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बंगाल में विधानसभा चुनाव के लिए शनिवार को पहले चरण के रिकार्ड मतदान के बाद अब सारी निगाहें दूसरे दौर पर टिक गई हैं।
बंगाल में विधानसभा चुनाव के लिए शनिवार को पहले चरण के रिकार्ड मतदान के बाद अब सारी निगाहें दूसरे दौर पर टिक गई हैं। पहली अप्रैल को दूसरे चरण के लिए जिन सीटों पर मतदान होना है, उनमें नंदीग्राम सबसे महत्वपूर्ण है। इस सीट पर राज्य की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी मैदान में हैं और उनके सामने कभी उनके दाहिने हाथ रहे सुवेंदु अधिकारी हैं। जाहिर है, इस सीट के साथ मुख्यमंत्री की पूरी राजनीति प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। यही वजह है कि नंदीग्राम में मतदान होने तक ममता बनर्जी वहीं डेरा डाले हुई हैं।
बंगाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या होंगे, इसके लिए तो दो मई तक की प्रतीक्षा करनी होगी, लेकिन ममता बनर्जी को कड़ी चुनौती दे रही भाजपा ने जिस तरह से उनकी राजनीति का पर्दाफाश किया है, वह उल्लेखनीय है। वास्तविकता यह है कि बंगाल को वाकई परिवर्तन की जरूरत है। बंगाली भद्रलोक के इर्द-गिर्द केंद्रित राज्य की राजनीति को अब हाशिए पर खड़े उन लोगों के उन्नयन और उत्थान के बारे में सोचना होगा, जिन्हें सिर्फ वोट बैंक समझा जाता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बंगाल की जनता अपनी पहचान, संस्कृति और भाषा के साथ खड़ी होगी या फिर भाजपा का साथ देगी जिसने राज्य को फिर से सोनार बांग्ला बनाने की घोषणा की है। बंगाल हमेशा से ही अपनी पहचान और संस्कृति को लेकर अहंकार की हद तक गर्व करता रहा है और आज भी करता है। इसका ही नतीजा है कि वह देश के दूसरे राज्यों से खुद को अलग समझता रहा है, लेकिन इस भद्रलोक पहचान के बाहर छूट गए लोगों के लिए इस विशिष्टता का कोई अर्थ नहीं है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि बंगाल कई मायनों में उत्तर प्रदेश या बिहार से अलग है। कम से कम महिलाओं को घर और बाहर सम्मान एवं बराबरी का अधिकार देने के मामले में तो उसका कोई सानी नहीं है। उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि का होने का कारण मुङो तब बहुत हैरानी हुई थी, जब हमारे पड़ोस के युवक की शादी हुई और दूसरे दिन ही उनकी पत्नी पानी भरने के लिए घड़ा लेकर घर के सामने वाले नल पर पहुंच गईं। अब तो उत्तर प्रदेश के गांवों में भी नई बहुएं बाहर निकलने लगी हैं, लेकिन 1980 में जब का यह किस्सा है, उस समय यह अकल्पनीय था।
बंगाल की इस प्रगतिशीलता ने मुङो काफी प्रभावित किया, लेकिन जब मैंने देखा कि हमारे घर के ठीक सामने सूदखोरों का एक परिवार भी रहता है जो मजदूरों को 10 फीसद प्रतिमाह के ब्याज पर कर्ज देता है और कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा उठाकर भी चलता है, तो मुङो काफी दुख हुआ। मजदूरों के नाम पर राजनीति करने वाले कम्युनिस्ट पार्टी को मजदूरों का खून चूसने वाले ये सूदखोर कभी खराब नहीं लगे, क्योंकि उनसे वोट भी मिलता था और नोट भी। बंगाली समाज और राजनीति के इस विरोधाभास को मैं कभी पचा नहीं पाया।
बंगालियों को अपनी संस्कृति पर भी बहुत गुमान है। बंगाल में रहने के दौरान कई बार मन में यह प्रश्न उठा कि क्या संस्कृति के मामले में हम उनसे कमतर हैं। इसकी कई वजहें भी थीं। हर साल गíमयों में बंगाल में जात्र (नाटक) करने वाले दल आया करते थे। वे ज्वलंत मुद्दों पर लिखे गए नाटकों का प्रदर्शन करते थे। उन नाटकों की रचना बंगाल के नामी लेखक करते थे और मशहूर कलाकार उनमें अभिनय करते थे। जात्र देखने के लिए टिकट भी खरीदना पड़ता था। इसके विपरीत हमारे जैसे गैर-बंगालियों की पहचान थे साल-दर-साल मंचित किए जाने वाले 'सुल्ताना डाकू' और 'समाज को बदल डालो' जैसे घिसे-पिटे कथानक। इसके अलावा दरभंगा की रामलीला मंडली भी आती थी, जिनका ध्यान लीला दिखाने से ज्यादा अपने खाने-पीने का इंतजाम करने पर रहता था।
नतीजा, रामलीला के बीच-बीच में राम-सीता को मंच पर बिठा दिया जाता था और फिर शुरू होती थी मालाओं की नीलामी। पर्याप्त इंतजाम होने के बाद ही फिर रामलीला शुरू होती थी। सांस्कृतिक रूप से उत्तर भारत के दूसरे राज्यों के मुकाबले उन्नत स्थिति में होने के बावजूद बंगाल अपने विरोधाभासों के कारण कंगाल हो गया है। पुनर्जागरण की यह धरती अब पतनशील राजनीति का पर्याय बन गई है। बंगाल पर कम्युनिस्टों के शासन में तो पार्टी की जिला कमेटी की मर्जी के बिना थाने में कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता था, लेकिन ममता के जमाने में तो घर बनाने के लिए सीमेट, ईंट भी तृणमूल समर्थकों की दुकान से खरीदने पड़ रहे हैं। कालेज में प्रवेश के लिए भी स्थानीय नेता की मंजूरी जरूरी है।
यही नहीं, बंगाली फिल्म उद्योग में भी सत्ताधारी पार्टी का सिंडीकेट राज चल रहा है। बंगाली अस्मिता के पैरोकार आखिर इसे कैसे न्यायसंगत ठहरा सकते हैं? बंगाल की आम जनता अपने दैनंदिन के जीवन में सिंडिकेट के रूप में पार्टी के हस्तक्षेप के कारण त्रस्त है। यही वजह है कि भाजपा उन्हें आकर्षति कर रही है। खासकर वे लोग भाजपा के समर्थन में खुलकर आ गए हैं, जिनकी आवाज को भद्रलोक की राजनीति में अनसुना किया जाता रहा है। चाहे कम्युनिस्ट हों या तृणमूल, दोनों ही पार्टियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि सब कुछ होने के बावजूद बंगाल इतना कंगाल क्यों है।
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