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कल 1971 युद्ध के पचास वर्ष हो रहे हैं
विभूति नारायण राय कल 1971 युद्ध के पचास वर्ष हो रहे हैं। स्वाभाविक रूप से इस मौके पर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अपने-अपने तरह के विमर्श चल रहे हैं। गर्व, हर्ष और विषाद में डूबी इन चर्चाओं के दौरान मेरी दृष्टि बार-बार एक छवि पर टिक जाती है।
16 दिसंबर, 1971 के दिन ढाका के ऐतिहासिक परेड मैदान में एक आत्मसमर्पण समारोह चल रहा है। मुक्ति वाहिनी और भारतीय फौज ने पाकिस्तानी सेना को निर्णायक रूप से हरा दिया है और एक नए राष्ट्र का विश्व पटल पर उदय होने जा रहा है। इस मौके पर लिए गए चित्र को ध्यान से देखें- एक सिख जनरल बगल में बैठे पाकिस्तानी जनरल को समर्पण दस्तावेज का वह बिंदु दिखा रहा है, जहां उसे दस्तखत करना है, उसके ठीक पीछे वह यहूदी जनरल खड़ा है, जिसने इस दस्तावेज का आखिरी ड्राफ्ट तैयार किया था। उनके दाएं-बाएं कई हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई फौजी अफसर ताक-झांककर इस प्रक्रिया को देखने की कोशिश कर रहे हैं, और इन सबसे कई हजार किलोमीटर दूर नई दिल्ली के सेना मुख्यालय में बैठा एक पारसी सेनाध्यक्ष आत्मसमर्पण के इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को संचालित कर रहा था। इस घटना के वर्षों बाद वायु सेना से दो सितारों के साथ रिटायर होने वाले एक मुसलमान अधिकारी ने हंसते हुए मुझे बताया था कि यदि किसी वाइड स्पेक्ट्रम कैमरे से तस्वीर उतारी गई होती, तो बाईं तरफ खड़े वह भी दिख जाते।
यद्यपि भारतीय सेना कभी भी खुद को धर्म या जातियों के खानों मे बांटकर देखना पसंद नहीं करेगी, लेकिन मैं जान-बूझकर इस बिंब में मौजूद छवियों को उनके धर्मों के साथ याद कर रहा हूं। मुझे लगता है कि ऐसा करके मैं उस खतरे से आगाह कर सकता हूं, जिनसे सेना नहीं, बल्कि पूरा भारतीय समाज दो-चार हो सकता है।
मेरा मानना है कि यह एक ऐसा 'विजुअल' है, जिसे दो कारणों से बार-बार याद किया जाना चाहिए। एक तो इसलिए कि इतिहास के लंबे दौर में 1971 का युद्ध उन विरल लड़ाइयों में से एक था, जिसमें भारत राष्ट्र राज्य निर्णायक विजेता के रूप में उभरा था। दूसरा कारण और भी महत्वपूर्ण है। इस तस्वीर में भारत की विविधता अपनी पूरी ठसक के साथ मौजूद है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी और यहूदी सैनिक एक साथ मिलकर मातृभूमि के लिए खून बहा रहे हैं। यदि हम युद्ध में मृतकों और अद्वितीय शौर्य के लिए सम्मानित पदक विजेताओं की सूची देखें, तो यह विविधता और स्पष्ट हो जाती है कि कैसे अलग-अलग भाषाओं, खानपान की आदतों और उपासना पद्धतियों वाले लोग मिलकर लडे़। उन्होंने वह हासिल कर लिया, जिसके लिए हम तब तक तरसते रहे थे।
युद्धों के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी गंभीर छात्र को यह देखकर आश्चर्य होता होगा कि अपने हजारों साल के इतिहास में भारतीय समाज ने इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर शायद ही कभी कोई बड़ा युद्ध जीता हो। अच्छी आबोहवा और धन-धान्य से भरपूर राजे-रजवाड़ों के देशी सैनिक अपने से संख्या में बहुत कम विदेशी आक्रांताओं से हमेशा हारते रहते थे। मुट्ठी भर बाहरी हमलावर खैबर दर्रे से घुसते और देश के उत्तरी पश्चिमी इलाकों को रौंदते चले जाते। एक विदेशी यात्री लिखता है कि जब हमलावर घुड़सवार बगल से धूल उड़ाते गुजरते थे, तो खेतों में काम करने वाले किसान सिर उठाकर आश्चर्य-मिश्रित उत्सुकता से देखते जरूर थे, पर काफिले के गुजर जाने के बाद फिर सिर झुकाकर अपने काम में जुट जाते। एक दूसरा यात्री, जो विजेता सेना के पीछे-पीछे चल रहा था, यह देखकर चकित रह गया कि उनके घोड़ों की टापों की आवाजें सुनकर जो ग्रामीण जंगलों में छिप गए थे, वे उनके जाते ही फिर से अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त हो गए। वह इस गुत्थी को सुलझाने की विफल कोशिश करता रहा कि कैसे एक राष्ट्र की विशाल जनसंख्या निस्पृह होकर लुटेरों को बगल से गुजरते हुए चुपचाप देखती रह सकती थी और ऐसे व्यवहार कर सकती थी कि जैसे उसकी जिंदगी पर कोई असर ही नहीं पड़ा!
इस गुत्थी को सुलझाना कोई मुश्किल नहीं था। अगर वह भारत में जातियों के यथार्थ से परिचित होता, तो समझ सकता था कि राज्य में बहुत कम लोगों की हिस्सेदारी थी। आबादी के छोटे से हिस्से को युद्धों में भाग लेने का अधिकार था, शेष को उनकी हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं था। एक बड़े कवि ने इसी यथार्थ को ही तो व्यक्त किया है यह लिखकर कि कोउ नृप होउ हमहि का हानी? कई बार हमें आश्वस्त करने की कोशिश की जाती है कि हम तो एक शांतिप्रिय समाज थे और लड़ने-भिड़ने में हमारी दिलचस्पी ही नहीं थी। हमारे इसी स्वभाव का फायदा उठाते हुए विदेशी आक्रांता हमें हराते रहे हैं। यह एक लचर दलील है, क्योंकि हमारे छोटे-बड़े शासक तो आपस में हमेशा लड़ते ही रहते थे। लड़ने के पीछे भी अक्सर उनके छोटे-बड़े अहंकार या निजी महत्वाकांक्षाएं ही होती थीं। केवल बाहरी हमलावरों के आगे उनकी नहीं चलती थी। इस सच्चाई से भी हमें मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि अधिकांश मौकों पर स्थानीय नरेशों की सेना संख्या और संसाधनों के लिहाज से विदेशी सेना के मुकाबले बेहतर ही होती थी।
सन् 1971 की इस पहली बड़ी जीत का कारण भी शायद यही था कि इसमें भारतीय सेना सही अर्थों में एक राष्ट्रीय सेना बनकर लड़ी थी। इस सेना की आंतरिक संरचना का अध्ययन करें, तो हमें मिलेगा कि इसमें उन जातियों का वर्चस्व था, जिन्हें आमतौर से पिछड़ी और दलित कहते हैं। इन्होंने जीत दिलाकर उस अन्याय को और शिद्दत से रेखांकित कर दिया, जिसके वे ऐतिहासिक शिकार रहे हैं और जो युद्धों मे हमारी निरंतर पराजय का कारण भी रहा है। एक समावेशी राष्ट्रीय सेना क्या हासिल कर सकती है, सही अर्थों में इसका पता 1971 की जीत से चलता है।
पचास वर्ष पुराना छायाचित्र मुझे सिर्फ इसलिए याद आ रहा है कि इस तस्वीर को फाड़ने के प्रयत्न होते रहे हैं। यह चित्र एक बेहद खूबसूरत कोलाज है और एक भी कोना फटते ही इसका सारा सौंदर्य नष्ट हो जाएगा, और जो कुछ बचा रहेगा, वह एक बार फिर उस बदसूरत यथार्थ की तरह हमारा मुंह चिढ़ाता सा लगेगा, जिसकी वजह से हम हमेशा हारते रहे हैं। यह पूरा कोलाज ही आधुनिक भारत की सच्ची छवि हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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