सम्पादकीय

शिखर और खाई के बीच

Rani Sahu
29 Sep 2021 7:03 PM GMT
शिखर और खाई के बीच
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हिमाचल में उपचुनावों के दामन पर चस्पां किंतु-परंतु और राजनीतिक खेत में उगती तहरीरों का जंगल

हिमाचल में उपचुनावों के दामन पर चस्पां किंतु-परंतु और राजनीतिक खेत में उगती तहरीरों का जंगल, क्या मतदाता के सामने कोई विकल्प रख पाएगा। जुब्बल-कोटखाई, बालीचौकी तथा निरमंड में चार एसडीएम उतारने की सुखद अनुभूति में जीत के तिनके बटोरने का संकल्प और विरोध की वेशभूषा में विपक्ष की ओर से चुनावों की तीमारदारी का अनूठा संगम। ऐसे में उपचुनावों को नजदीक से देखने के लिए सियासी चश्में तो हर विधानसभा क्षेत्र में अलग-अलग रंगों में होंगे, लेकिन विपक्ष को यह चुनने का अधिकार है कि वह सदन के बाहर अपनी रस्सी पर सत्ता को चलाए या अपने मुद्दों पर जोर आजमाइश करवा पाए। उपचुनावों का विधानसभा चुनावों से एक साल पूर्व होना खासी अहमियत रखता है और इस लिहाज से मुद्दों में ताजगी व उन्हें अगले वर्ष तक जिंदा रखना कांग्रेस की मजबूरी है। जाहिर है आगामी विधानसभा के लिए तैयार हो रहे मुद्दे, इन उपचुनावों में जाया नहीं होंगे, इसलिए पार्टियों से कहीं अधिक उम्मीदवार लड़ाए जाएंगे। ऐसे में उम्मीदवारों पर टिका दारोमदार पुश्तैनी सियासत को हवा देगा और कहीं बस्तियों का हिसाब स्थानीय विषयों पर हो सकता है। सरकार अपनी आलोचना से कैसे बचती है या यह कैसे साबित करती है कि उसकी सरपरस्ती में चुनावी विधानसभाओं तथा मंडी लोकसभा क्षेत्र किस तरह लाभान्वित हुए।

सिरदर्द यह भी कि केवल हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को छोड़कर बाकी तीनों किसी न किसी तरह उपचुनावों की भट्ठी पर गर्म होंगे। इस हिसाब से क्षेत्रीय संवेदना के राजनीतिक अर्थ ही महफिल सजाएंगे। कांग्रेस के लिए यह शोध का विषय है कि वह किस तरह सरकार की खामियों का ठीकरा इन उपचुनावों में फोड़ती है। सरकार बनाम विपक्ष के चुनाव में सत्ता के खिलाफ परंपरागत, औपचारिक या स्थानीय मुद्दों के बीच कांग्रेस की वचनबद्धता के राष्ट्रीय प्रमाण भी देखे जाएंगे। राष्ट्रीय स्तर पर अस्तित्व की जंग लड़ रही कांग्रेस के लिए अगले वर्ष की शुरुआत में ही उत्तर प्रदेश समेत उत्तराखंड व पंजाब जैसे राज्यों के चुनावों की तैयारी का ट्रेलर पार्टी दिखा पाती है, तो ये छवि को परिमार्जित कर सकते हैं। हिमाचल के पड़ोस में पंजाब में बतौर सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस का नकाब उठ चुका है। वहां के संदेश कांग्रेस को भले ही सशक्त दावेदार से संशय के मझधार में पहुंचाते हुए दिखाई दे रहे हों, लेकिन कार्रवाइयों का यह दौर पार्टी में अनुशासन की तामील सरीखा है। कांग्रेस कितनी स्पष्टता से इन उपचुनावों को लेती है या भाजपा कितनी स्पष्टता से सरकार और सुशासन का वक्तव्य दे पाती है, इसके ऊपर मुद्दों से लेकर परिणामों तक की सेज सजेगी। सत्ता के अंतिम वर्ष में विपक्ष की हर आलोचना मुद्दों की जुबान बन जाती है और इस तरह प्रादेशिक उम्मीदों में कर्मचारी, बेरोजगार, निजी क्षेत्र के हकदार तथा क्षेत्रीय संगती व विसंगतियां मुंहबाए खड़ी हो सकती हंै।
उपचुनाव की सफेद चादर के नीचे सो गए जेसीसी बैठक के निमंत्रण पत्र, मन मसोस कर बैठ जाएंगे या कोविड की खरोंच में उभरे आर्थिक सन्नाटे चुपचाप कब्र में बैठे रहेंगे, कहा नहीं जा सकता। इससे पूर्व हिमाचल के दो उपचुनावों, चार नए नगर निगमों तथा अन्य स्थानीय निकाय चुनावों में कुशल पारी खेल चुके मुख्यमंत्री के लिए यह परीक्षा उनके अपने ग्राफ के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। खासतौर पर मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव सीधे-सीधे मुख्यमंत्री के स्वाभिमान का प्रश्न पैदा करता है। वहां मुद्दों से बड़ी विरासत और सत्ता से बड़ी सियासत का खेल होने जा रहा है। प्रतिभा सिंह के आने से चुनाव के हर कक्ष में बहस का मसौदा वीरभद्र सिंह बनाम जयराम ठाकुर हो सकता है। मंडी संसदीय क्षेत्र की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति के कई क्षेत्रवाद हैं। यहां कई कबाइली मसले हैं, तो कई जातीय समीकरण भी। यहां शिमला से भरमौर तक अगर शिखर हैं, तो खाइयां भी। अतः यह उपचुनाव शिखर और खाई के बीच मंडी को आवाज दे रहा है, तो अन्य तीन विधानसभाई क्षेत्रों में भी सत्ता की प्रतिध्वनि में जनता क्या सुनती है, यह परिणामों का आदेश ही माना जाएगा। उपचुनावों की घोषणा के साथ शिमला में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता अल्का लांबा ने जिस तरह नशे के खिलाफ हल्ला बोला है तथा बेरोजगारी की बढ़ती व्यथा पर आक्रोश जताते हुए भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को कोसा है, उससे राष्ट्रीय मुद्दों की परख में ये उपचुनाव भी रंगने वाले प्रतीत होते हैं।

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