सम्पादकीय

पानी की बेहतर उपस्थिति ही है हमारे प्रबंधन का सबसे बड़ा आधार

Gulabi Jagat
22 March 2022 8:44 AM GMT
पानी की बेहतर उपस्थिति ही है हमारे प्रबंधन का सबसे बड़ा आधार
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आज पानी को हम दो ही रूप में देख रहे हैं एक जब सूखा पड़ता है और इसको लेकर देशभर में हो-हल्ला मचता है
डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी का कॉलम:
आज पानी को हम दो ही रूप में देख रहे हैं एक जब सूखा पड़ता है और इसको लेकर देशभर में हो-हल्ला मचता है और दूसरा फिर जब देश बाढ़ की चपेट में आता है। ये दो ही पानी के सबसे बड़े पहलू हैं, जिन्हें आज हम सब भुगत रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि ये दोनों ही हमारे प्रबंधन के अभाव के कारण है। क्योंकि अगर हम चार सौ साल पहले जाएं तो प्रकृति के प्रबंधन का लोहा मानना पड़ेगा।
निश्चित रूप से तब जनसंख्या कम रही होगी और खपत भी उतनी नहीं रही होगी, पर फिर भी प्रबंधन सटीक किस्म का था। पहली बड़ी बात यह है कि हमने पानी को लेकर प्रकृति के प्रबंधन की तरफ तवज्जो नहीं दिया, जिसने पानी हम तक पहुंचाया। हमने पहुंचे हुए पानी को ही अपने वर्तमान प्रबंधनों से बहुमंजिला इमारतों व उद्योगों में धकेल दिया।
हम यह बात नकार गए कि पानी की बहुतायत ही या पानी की बेहतर उपस्थिति ही हमारे प्रबंधन का सबसे बड़ा आधार है। हम जल वितरण पर इस तरह उतारू हो गए कि उपलब्धता दरकिनार कर दी। पानी की तंगी की बड़ी चर्चा के बाद भी देश भर में बनने वाले तमाम ढांचागत विकास में पानी की समझ व सोच नदारद रहती है। मसलन हम पहले बहुमंजिला इमारतें व उद्योग खड़ा करते हैं और पानी के लिए भूमिगत पानी हड़पना शुरू कर देते हैं।
यह नहीं समझ पाते कि हम एक सीमा तक ही भूमिगत पानी का उपयोग कर सकते हैं। देश में बारिश अथाह है। सिर्फ अंतर यह है कि हमने उसके दोहन के रास्तों को ना बनाया और ना ही समझा। उल्टा दूसरी तरफ तमाम जलाशयों को भी समाप्त कर दिया। कुओं की बात करें या हजारों से ज्यादा वर्षाजनित नदियों की, सब गंभीर हालत में हैं।
खासतौर से वर्षाजनित नदियों का घटता जल स्तर यही इशारा करता है कि हम कहीं प्रकृति के प्रबंधन को समझने में चूके हैं। इन नदियों के मरने का मतलब भूमिगत जलस्तर का घट जाना और साथ में कुंओं का सूखा पड़ जाना भी होता है। जहां एक तरफ हर तरह के जल भंडार हम खो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इनमें आने वाले पानी के रास्तों को भी तबाह कर दिया।
उदाहरण के लिए आज देश-दुनिया के जलागम (वाटरशेड) बहुत अच्छे स्तर पर नहीं कहे जा सकते। ऐसे में हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती वाटर बॉडीज़ को बेहतर बनाने की होनी चाहिए। ये सिर्फ प्रकृति के प्रति समझ से ही सम्भव होगा। प्रकृति ने ही तो हमें पानी परोसा और ये जलागम ही हैं, जिनसे नदियां बनती है और इनसे सब कुछ सींचा जाता है। आज जरूरी है कि अब पानी की बात सूखे व बाढ़ को जोड़कर करें।
सबसे बड़ा कदम पानी को जोड़ने का है। ये प्रकृति के ही माध्यम से ही सम्भव होंगे। पानी अब किसी सरकार का ही सवाल नहीं है यह सामूहिक चिंता का सवाल है। अब हमारे पास मात्र एक रास्ता बचा है वो ये कि हम किस तरह से अपने देश, राज्य व गांव में पानी को रिचार्ज करने के रास्ते खोजें और वो भी प्रकृति के माध्यम से। वैसे प्रकृति ने सब बताया-सिखाया है, पर हमने मुंह फेर रखा है।
जहां भी हम कालांतर में बसे या फिर आज बसे हैं, उनके पानी के स्रोत सब पुनर्जीवित हो सकते हैं बशर्ते हम प्रकृति को ना समझने की जिद छोड़ दें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम और प्रकृति दोनों ही प्रभु के उत्पाद हैं। किसी भी एक के भटक जाने से दूसरे पर प्रतिकूल असर पड़ना ही है।
1947 में चौबीस लाख तालाब थे, तब देश की जनसंख्या महज 36 करोड़ थी, आज तालाबों की संख्या घटकर पांच लाख रह गई है, जिसमें से 20 फीसदी तालाब बेकार पड़े हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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