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देश के प्रशासनिक चिंतन में नई ऊर्जा फूंकने के लिए धर्मशाला में मुख्य सचिवों का सम्मेलन, राष्ट्र के साथ एक नई मुलाकात की तरह है
सोर्स-divyahimachal
देश के प्रशासनिक चिंतन में नई ऊर्जा फूंकने के लिए धर्मशाला में मुख्य सचिवों का सम्मेलन, राष्ट्र के साथ एक नई मुलाकात की तरह है और इसकी मेहमाननवाजी करके हिमाचल को अपनी कठिनाइयों को कहने का अवसर मिलेगा। एक बड़े रोड मैप पर देश को चलाने की उत्कंठा के साथ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह हिमाचल दौरा, पर्वतीय रूह से ऐसा साक्षात्कार हो सकता है जो आने वालह्ये समय में सारे मापदंड बदल दे। पर्वतीय प्रशासन की अपनी सीमाएं इसलिए भी हैं क्योंकि यहां राष्ट्रीय नीतियां तदर्थवाद पैदा करती रही हैं, जबकि राष्ट्रीय उत्थान के मायने संकीर्ण हो जाते हैं। नीति आयोग की स्थापना के बाद योजनाओं को जिस शृंगार की जरूरत है, उसको लेकर धर्मशाला मंथन अपनी भूमिका का विस्तार कर सकता है। जाहिर है 36 राज्यों के मुख्य सचिव तथा नीति आयोग के अधिकारियों समेत देश के करीब 206 वरिष्ठ नौकरशाह जब अगले 25 सालों का खाका बनाएंगे, तो एक नई सदी या भारतीय परिप्रेक्ष्य में नए उजास को देखने का संकल्प भी तो तैयार होगा।
वैसे भारत को आगे बढ़ने के लिए हर खास और आम, ग्रामीण और शहरी, राजनीतिक और प्रशासनिक, किसान और बागबान तथा नई शिक्षा और नए प्रयोगों की जरूरत है, फिर भी पारदर्शिता के साथ केंद्र व राज्यों, शहरी व ग्रामीण निकायों तथा विभिन्न विभागांे के बीच सामंजस्य चाहिए। राष्ट्रीय लक्ष्यों में हर राज्य और हर नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सारी परिपाटी बदलने की जरूरत है। हो सकता है कई योजनाएं बड़े राज्यों या पिछड़े एवं मैदानी राज्यों के लिए कारगर हों, लेकिन छोटे या पर्वतीय प्रदेशों के लिए इनकी उपयोगिता उतनी सफल न रहे। इसी तरह राष्ट्रीय शोध व अध्ययन की वर्तमान प्राथमिकताएं एक बड़े कैनवास पर काम करते हुए यह भूल कर जाती हैं कि पर्वतीय प्रदेशों की जरूरतें भिन्न हैं। विकास के राष्ट्रीय मानचित्र बनाते हुए भी देश के नीति नियंता भूल कर जाते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से पर्वतीय राज्यों के लिए विकास व वित्तीय मदद के अलग मानदंड, तकनीकी तौर पर अंतरराष्ट्रीय पैमाने तथा 'फिजीबिलिटी' के अलग आधार होने चाहिएं। पर्वतीय राज्यों में भी अशांत क्षेत्रों पर राष्ट्रीय संसाधन जिस कद्र न्योछावर होते हैं, उसे देखते हुए जम्मू-कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों के मुकाबले हिमाचल उपेक्षित हो जाता है। एक ओर बड़ी रेल परियोजनाएं कश्मीर घाटी तक पहुंच जाती हैं, तो दूसरी ओर शांत राज्य की बुनियाद पर खड़े हिमाचल को राष्ट्रीय प्रगति के आबंटन में ठिगना होना पड़ता है। ऐसे में केंद्रीय नीतियों, कार्यक्रमों और बजटीय प्रावधानों के तहत अगर पर्वतीय राज्यों को इनसाफ देना है, तो तुरंत प्रभाव से अलग से एक पर्वतीय विकास मंत्रालय का गठन करना होगा। राष्ट्र से कहीं भिन्न पर्वत का जीवन है, इसलिए सदियों से पहाड़ की जवानी और पानी जाया हो रहा है।
देश को ट्रांसपोर्ट कोरिडोर चाहिए, तो पहाड़ को अपनी फसल ढोने के लिए रज्जु मार्ग चाहिए। पहाड़ को बचाने के लिए सुरंग मार्गों या एलिवेटिड रोड नेटवर्क की स्थापना की जरूरत है तो इसके लिए वित्तीय पोषण आसान शर्तों पर होना चाहिए। इसी तरह पर्वतीय विकास और वन संरक्षण अधिनियम के तहत नए संतुलन की जरूरत है। वन भूमि की पैमाइश में अगर हिमाचल-उत्तराखंड जैसे राज्यों की दो-तिहाई जमीन जा रही है, तो इससे इन प्रदेशों की आर्थिक भरपाई कैसे होगी। क्या पर्वतीय जंगलों से चीड़ हटाते हुए अलग तरह की आधुनिक फार्मिंग नहीं अपनानी चाहिए। हिमाचल में जीने के लिए आधी जमीन जंगल और आधी सामान्य तौर पर रहे तो इसके ऊपर आर्थिकी का नया खाका बन सकता है। जंगलों के तहत चाय, काफी, जड़ी-बूटी व कैनेफ जैसी फसलें उगाई जानी चाहिएं तथा निचले इलाकों की वन भूमि को पचास प्रतिशत की सीमा तक घटाते हुए इसकी उपलब्धता में नए हिमाचल के आर्थिक स्रोत विकसित किए जा सकते हैं। यह सब तभी होगा यदि पहाड़ी प्रदेशों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक तथा भौगोलिक विषमताओं से पार पाने के लिए अलग से पर्वतीय विकास मंत्रालय का गठन किया जाए।
Rani Sahu
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