- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- ज़कात के बेहतर प्रबंधन...
सम्पादकीय
ज़कात के बेहतर प्रबंधन से दूर हो सकती है मुसलमानों की गरीबी
Gulabi Jagat
28 April 2022 12:40 PM GMT

x
नेशनल कौंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के अध्ययन के मुताबिक शहरी इलाकों में हर 10 सें 3 मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे
कुछ लोग ग़लत तरीक़े से ग़रीब, यतीम बच्चों, विधवा औरतों और बेसहारा लोगों के हिस्से की ज़कात गलत तरीके से डकार जाते हैं. मैंने पिछले लेख में बताया था कि कैसे मुसलमानों की ज़कात सही जगह नहीं पहुंच रही. अब इस लेख में हम देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मुसलमानों के आर्थिक हालात समझने की कोशिश करेगें. साथ ही ये जानने की कोशिश करेंगे कि मुस्लिम समाज में कुछ लोग आगे बढ़कर ज़कात के बेहतर प्रबंधन से मुस्लिम समाज के ख़राब आर्थिक हालात को कैसे बदल सकते हैं.
कैसे हैं मुसलमानों के आर्थिक हालात?
सबसे पहले जानते हैं कि देश में मुसलमानों के आर्थिक हालात कैसे हैं? इससे ये समझने में मदद मिलेगी कि हालात सुधारने के लिए शुरुआत कहां से करनी है. देश की जनसंख्या के 2011 के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमान रोज़गार के मामले में देश के अन्य धार्मिक समुदायों के मुक़ाबले सबसे पीछे हैं. जहां 33 फीसदी मुसलमानों को ही रोज़गार मिला हुआ है. वहीं जैन और सिख समुदायों के 36 फीसदी लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. हिंदू समुदाय को 41 फीसदी और बौद्ध समुदाय के 43 फीसदी लोगों को रोजगार मिला हुआ है. नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के अध्ययन के मुताबिक़ प्रत्येक 4 में से एक मुसलमान ग़रीब है. देश के सभी धार्मिक समुदायों में मुसलमान सबसे ज्यादा ग़रीब हैं.
सबसे दयनीय स्थिति में है मुस्लिम समाज
नेशनल कौंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के अध्ययन के मुताबिक शहरी इलाकों में हर 10 सें 3 मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे हैं. उनकी औसत मासिक आमदनी 550 रुपए है. ग्रामीण इलाकों में हालात और भी बुरे हैं. हर पांचवा मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे औसतन 338 रुपए मासिक आमदनी पर गुज़र बसर कर रहा है.
देश की आबादी में छोटी आबादी वाला सिख जहां 53 रुपए रोज खर्च करता है वहीं मुसलमान महज़ 32.7 रुपए ही खर्च कर पाता है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफिस के मुताबिक 2009-10 में मुस्लिम समुदाय का प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च 980 रुपए था. जबकि सिख समुदाय का सबसे अधिक 1659 रुपए था. बाकी धार्मिक समुदायों का मासिक ख़र्च भी इसी के आस पास रहा.
मुस्लिस समुदाय में सबसे ज्यादा बाल मज़दूर
ये रिपोर्ट बताती है कि देश में मुस्लिम समुदाय ग़रीबी और आर्थिक तंगी के बेहद मुश्किल दौर से गुज़र रहा है. सर्वे के मुताबिक़ देश में एक औसत मुस्लिम परिवार की सालाना आमदनी 28,500 रुपए थी जो कि दलित और आदिवासियों के मुकाबले बस थोड़ी सी ही ज्यादा है. इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में ग़रीबी धीरे-धीरे कम हो रही है लेकिन अफसोस की बात है कि मुस्लिम समुदाय में ग़रीबी कम होने की रफ्तार बहुत धीमी है. 2004-05 के मुकाबले 2009-10 के सर्वे में जहां हिंदू समुदाय में जहां गरीबी 52 फीसदी की रफ्तार से कम हो हुई है. वहीं मुस्लिम समुदाय में इसकी रफ्तार सिर्फ 39 फीसदी है. तमाम सरकरी आंकडे बताते है कि ग़रीबी की वजह से पूरे मुस्लिम समुदाय के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. मुस्लिस समुदाय में सबसे ज्यादा 3 फीसदी बाल मज़दूर पाए जाते हैं. इस समुदाय के 6 से17 साल की उम्र के 28.8 फीसदी बच्चे स्कूल की मुंह तक नहीं देख पाते.
प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाई सच्चर कमेटी की सिफारिशें
दस साल पहले आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने देश में मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शौक्षिक हालत सुधारने के लिए 76 सिफारिशें की थी. इनमें से तात्कालीन यूपीए सरकार ने 2008 में 43 सिफारिशें मंजूर करते हुए देशभर में इन्हें लागू करने के लिए 3800 करोड़ रुपए का बजट दिया था. पहले इन सिफारिशों को देश के 90 मुस्लिम बहुल आबादी वाले ज़िलों में लागू करने के लिए मल्टी सेक्टोरियल डेवेलपमेंट प्लान (एमएसडीपी) तैयार किया गया. बाद में इसे ब्लॉक स्तर लागू कराने की कोशिश की गई. लेकिन ये सिफारिशें प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाईं. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का चालू वित्त वर्ष का 5020.50 करोड़ रुपए है. इसमें मंत्रालय देश के 6 अल्पसखंयक समुदायों के विकास के लिए काम करता है. इनमें ज्यादातर स्कूली छात्रों को मिलने वाले स्कॉलरशिप पर ही खर्च होता है. मुसलमानों के विकास के लिए सरकार के पास किसी भी मद में 1000 करोड़ रुपए से ज्यादा का बजट नहीं होगा.
ख़ुद अपने लिए क्या कर रहे हैं मुसलमान?
मुसलमान हर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के खिलाफ रोना रोते रहते रहते हैं कि वो उनके लिए कुछ नहीं कर रहीं. अब हम बात करते हैं मुसलमान ख़ुद अपने लिए क्या कर रहे हैं? मुस्लिम समाज में हर साल अल्लाह के नाम पर दिए जाने वाले हज़ारों करोड़ रुपए का दान निकलता है. अगर समाज में ग़रीबी जस की तस बनी हुई है तो सवाल पैसा हौता है कि अमीर मुसलमानों की तिजोरियों से ज़कात, ख़ैरात, फ़ितरे और सदक़े के नाम पर निकलने वाला हजारों करोंड़ रुपए का दान कहां जा रहा है? ये पैसा मुस्लिम समाज को आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रुप से मज़बूत बनाने के लिए क्यों इस्तेमाल नहीं हो पा रहा?
मुंबई में आल इंडिया कौंसिल ऑफ़ मुस्लसिम इकोनोमिक अपलिफ्टमेंट से जुड़े ड़ॉ. रहमतुल्ला के मुताबिक देश भर में हर साल क़रीब पचास हजार करोड़ रुपए की ज़कात निकलती है. लेकिन ज़कात की बड़ी रक़म ग़रीब मुसलमानों तक पहुंचने के बजाय ज़कात माफ़ियाओं के पेट में चली जाती है. ज़कात निकालने वाले अमीर मुसलमान खुश होते हैं कि उन्होंने ज़कात निकाल कर अपना फर्ज़ पूरा कर दिया. लेकिन हकीकत ये है कि देश भर में मदरसों से जुड़े लोग यतीम बच्चों के नाम ज़कात इकट्ठा करके ले जाते हैं. बाद में यतीमों के नाम इकट्ठा किया गया ये पैसा, यतीम बच्चों से अपने नाम करा कर उसे अपनी निजी संपत्ति में जोड़ लेते है.
रमज़ान की रौनक़ों के पीछे बदहाल मुसलमान
रमज़ान का महीना चल रहा है. मुसलमान बड़े पैमाने पर नमाज़ और रोज़ों की पबंदी कर रहे हैं. मस्जिदें आबाद हैं. नमाज़ियों से खचाखच भरी हुई हैं. देश में अमन सुकून के साथ ही गुनाहों की माफ़ी के साथ मुसलमानों के रोज़गार और तरक्क़ी की दुआएं मांगी जा रहीं हैं. मुस्लिम इलाक़ों में बाज़ारों की रौनक़ देखते ही बनती है. रमज़ान में इन इलाकों में लगभग रात भर ही बाज़ार खुलते हैं. ईद-उल-फ़ितर से पहले ये रौनक़ देख कर कभी-कभी शक होता है कि क्या यह वहीं कौम है जिसकी हालत को साल 2006 में सच्चर कमेटी ने दलितों से भी बदतर बताया था. दरअसल ये तस्वीर का एक रुख है. जितने मुसलमान रौनक़ का हिस्सा बनने और इससे आनंनदित होने के लिए बाज़ारों में दिखते हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने घरों में छिपे रहते हैं.इस उम्मीद के साथ कि काश कोई उनके हालात को देख कर ईद से पहले चुपके से उनकी आर्थिक मदद करने आ जाए.
कई जगह हुई अनूठी पहल
पिछले साल अहमदाबाद में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कुछ नौजवानों ने अपने इलाक़े के एक अस्पताल को आईसीयू बनाने के लिए 50 लाख रुपए का ज़कात फंड जुटाकर दिया. ज़कात के पैसे से बने आईसीयू में ग़रीब लोगों का फ्री इलाज होता है. ये अनोखी पहल थी. इसी तरह कोरोना की पहली लहर के दौरान महाराष्ट्र के महाराष्ट्र के इचलकरंजी शहर के मुसलमानों ने ज़कात के पैसे से एक अस्पताल को 10 बेड वाला आईसीयू वार्ड दान किया था. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ईद के दिन इंदिरा गांधी मेमोरियल सिविल अस्पताल के आईसीयू विभाग का उद्घाटन किया. ठाकरे ने मुसलमानों की इस पहल की दिल खोल कर तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि इचलकरंजी में मुस्लिम समुदाय ने आईसीयू यूनिट के लिए 36 लाख रुपये का दान देकर देश के सामने एक आदर्श उदाहरण पेश किया है. उन्होंने ये दिखाया है कि त्योहार कैसे मनाया जाता है. गुजरात और महाराष्ट्र के मुसलमानों की आल इंडिया प्रोफेशनल मुस्लिम एसोसिएशन भी ज़कात फंड से बेरोज़गार मुसलमानों को रोज़गार मुहैया कराने की कोशिश करती है. इसके तहत ये संस्था छोटा मोटा कारोबार करने के लिए 25 से 50 हज़ार तक की मदद देती. लिए मदद पाने वाले की पहचान भी गुप्त रखी जाती है.
दरअसल, मुसलमानों को बड़े पैमाने पर ऐसे उदाहरण पेश करने की ज़रूरत है. हर राज्य और हर शहर में. अभी ऐसी पहल बहुत ही कम शहरों में है. ये काम अगर हर शहर में शुरु हो जाए तो मुसलमानों के आर्थिक हालात कुछ ही साल में काफी बेहतर बेहतर हो सकते हैं. ऐसी पहल के ज़रिए कई खुशनसीब मुसलमानों तक मदद पहुंच रही है. लेकिन मदद के मुस्तहिक़ करोड़ों मुसलमानों उम्मीदें दम तोड़ रही हैं. वो साल दर साल इसी उम्मीद में जीते हैं कि उन्हें अपने आर्थिक हालात बदलने के लिए कहीं से मदद मिल जाए. लेकिन उनकी ये ख्वाहिश पूरी नहीं होती. ऐसे इस लिए होता है कि आम मुसलमान ज़कात के महत्व, अहमियत और इसे लेकर क़ुरआन के आदेशों से वाक़िफ़ नहीं हैं. उसे नहीं पता कि इसके इस्तेमाल से देश के आर्थिक रूप से सबसे कमज़ोर तबक़े को मज़बूत बनाकर मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
यूसुफ अंसारी वरिष्ठ पत्रकार
जाने-माने पत्रकार और राजनीति विश्लषेक. मुस्लिम और इस्लामी मामलों के विशेषज्ञ हैं. फिलहाल विभिन समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टल्स के लिए स्तंत्र लेखन कर रहे हैं. पूर्व में 'ज़ी न्यूज़' के राजनीतिक ब्यूरो प्रमुख एवं एसोसिएट एडीटर, 'चैनवल वन न्यूज़' के मैनेजिंग एडीटर, और 'सनस्टार' समाचार पत्र के राजनितिक संपादक रह चुके हैं.

Gulabi Jagat
Next Story