सम्पादकीय

सरकारी योजनाओं के लाभार्थी एक बड़ा वोट बैंक बनने के साथ ही जाति-संप्रदाय की राजनीति को भी कुंद कर रहे हैं

Subhi
9 Feb 2022 4:35 AM GMT
सरकारी योजनाओं के लाभार्थी एक बड़ा वोट बैंक बनने के साथ ही जाति-संप्रदाय की राजनीति को भी कुंद कर रहे हैं
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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक दिलचस्पी उत्तर प्रदेश में है, लेकिन इन सभी राज्यों में चुनावी मैदान में उतरे छोटे-बड़े दल अपने-अपने वोट बैंक को साधने में लगे हुए हैं।

राजीव सचान: पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक दिलचस्पी उत्तर प्रदेश में है, लेकिन इन सभी राज्यों में चुनावी मैदान में उतरे छोटे-बड़े दल अपने-अपने वोट बैंक को साधने में लगे हुए हैं। वोट बैंक की राजनीति पहले भी होती थी, लेकिन जैसे-जैसे दलों की संख्या बढ़ती गई और जाति विशेष की राजनीति करने वाले दल बनने लगे, वैसे-वैसे यह राजनीति और गहन होती गई। हाल के समय में जाति-संप्रदाय और क्षेत्र विशेष के सहारे राजनीति करने वाले दलों की संख्या तेजी से बढ़ी है। स्थिति यह है कि राज्य विशेष में चार-पांच प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली जाति समूह के नेता भी अपना-अपना दल बना रहे हैं। इसकी एक वजह राजनीति में प्रतिनिधित्व हासिल करना और सत्ता में भागीदारी करना भी है। यह बात और है कि ऐसे अधिकांश दल परिवारवादी दलों में परिवर्तित हो जाते हैं। ऐसे दल बात तो 'जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी' की करते हैं, लेकिन जब कभी सत्ता में आते हैं या फिर सत्ता में साझेदार बनते हैं तो अपने परिवार या जाति विशेष के हितों तक ही सीमित हो जाते हैं। परिवारवादी दलों में कुछ तो ऐसे हैं, जिनके परिवार के सभी सदस्य राजनीति में हैं। पीढ़ियां बदल जाती हैं, लेकिन पार्टी का नेतृत्व परिवार के सदस्य के पास ही रहता है, भले ही वह कितना भी अयोग्य हो।

परिवारवाद की राजनीति एक तरह की सामंतशाही ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। इस भावना की खूब अनदेखी भी हो रही है, लेकिन इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है। यह एक धारणा बन गई है कि जाति केवल हिंदू समाज में है, लेकिन सच यह है कि मुस्लिम संप्रदाय भी जातियों में विभाजित है। मुस्लिम समाज अशराफ, अजलाफ और अरजाल में उसी तरह बंटा है, जैसे हिंदू समाज दलित, पिछड़े और सवर्ण में। जबसे पसमांदा कहे जाने वाले मुस्लिम समाज के पिछड़े तबके अपने अधिकारों को लेकर लामबंद हुए हैं, तब से देश का ध्यान इस ओर गया है कि यह समाज भी जातिवाद से ग्रस्त और त्रस्त है। जब चरणजीत सिंह चन्नी दलित चेहरे के रूप में पंजाब के मुख्यमंत्री बने तब कई लोग इससे परिचित हुए कि सिख समाज में भी दलित हैं। यह तो किसी से छिपा ही नहीं कि जो दलित हिंदू लोभ-लालच या फिर छल-बल से ईसाई बने, वे भी इस संप्रदाय में दलित ईसाई के रूप में ही जाने जाते हैं।

भारतीय समाज में जाति की गहरी पैठ होने के बाद भी यह ठीक नहीं कि लोग अपने मतदान का निर्धारण जाति-संप्रदाय के आधार पर करें। दुर्भाग्य से ऐसा ही होता आ रहा है और इसीलिए गोवा, मणिपुर से लेकर पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में दल जाति-संप्रदाय विशेष पर डोरे डालने में लगे हुए हैं। कुछ जातीय समूहों के बारे में तो यह मानकर चला जा रहा है कि वे अमुक दल के पक्के वोट बैंक हैं। इसी आधार पर चुनाव नतीजों का अनुमान भी लगाया जा रहा है, लेकिन ये अनुमान गलत साबित हों तो हैरत नहीं, क्योंकि एक तो कोई भी जाति-संप्रदाय शत-प्रतिशत उस दल को वोट नहीं देता, जिसे उसका पक्का वोट बैंक माना जाता है। दूसरे, सुशासन की पहुंच ने लोगों को अपने असल हितों के प्रति जागरूक किया है। अब एक बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अपना वोट इस आधार पर देते हैं कि सरकार उनकी समस्याओं को हल कर सकी या नहीं अथवा हल करने की सामथ्र्य और इरादा रखती है या नहीं? कथित चुनावी पंडित कुछ भी कहें, यह एक यथार्थ है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 2014 से भी अधिक सीटें मिलने का एक बड़ा कारण यह रहा कि उसकी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पात्र लोगों तक सही तरह पहुंचा। शौचालय, आवास, बिजली, रसोई गैस आदि से संबंधित योजनाएं जमीन पर केवल उतरी ही नहीं, बल्कि नजर भी आईं। इन योजनाओं से लाभान्वित लोगों, जिन्हें लाभार्थी की संज्ञा दी जा रही है, ने जाति-संप्रदाय की सीमाओं से परे जाकर वोट दिया। क्या पांच राज्यों के चुनावों में भी ऐसा होगा? इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर करता है कि राज्य विशेष में जनकल्याण की केंद्रीय और प्रांतीय योजनाओं से लोगों के जीवन में कुछ बदलाव आया या नहीं?

सरकारी योजनाओं से लाभान्वित लोग यानी लाभार्थी न केवल एक बड़ा वोट बैंक बन रहे हैं, बल्कि जाति-संप्रदाय की राजनीति को भोथरा करने का भी काम कर रहे हैं। इन लाभार्थियों के अलावा एक वोट बैंक उनका भी बन रहा है, जो विकास योजनाओं से लाभान्वित हो रहे हैं। सड़क, पुल, एक्सप्रेसवे, मेट्रो, रेल, हवाई अड्डे आदि केवल देश को आगे ही नहीं ले जाते, बल्कि वे उनसे लाभान्वित होने वालों को ऐसे वोट बैंक के रूप में तब्दील भी करते हैं, जो जाति-संप्रदाय के आधार पर वोट नहीं देता। यह वोट बैंक भी एक तरह का लाभार्थी है। लाभार्थियों के रूप में एक वोट बैंक कानून एवं व्यवस्था की बेहतर होती स्थिति भी तैयार करता है। यदि बिहार में जंगलराज और उत्तर प्रदेश में गुंडाराज चुनावी मुद्दा बनते हैं तो इसीलिए, क्योंकि कानून एवं व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति लोगों के लिए एक बड़ी मुसीबत बनती है। बेहतर हो कि जाति-संप्रदाय में वोट बैंक की तलाश करने वाले राजनीतिक दल यह समझें कि सुशासन बड़ा वोट बैंक बनाने का सबसे सशक्त माध्यम है। चूंकि जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है इसलिए दलों को सुशासन के साथ समाज के सभी समूहों को उचित प्रतिनिधित्व भी देना होगा। जो राजनीतिक दल यह करने में सक्षम होगा, वही सबसे बड़े, ठोस और जाति-समुदाय से मुक्त वोट बैंक से लैस होगा।


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