सम्पादकीय

बंगाल : ममता का एकला चलो राग रणनीति या मजबूरी, महत्वाकांक्षा और यथार्थ के बीच तालमेल की चुनौती

Neha Dani
24 July 2022 1:45 AM GMT
बंगाल : ममता का एकला चलो राग रणनीति या मजबूरी, महत्वाकांक्षा और यथार्थ के बीच तालमेल की चुनौती
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इस सवाल का जवाब तो देना ही चाहिए कि इस गोलीकांड की जांच रिपोर्ट उन्होंने अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं की?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 21 जुलाई को अपनी ताकत और कमजोरी, दोनों का एक साथ प्रदर्शन किया। कोलकाता में शहीद दिवस पर जन समुद्र देखकर पार्टी के मजबूत संगठन व उसके जनाधार का पता तो चला, मगर, उपराष्ट्रपति की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा को समर्थन नहीं देने के फैसले से विपक्षी खेमे में ही वह अलग-थलग पड़ती दिखीं। इस तरह, 2024 में राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा रोल अदा करने के उनके सपने की भ्रूण हत्या होती दिख रही है। पिछले साल मुंबई में वह शरद पवार से मिलीं थीं और उनके सामने ही कहा था कि यूपीए है कहां? ममता चाहती थीं कि कांग्रेस का साथ छोड़कर पवार उनके खेमे में आ जाएं। इस बार विपक्ष का राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने के मामले पर सबसे पहले दीदी ने पहल की, पर पवार की बुलाई बैठक में वह शामिल नहीं हुईं।



उपराष्ट्रपति प्रत्याशी मार्गरेट अल्वा को वोट नहीं देने का कारण बताया कि प्रत्याशी तय करने से पहले कांग्रेस ने उनसे सलाह नहीं ली और मतदान से अलग रहने का फैसला किया। राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर तृणमूल के कैजुअल रवैये का नमूना तब दिखा, जब आदिवासी वोटों की चिंता में ममता ने कह दिया कि अगर भाजपा पहले बताती, तो उनका गठबंधन द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने पर सोचता। सोचिए, प्रत्याशी बनने से पहले यशवंत सिन्हा तृणमूल में ही थे और उन्होंने ही उनका नाम आगे किया था।


21 जुलाई के मंच से तृणमूल ने 'भाग भाजपा भाग' का नारा जरूर दिया, पर यह काम होगा कैसे, इसकी रणनीति का खुलासा नहीं किया। सभी वक्ता महंगाई को लेकर भी मोदी सरकार पर बरसे। चौतरफा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार की यह गलाबाजी भूत के डर से जोर-जोर से हनुमान चालीसा पढ़ने जैसी कवायद ही लगी। 21 जुलाई के एक दिन बाद ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने पश्चिम बंगाल स्कूल सेवा आयोग और पश्चिम बंगाल प्राइमरी एजुकेशन बोर्ड भर्ती घोटाले के संबंध में 14 जगहों पर छापेमारी की। इनमें मंत्री पार्थ चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी के घर से 20 करोड़ नकद और 12 आईफोन बरामद किए गए। शिक्षा राज्यमंत्री परेश अधिकारी के कूचबिहार वाले घर से भी कई दस्तावेज बरामद किए गए। कई घंटे की पूछताछ के बाद ईडी ने पार्थ चटर्जी को शनिवार को गिरफ्तार भी कर लिया है।

विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस करे, यह भी ममता को मंजूर नहीं। इस तरह आज की तारीख में वह एकला चलो का रास्ता पकड़ने पर मजबूर हुई हैं। अपनी महत्वाकांक्षा और यथार्थ के बीच तालमेल रखने का काम तो आखिर उन्हें ही करना है। रैली के दौरान भारी बारिश हुई और वह भी केंद्र पर खूब बरसीं। उनके उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया कि बंगाल को केंद्र का पैसा नहीं चाहिए, हम अपने बूते पर बंगाल का विकास करेंगे। इसके पीछे की कहानी भी रोचक है। बंगाल के भाजपा नेताओं ने पता लगाया कि मनरेगा, प्रधानमंत्री सड़क और आवास योजनाओं में कितनी धांधली हुई है।

केंद्र की टीम भी मुआयना करने आई थी और देखा कि प्रधानमंत्री सड़क या आवास योजना की जगह बांग्ला आवास या सड़क योजना लिखा हुआ है। केंद्रीय टीम इस घपले को पकड़ न ले, इसलिए राज्य के प्रखंड विकास पदाधिकारियों से झटपट बांग्ला शब्द हटाकर प्रधानमंत्री लिखने का फरमान जारी हुआ था। पर कहीं-कहीं प्रधानमंत्री शब्द फ्लैक्स पर लिखकर चिपका दिया था। केंद्रीय टीम ने यह धांधली पकड़ ली। इसकी वजह से केंद्र ने अपने हिस्से का पैसा कई महीनों से रोका हुआ है। इसे लेकर ममता ने रैली में बंगाल अस्मिता का कार्ड भी खेला और कहा कि बंगाल केंद्र के आगे घुटने नहीं टेकेगा।

अब दीदी के शहीदों की बात करें। वह 21 जुलाई, 1993 को पुलिस की गोली से मारे गए कार्यकर्ताओं को शहीद का दर्जा देती हैं। साल 1993 में बंगाल में ज्योति बसु की अगुवाई वाली वाम दलों की सरकार थी और ममता बनर्जी थीं युवा कांग्रेस अध्यक्ष। वह आरोप लगाती थीं कि प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता वाम मोर्चा सरकार से सुविधाएं लेते हैं, इसलिए इस सरकार के खिलाफ कड़ा रुख नहीं दिखाते। जो गोलीकांड हुआ, उसकी पृष्ठभूमि में ममता का आक्रामक प्रदर्शन ही था। 1977 से लगातार सत्ता में बने रहने से पैदा अहंकार और ममता के आंदोलनों से खार खाई वाम सरकार की पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाने का जघन्य काम किया।

युवा कांग्रेस के 13 कार्यकर्ताओं की मौत हुई। यही अहंकार नंदीग्राम गोलीकांड और सिंगूर में किसानों से जबरन जमीन लेने के लिए जिम्मेदार था, जो 2011 में वाम मोर्चा सरकार के पतन का एक बड़ा कारण बना। इस अभियान के बाद देश भर में लोग ममता बनर्जी को एक जुझारू नेता के रूप में देखने लगे, जो वाम सरकार को उखाड़ सकती है। आखिर में साल 1997 में ममता ने अपनी तृणमूल कांग्रेस नाम से अलग पार्टी बनाई। विडंबना देखिए कि उन शहीद परिवारों के लोग रैली में बुलाएं जाते हैं, पर 30 साल बाद भी गोली चलाने वाले पुलिस कर्मियों को सजा नहीं मिली है। ममता को इस सवाल का जवाब तो देना ही चाहिए कि इस गोलीकांड की जांच रिपोर्ट उन्होंने अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं की?

सोर्स: अमर उजाला

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