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भाजपा और तृणमूल कांग्रेस
भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रही चुनावी लड़ाई ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को एक चुनावी जंग में तब्दील कर दिया है। कभी लेफ्ट के गढ़ रहे बंगाल में वामपंथी पार्टियों के लिए चुनौती बनी ममता के लिए इस चुनाव में बीजेपी चुनौती बनकर खड़ी है। हालांकि बीते 5 सालों से बंगाल जीतने का ख्वाब देख रही भाजपा टीएमसी के किले में सेंध लगा पाएगी या सिर्फ हवा बनाने की कोशिश कर रही है इसका जवाब तो परिवर्तन की पहचान रही बंगाली भद्र जनता ही देगी।
दरअसल, इस समय तृणमूल कांग्रेस के लिए राज्य की सत्ता बचाने की जद्दोजहद है तो वहीं दूसरी ओर से मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा अपने चुनावी विजयरथ को आगे बढ़ाने की होड़ में है। आइए 5 बिंदुओं में समझते हैं कि बंगाल की चुनावी जीत में किसका पलड़ा भारी है और कौन जीतेगा जमीन पर असली चुनावी जंग।
1- ममता के प्रति झुकाव लेकिन भाजपा के प्रति आकर्षण
पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में सीएए लागू करने का वादा कर साफ कर दिया है कि वह राज्य में अपने एजेंडे पर पूरी तरह कायम है और उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। पार्टी के चुनाव प्रचारक भी अपने अभियान में इस पर जोर दे रहे हैं। भाजपा की बंगाल के भीतर चल रही उठापटक ही देखी जाा सकती है। हालांकि पार्टी जमीनी स्तर पर कितनी कारगर हुई है इसके लिए भाजपा को चुनाव परिणाम का इंतजार करना होगा।
हालांकि इधर ग्राउंड रिपोर्ट कहती है कि कुछ क्षेत्रों को छोड़ दें (मुर्शिदाबाद,मालदा, ब्रह्मपुर, हुगली) तो स्थानीय बंगालियों में ममता के प्रति झुकाव बना हुआ है। नंदीग्राम पहली बार ममता के लिए चुनौती बनकर खड़ा है, लेकिन ममता को लेकर लोगों के झुकाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जमीन पर परिणाम लाना आसान नहीं हैं।
2- भाजपा की अंदरूनी जंग और टीएमसी पर
बंगाल भाजपा की अंदरूनी कलह पार्टी के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित होती दिख रही है। पार्टी ने टीएमसी से आए करीब 150 नेताओं को इस बार टिकट दिया है जिससे पुराने कार्यकर्ताओं में रोष है। हालांंकि उधर टीएमसी के दिग्गज नेताओं के बीजेपी में चले जाने से पार्टी में भी खलबली मची है।
दरअसल,टीएमसी जिस आत्मविश्वास के साथ के शुरुआत में दिख रही थी उसमें बिखराव नजर आता है। जिस बिखराव को भाजपा के भीतर लड़ाई के तौर पर देखा जाता है वही बिखराव टीएमसी में आत्महीनता के रूप में दिखाई देता है। हालांकि ममता बंगाल का आज भी सबसे लोकप्रिय और विश्वासदायक चेहरा हैं। तुलनात्मक रूप से भाजपा के लिए मुख्यमंत्री चेहरा घोषित ना करना सबसे बड़ा नकारात्मक फैक्टर भी दिखाई देता है।
3-दक्षिण बंगाल में भाजपा का कमजोर होना लेकिन टीएमसी के लिए उत्तर चुनौती
उत्तरी बंगाल के तुलना में भाजपा दक्षिण बंगाल में अभी भी संगठनात्मक रूप से बहुत कमजोर है। 2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम को भी देखेंगे तो दक्षिणी बंगाल में भाजपा का परफॉर्मेंस उतना बेहतर नहीं था जितना उत्तरी बंगाल में। करीब 60 से 65 फ़ीसदी विधानसभा क्षेत्र दक्षिण बंगाल से आते हैं और वहां टीएमसी अभी भी अपनी पैठ बनाई हुई है। यदि भाजपा दक्षिण के किले को फतह कर पाती है तो फिर परिणाम भाजपा के पक्ष में हो सकते हैं।
इधर देखा जाए तो उत्तर बंगाल ही भाजपा की ताकत है और उसी के बूते भगवा पार्टी अपने मिशन को पूरा करना चाहती है। दूूूूूसरी ओर उत्तर बंगाल ही ममता की कमजोर नब्ज है और यदि यहां भाजपा सफल हो जाती है तो ममता के लिए सत्ता दूर खिसक सकती है।
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर बंगाल में 8 लोकसभा सीटों में से सात पर कब्जा किया था। वहीं एक सीट कांग्रेस के खाते में गई थी जबकि टीएमसी का खाता तक नहीं खुल पाया था। यही नहीं 2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी के लिए 54 में से 26 विधानसभा सीटें आना और 2011 के विधानसभा चुनाव में महज 16 सीटें आना यह बताता है कि उत्तर बंगाल में यदि भाजपा का गणित काम कर गया तो टीएमसी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
हालांकि उत्तर बंगाल की पूर्ति के लिए ममता दीदी ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरंग से हाथ मिलाया है लेकिन यह कितना कारगर होगा यह देखने वाली बात होगी क्योंकि इस क्षेत्र में लेफ्ट और कांग्रेस का भी वोटबैंक है और दोनों ही दल मजबूत हैं।
4-टीएमसी का वोट बैंक और भाजपा
बंगाल की सियासत, दल से ज्यादा विचार और विचार के बाद चेहरे पर चलती रही है। ऐसे में देखा जाए तो ममता के जो समर्थक हैं वो उनके साथ खड़े हैं। हालांकि इसमें युवा वोटर्स का झुकाव बदलाव की ओर साफ दिखाई देता है। बता दें कि बंगाल में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है। राज्य के पढ़े-लिखा युवा नौकरी और धंधे के लिए राज्य से बाहर जाने के लिए मजबूर हुए हैं।
राज्य की तकरीबन 10 करोड़ की आबादी में 18 से 35 वर्ष की उम्र वाले युवाओं की संख्या 50 फीसदी के आसपास बैठती है। देखा जाए तो सत्ता में आने पर ममता ने 5 लाख रोजगार देने का वादा किया था लेकिन राज्य में 2 लाख नौकरियां खत्म कर दी गईं। राज्य की बेरोजगार युवा आबादी पर बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट की भी नजर है।
ममता पर भरोसा करने वाला वोटर्स यदि बदलाव के लालच में खिसकता है तो टीएमसी के लिए सत्ता दूर हो सकती है। हालांकि युवाओं को आकर्षित करने के लिए टीएमसी ने 74 मौजूदा विधायकों का टिकट काटक युवाओं को थमा दिया है, जाहिर है युवा वोटर्स को रिझाने के लिए।
इधर आंकड़े बताते हैं कि 2011-2014-2016-2019 के चुनावों में मिले मतों में ममता के मतों में कोई गिरावट नहीं देखी गई है। 2019 लोकसभा चुनाव में भी टीएमसी को 43.5 फ़ीसदी के करीब मत मिले थे, वहीं भाजपा को 40 फ़ीसदी के आसपास और अक्सर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के बीच में मतों का फासला 6 से 7% तक का होता है तब जब-जब विधानसभा चुनाव में भाजपा और स्थानीय पार्टी के बीच लड़ाई होती है। विगत् 10 से 12 विधानसभा चुनावों का आकलन करेंगे तो लोकसभा के तुलना में भाजपा के 6% से 20% तक मतों में गिरावट देखा गया है। लेकिन इस बार आंकड़े बदल सकते हैं।
5-भाजपा की परिवर्तनकारी नीति और टीएमसी
केंद्र की भाजपा सरकार ने चाहे कश्मीर मुद्दा हो या राम मंदिर हर एक बड़े मुद्दे को राज्यों के चुनावों में जनता के सामने रखा है। इस समय देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकार है, जाहिर यह एक फैक्टर है जिसका असर बंगाल में अप्रत्यक्ष तौर पर दिखाई दे रहा है। लेकिन लेफ्ट हो या कांग्रेस या फिर टीएमसी जमीन पर बदलाव करने में यह सभी दल माहिर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक जिस बदलाव को साल 2019 में महसूस कर रहे थे परिणाम ठीक उलट आए हैं। देखना होगा कि बंगाल की जनता क्या निर्णय लेती है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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