहुमत उनके विरोधियों का था।
मंत्रिपरिषद का गठन भी जी-हुजूरी के आधार पर नहीं होता था। चीन पर कितनी बार कैबिनेट की बैठकें हुईं, उनमें किसने क्या कहा, ये सब जानने के लिए तमाम दस्तावेज अवर्गीकृत करने होंगे। 15 अगस्त, 1947 के बाद की कुछ घटनाओं पर गौर करना जरूरी है। 16 अक्तूबर, 1947 को तिब्बत सरकार की ओर से नेहरू को एक पत्र मिला। इसमें मांग की गई कि अंग्रेजों ने तिब्बत के जिन हिस्सों को धीरे-धीरे हड़पा, भारत अब उन्हें वापस करे। इनमें खास थे, सिक्किम, भूटान, दार्जिलिंग, लद्दाख और अन्य इलाके। ल्हासा में भारतीय प्रतिनिधि ने तिब्बत सरकार को साफ बता दिया था कि मैकमोहन लाइन के अनुसार, तिब्बत के किसी भी भू-भाग पर भारत का कब्जा नहीं है।
इससे पहले चीन की चियांग काई शेक सरकार मैकमोहन लाइन और उसे तय करने वाले शिमला समझौते को खारिज कर चुकी थी। चियांग सरकार ने भारत के बड़े क्षेत्र पर भी दावा किया। 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद माओत्से तुंग की सरकार ने इन दावों को दोहराया। यहां यह उल्लेख आवश्यक हो जाता है कि 1914 में ही चीन ने शिमला समझौते पर अंतिम औपचारिक स्वीकृति देने से इनकार कर दिया था। सामान्य कूटनीतिक व्यवहार का तकाजा यह था कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार के साथ सीमा निर्धारण के लिए बातचीत की जाती। उसकी नौबत ही नहीं आई। चीन कोरिया युद्ध में फंस गया और नेहरू सरकार शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में। इसी दौरान अक्साई चिन में चीन की सैनिक गतिविधियों की भनक मिलने लगी थी।
1952 में ब्रिटिश प्रेस में खबर आई कि चीन मुस्लिम बहुल सिंकियांग और बौद्ध बहुल तिब्बत में संपर्क स्थापित करने के लिए अक्साई चिन में सड़क का निर्माण कर रहा है। लंदन में भारतीय उच्चायोग ने भी इन खबरों का नोटिस लिया होगा। लंदन से नई दिल्ली को क्या सूचना भेजी गई, उस पर कैबिनेट में विचार हुआ या नहीं या फिर विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी उसे दाबकर बैठ गए-ये जानकारियां सार्वजनिक संज्ञान में नहीं हैं। 1957 में सिंकियांग-तिब्बत सड़क के निर्माण की बाकायदा पुष्टि हो गई। इसके बाद भारतीय प्रेस, संसद और जनता में भड़की भावनाओं ने तर्कपूर्ण सीमा वार्ता असंभव बना दिया। नेहरू के हाथ-पैर बंध चुके थे।
नेहरू की लाचारी सामने आने लगी थी। लेकिन क्या वह हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहे? पूर्व विदेश सचिव महराज कृष्ण रसगोत्रा ने अपनी किताब अ लाइफ इन डिप्लोमसी में लिखा कि नेहरू ने दो बार अपने दूतों को तिब्बत भेजकर सुझाव दिया कि उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए अर्जी देनी चाहिए, क्योंकि उससे उसकी संप्रभुता स्थापित हो जाएगी। पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव ने हाल में आई अपनी पुस्तक द फ्रैक्चर्ड हिमालय में लिखा है कि रसगोत्रा के कथन का अन्यत्र रिकॉर्ड नहीं मिलता; हो सकता है, नेहरू ने विदेश विभाग को विश्वास में न लिया हो।
लेकिन तिब्बत मूल के विद्वान और जेएनयू में पूर्व प्रोफेसर दावा नोरबू के अनुसार, 1949 में ले.ज. जोरावर सिंह को बौद्ध भिक्षु के रूप में तिब्बत भेजा गया था। जाहिर है,तिब्बत सरकार ने इस प्रस्ताव में रुचि नहीं ली। भारत सरकार के इतिहास विभाग में वरिष्ठ पद से रिटायर अवतार सिंह भसीन नेहरू तिब्बत ऐंड चाइना में लिखते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के अंत में तिब्बत ने अगर लीग ऑफ नेशंस या बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता ले ली होती, तो शायद कम्युनिस्टों ने जो उसका हाल किया, उससे बच जाता।
1957 में नेहरू को झाड़ पर चढ़ने के लिए ऐसा मजबूर किया गया कि 1962 तक उतर ही नहीं पाए। अक्साई चिन मार्ग पर जब बमबारी की मांग की जा रही थी, तब या उसके बाद चीन से भिड़ने की ताकत थी? ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एबी केनेडी द इंटरनेशनल एम्बिशंस ऑफ माओ ऐंड नेहरू में लिखते हैं कि कोरिया युद्ध के समय अमेरिका का सकल राष्ट्रीय उत्पाद सोवियत संघ और चीन के संयुक्त उत्पाद से दोगुना था। फिर भी चीन ने उत्तरी कोरिया के पक्ष में सैनिक उतार दिए थे। कम्युनिस्ट क्रांति के समय चीन के पास तीस लाख की फौज थी। विभाजन के समय सेना और हथियारों के बंटवारे के बाद भारत के पास साढ़े तीन लाख सैनिक थे।
चीनी सेना के अफसरों और कम्युनिस्ट नेताओं के फौजी तजुर्बे के आगे भी भारत बहुत हल्का था। कश्मीर युद्ध में हुई हथियारों की क्षति की भरपाई भी ठीक से नहीं हो पाई थी। अखबारों, सार्वजनिक सभाओं, संसद और उसके बाहर चीन को अक्साई चिन से खदेड़ देने की गूंजती आवाजों के बीच आर्मी चीफ जनरल के.एस. थिमैया ने स्पष्ट कर दिया था कि अक्साई चिन सामरिक रूप से भार है और वास्तविक मैकमोहन लाइन की सैनिक रक्षा नहीं की जा सकती। 1962 के प्रारंभ में सेनाध्यक्ष पी.एन. थापर ने प्रधानमंत्री को साफ बता दिया था कि धोला के पास चीनी सेना पर हमले के गंभीर परिणाम होंगे। गौरतलब है, सेना ने सरकार को खुश करने वाली घोषणाएं नहीं कीं। 1959 में चीन ने दो मोर्चों पर युद्ध की बात कही थी। आज वह भयावह संभावना है। 1962 का सबसे बड़ा सबक यह है कि अरमान और औकात के बीच संतुलन बिगड़ने के नतीजे तकलीफदेह होते हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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