- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- बंगाल विधानसभा चुनाव...
x
यह भारतीय लोकतंत्र का अंधकार युग चल रहा है
यह भारतीय लोकतंत्र का अंधकार युग चल रहा है। इसमें कोई भी राजनीतिक पार्टी प्रतिपक्ष में बैठना नहीं चाहती और सारे दलों को राज करने का अवसर नहीं मिल सकता। विपक्ष में रहने के प्रति सब उदासीन हैं। यह स्थिति डरावनी है। ज़रा कल्पना करिए कि एक निर्वाचित तंत्र में असहमत पक्ष की ग़ैर हाज़िरी से किसका भला होगा। हरियाणा के पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाता गवाह हैं,जब पक्ष और प्रतिपक्ष चुनाव के बाद हुक़ूमत करने के लिए साथ-साथ आ गए थे।
यह ठीक है कि बंगाल में इसकी आशंका कम नज़र आती है लेकिन यदि भारतीय जनता पार्टी को शिक़स्त देने के लिए तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और वाम दल एक मंच पर आ जाएं तो क्या तस्वीर उभरती है। इसी तर्ज़ पर बीजेपी सरकार में आने के लिए प्रतिद्वंद्वी दलों के क्षत्रपों को अपना कमांडर बना ले तो सिद्धांत ,सेवा और समर्पण की सियासत कहां रह जाती है?
स्वाभाविक है कि इन आया रामों- गया रामों को सत्ता की मलाई के अलावा किसी बात में दिलचस्पी नहीं रहती। ऐसे में मतदाता के सामने क्या विकल्प है रह जाता है ? इसी नज़रिए से यह अन्धकार युग है। एक जननायक के लिए अधिनायक में बदलने की बेबसी है।
विचारधारा और दल
यह विडंबना ही है कि अतीत में कभी विचारधारा के आधार पर एक ही जाजम पर खड़े रहे कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वामदल आज कट्टर विरोधी की शक़्ल में आमने सामने हैं। तृणमूल कांग्रेस तो कांग्रेस की कोख़ से ही निकली है। इस नाते उसका स्वाभाविक रुझान कांग्रेस के साथ ही होना चाहिए था, पर वाम दलों से ममता की असल लड़ाई है। वाम पार्टियों ने लंबे समय तक बंगाल में सरकार चलाई और एक क्रूर शासक की तरह बरताव किया।
ममता को उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए कांग्रेस छोड़नी ही थी। कांग्रेस उन्हें दस बरस तक मुख्यमंत्री बने रहने की गारंटी कैसे दे सकती थी? माकपा को गद्दी से उतारने के लिए ममता ने उन्हीं की शैली में उत्तर दिया और हिंसा का जवाब हिंसा से देने में गुरेज़ नहीं किया। कांग्रेस गांधी-नेहरू वाद के सहारे बंगाल की वैतरणी पार नहीं कर सकती थी, इसलिए वह पिछड़ गई।
ममता ने वाम दलों को धूल तो चटा दी, मगर इस चुनाव में नंदीग्राम के मोर्चे पर यदि वाम दल और कांग्रेस बीजेपी के ख़िलाफ़ ममता को वाक ओवर देना चाहते हैं तो इसमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है। वे डरे हुए हैं कि जिस तरह बीजेपी ने मध्य प्रदेश और उत्तरप्रदेश में अपने विरोधी दलों को हाशिए पर ला दिया है, वैसा कहीं बंगाल में न हो जाए। यदि भारतीय जनता पार्टी बंगाल में कहीं अधिक ख़ूंखार और आक्रामक दिखाई दे रही है तो इसके पीछे यही कारण है पर इसके लिए तो माकपा और तृणमूल कांग्रेस ही ज़िम्मेदार हैं।
उन्होंने अपने दौर में जिस तरह डंडे के ज़ोर पर सत्ता चलाई है, बीजेपी अब उसी हथियार का सहारा ले रही है। चुनाव में हिंसा अब बंगाल की चुनावी राजनीति का स्थाई भाव बन गया है। धार्मिक प्रतीकों का खुल्लम खुल्ला इस्तेमाल और वोटरों का भावनात्मक दुरुपयोग संसार की इस विराट पार्टी की विवशता है। लोकतंत्र के लिए यही दहशत भरा अध्याय है।
सवाल मुद्दों और विकास के तौर तरीकों का भी है। मतदाता ठगे हुए से हैं। उनके लिए तय करना मुश्किल है कि वे किसे वोट दें। विचार के आधार पर अब किसी दल को अलग करके देखना नामुमकिन है। कोई राजनेता कल तक तृणमूल के गीत गाता था,अचानक उसके गले से बीजेपी के सुर फूटने लगते हैं।
इधर कांग्रेस तो जैसे उधार का सिन्दूर बांटने वाली पार्टी बन गई है। उसके कार्यकर्ता और नेता छिटक रहे हैं और उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है। वाम पार्टियां तो अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। नेतृत्व की वर्तमान पीढ़ी के बाद उनके पास न तो कोई चेहरा शेष रहेगा और न कार्यक्रम। बंगाल की अगली सरकार की कोई पृथक वैचारिक पहचान होगी - इस पर संशय है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Next Story