सम्पादकीय

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12 Oct 2022 5:23 AM GMT
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पिछले कई सालों से अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बना कर सत्तापक्ष के लोग भड़काऊ बयान देते आ रहे हैं। यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। कई मामलों में देशव्यापी आक्रोश भी फूटा, कुछ मामलों में मुकदमे भी दायर कराए गए, मगर लगता है, उससे किसी ने कोई सबक नहीं लिया।

Written by जनसत्ता: पिछले कई सालों से अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बना कर सत्तापक्ष के लोग भड़काऊ बयान देते आ रहे हैं। यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा। कई मामलों में देशव्यापी आक्रोश भी फूटा, कुछ मामलों में मुकदमे भी दायर कराए गए, मगर लगता है, उससे किसी ने कोई सबक नहीं लिया।

इससे यही जाहिर होता है कि अब न तो उन्हें सामाजिक ताने-बाने की चिंता है और न कानून का भय। अभी दिल्ली के एक सार्वजनिक मंच से सत्तापक्ष के दिल्ली से एक सांसद और उत्तर प्रदेश में लोनी के विधायक ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ जहर उगला। सांसद महोदय ने कहा कि एक विशेष समुदाय का संपूर्ण बहिष्कार जरूरी है।

विधायक ने तो जोश में यहां तक स्वीकार किया कि दिल्ली दंगों के समय वे वहां उपस्थित थे। इन दोनों बयानों का वीडियो तेजी से प्रसारित होना शुरू हुआ तो पुलिस सक्रिय हुई और उस कार्यक्रम के आयोजकों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया। उन पर आरोप है कि उन्होंने कार्यक्रम की इजाजत नहीं ली थी। मगर नफरती बयान देने वाले नेताओं के खिलाफ न तो पार्टी ने कोई कड़ा रुख अपनाया है और न किसी कानूनी कार्रवाई की पहल हुई है।

हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब सार्वजनिक मंचों से इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ जहर भरे बयान दिए गए। हरिद्वार और उसके बाद दूसरी जगहों पर धर्म संसद आयोजित कर नफरती भाषण दिए गए। कुछ समय पहले नुपूर शर्मा के बयान पर पूरी दुनिया के मुसलिम समाज ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। उन्हें पार्टी से तो निलंबित कर दिया गया, मगर अभी तक वे कानून के शिकंजे से दूर ही हैं।

कई राजनेता, जो बाकायदा चुनाव जीत कर आए हैं, वे अक्सर सार्वजनिक सभाओं में इस तरह के भड़काऊ भाषण देते देखे जाते हैं, मगर उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती। इससे भी इन नेताओं का मनोबल बढ़ता है। सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधियों का व्यक्तिगत आचरण बहुत मायने रखता है, मगर इस तकाजे को ये राजनेता शायद नहीं समझते या समझना चाहते।

उन्हें भरोसा है कि इसी तरह के बयानों से उनका जनाधार मजबूत होता है। लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां तो पिछले विधानसभा चुनाव के समय भी खूब उड़ी थीं, जब सार्वजनिक मंचों से जहर बुझे तीर चलाए गए थे। दरअसल, जब कोई भी राजनीतिक दल भड़काऊ भाषणों के जरिए ही अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास करे, तो उसमें सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कड़े अनुशासन की अपेक्षा धुंधली पड़ जाती है।

चुने हुए प्रतिनिधि किसी एक समुदाय के नहीं होते। उनकी जिम्मेदारी सभी धर्म और समुदाय के लोगों की सुरक्षा, सुविधा और बुनियादी हकों की हिफाजत की होती है। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते, किसी समुदाय विशेष को वे खुद डराने का काम करते हैं, तो उनके प्रतिनिधित्व पर सवाल उठना स्वाभाविक है। अव्वल तो उनके खिलाफ खुद पार्टी को अनुशासनात्मक कदम उठाना चाहिए, ताकि दूसरे नेताओं के लिए नजीर बन सके।

मगर वह ऐसा नहीं कर पाती, तो कानून को स्वत: संज्ञान लेकर सामाजिक ताने-बाने की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। अगर वोट की राजनीति के चलते समाज में नफरत का वातावरण बने, तो इसे किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। ऐसी क्या बाध्यता है कि इस तरह के बयानों से सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करके ही कुछ लोग अपनी पहचान कायम रखने का प्रयास कर रहे हैं?


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