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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले
शंभूनाथ शुक्ल
ब्राह्मण का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है. एसपी (SP) सुप्रीमो अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) पुनः परशुराम के मंदिर बनवाने की बात करने लगे हैं. दरअसल उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण अचानक एक ऐसा वोट बैंक हो गया है, जिसे साधने के लिए हर राजनीतिक दल पूरी ताक़त लगाए हैं. बीएसपी (BSP) के प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के बाद एसपी ने भी उत्तर प्रदेश के हर जिले में परशुराम की प्रतिमा लगाने की बात कही है. उधर बीजेपी (BJP) भी ब्राह्मणों को साधे रखने के लिए ब्राह्मण नेताओं को आगे किए हुए है.
लगता है जैसे जिसने ब्राह्मणों को अपने पाले में कर लिया उसकी जीत पक्की. प्रदेश में ब्राह्मणों की संख्या को लेकर आंकड़ों की बाज़ीगरी दिखाई जा रही है. कोई दस प्रतिशत बताता है तो कोई-कोई तेरह और 14 प्रतिशत तक. जबकि 1911 के बाद से जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं तो कैसे संख्या का आकलन किया जा रहा है. लेकिन हर राजनीतिक दल की आतुरता देख़ कर ब्राह्मण भी अति-उत्साह में अपनी संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं.
ब्राह्मण को मिथकों में रहने देने का कुचक्र
अभी तक अपनी जाति के बूते राजनीति करने वालों को ख़ुद ब्राह्मण हिक़ारत से देखता था, लेकिन आज वह ख़ुद इस कुचक्र में फंसता जा रहा है. और जिन परशुराम को वह अपना नायक बताते नहीं थक रहा, उन्हीं का ब्राह्मणों द्वारा रचित ग्रंथों में खूब मज़ाक़ उड़ाया गया है. परशुराम को ब्राह्मण प्रतीक बनाया गया है, और ब्राह्मण गौरव बना कर पेश किया जा रहा है, वह और भी हास्यास्पद है. परशुराम ब्राह्मणों के प्रतीक कभी नहीं रहे. मिथ में उनकी छवि एक ऐसे साधु की है, जिसने अपने फरसे से 21 बार क्षत्रिय नरेशों की हत्या की थी. इतनी निर्ममता से, कि गर्भस्थ शिशुओं को नहीं छोड़ा.
लेकिन इन्हीं परशुराम की खिल्ली उड़वा देते हैं तुलसीदास. राजा जनक के दरबार में रामचंद्र जी ने शिव का धनुष पिनाक तोड़ दिया है. वायदे के अनुसार सीता उनके गले में वरमाल डाल देती हैं. तभी प्रकट होते हैं परशुराम. चीखते-चिल्लाते और तख़्त तोड़ते परशुराम. कानपुर और इसके आसपास के सौ कोस के दायरे में परशुराम लीला बड़ी मशहूर है. यह लीला कभी भी कर ली जाती है. इसमें क्रेज़ लक्ष्मण का होता है. लक्ष्मण परशुराम और उनके परशु का खूब मज़ाक़ उड़ाते हैं. यह लीला ब्राह्मणों में खूब लोकप्रिय है. वे भी परशुराम को एक ग़ुस्सैल मुनि ही समझते हैं. तब वे नायक कैसे हुए?
कोई नहीं समझ रहा कि ब्राह्मण का अर्थ परशुराम नहीं है न परशुराम उसके पर्याय हैं. परशुराम एक मिथकीय चरित्र हैं. माना जाता है, वे भी विष्णु के अंशावतार थे और जब पृथ्वी पर शासकों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब विष्णु ने परशुराम के रूप में अवतार लिया. परशुराम की कथा में बताया गया है, कि उन्होंने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया. यहां क्षत्रिय का अर्थ अत्याचारी शासक है. कथा के अनुसार परशुराम को अमरत्त्व का वरदान था. वे हनुमान, बलि, व्यास, अश्वत्थामा, विभीषण और कृपाचार्य की तरह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे. अब जो आदमी अमर है, उसकी मूर्तियों के प्रति यह ललक कैसी! दरअसल इस बहाने ब्राह्मणों को एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है.
ब्राह्मणों की ताक़त
अखिलेश यादव को कहीं न कहीं लगता है कि उनके पास यदि ब्राह्मण वोटरों का एक हिस्सा आ जाए, तो उनका वोट पर्सेंटेज़ तो बढ़ेगा ही, साथ में एक ऐसा वोट बैंक मिल जाएगा, जिसका प्रभाव और तगड़ा है. अभी पिछली बार क़रीब 28 प्रतिशत वोट मिले थे. मालूम हो कि 2017 में एसपी कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ी थी. उसने 311 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. बाक़ी पर कांग्रेस लड़ी थी. उस समय एसपी को कुल 21.8 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को 6.2 प्रतिशत. दोनों को मिला कर 28 प्रतिशत वोट मिले थे. इसके विपरीत तब बीजेपी (BJP) को 39.7 फ़ीसद वोट मिले थे. और वह 384 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. शेष में अपना दल और सुहेल देव पार्टी थी. इन दोनों को क्रमशः 1 प्रतिशत और 0.7 पर्सेंट वोट मिले थे. अर्थात् कुल वोट प्रतिशत 41.4 पर्सेंट वोट बीजेपी (BJP) के खाते में गया. बहुजन समाज पार्टी (BSP) विधानसभा की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और उसे 22.2 फ़ीसद वोट मिला. एक तरह से बीएसपी का वोट बैंक स्थिर रहा था.
बीएसपी ने खेला था दांव
ब्राह्मणों को वोट बैंक बनाने की रणनीति बीएसपी ने शुरू की थी. जब एसपी-बीएसपी प्रयोग के फलित (लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड) से घबराई मायावती ने बीजेपी की तरफ़ झुकना शुरू किया था. इसके बाद सतीश मिश्र का बीएसपी में क़द बढ़ना और 2007 में ब्राह्मण प्रत्याशियों को बीएसपी से 86 टिकट मिले थे और इसमें से 41 को जीत मिली. मायावती अपने इस गणित पर तब फूली नहीं समायी थीं, क्योंकि पहली बार पार्टी को अपने बूते बहुमत मिला. हालांकि ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने का प्रयास तब एसपी के सुप्रीमो मुलायम सिंह भी कर रह रहे थे.
साल 2005 के सितंबर में जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब चित्रकूट में उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी रखी थी. उस समय उन्होंने ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने के लिए ब्राह्मणों का अलग मिलन समारोह भी आयोजित किया था. मगर 2007 में ब्राह्मण मायावती के साथ गया. शायद बीएसपी ने समय रहते समझ लिया था कि इस समय ब्राह्मण दिग्भ्रमित हैं. 1990 के पहले तक ब्राह्मण परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ था. लेकिन मंदिर आंदोलन के चलते वह बीजेपी की तरफ़ हो गया. बीजेपी ने इसी समय मंडल की काट में अपना सोशल इंजीनियरिंग का फ़ार्मूला अपनाया और ब्राह्मण पार्टी नेतृत्त्व से बाहर होता गया. मायावती ने उसे अपने साथ कर लिया.
कांग्रेस की चाल
इसके बाद बीजेपी और कांग्रेस ने भी ब्राह्मणों को लुभाने का कार्ड खेला. बीजेपी ने रमापति राम त्रिपाठी और कांग्रेस ने 2008-09 में रीता बहुगुणा जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था. बीजेपी को तो लाभ नहीं मिला लेकिन कांग्रेस को 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटें मिल गई थीं. इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में एसपी ने भी कुछ युवा ब्राह्मण नेताओं को आगे किया. नतीजा उनके अनुकूल रहा और उसे स्पष्ट बहुमत मिल गया. उत्तर प्रदेश के हर ज़िले में ब्राह्मणों की संख्या ठीक है. वे हार-जीत का फ़ैसला कर सकते हैं इसलिए हर राजनीतिक दल उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश करता है.
2017 का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नाम पर लड़ा गया. तब मोदी की लोकप्रियता शिखर पर थी. 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' जैसे नारों ने जातियों के भेद समाप्त कर दिए थे. इसीलिए बीजेपी को 2017 में आशातीत सफलता मिली थी. योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री बने और उनकी जाति राजपूत है और जिस गोरखपुर अंचल से आते हैं, वहां ब्राह्मण और राजपूतों के बीच प्रतिद्वंदिता बहुत अधिक है.
ब्राह्मण ग़रीबी रेखा पर
ऐसे में विरोधी दल मान रहे हैं कि ब्राह्मणों की उपेक्षा का लाभ उठाया जा सकता है. इसलिए ब्राह्मण वोटरों को लुभाने के लिए परशुराम को आधार बनाया गया है. किंतु परशुराम को आधार बनाने से ब्राह्मण नहीं आएगा. प्रश्न यह उठता है कि क्या किसी ने ब्राह्मणों के बारे में कुछ सकारात्मक सोचा? यह सोचने के लिए ज़रूरी है कि इस समाज में शिक्षा, जागृति और नए सोच के कुछ उपाय किए जाएं. सच तो यह समाज आज निरंतर गरीब होता जा रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण पिछड़ चुका है. नौकरी मिलती नहीं और अपना व्यापार करने में वह सक्षम नही है. उसे जातीय अहमन्यता में उलझा कर सब अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
Gulabi
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