सम्पादकीय

महंगाई के बाद बिजली संकट सहने को तैयार रहें

Rani Sahu
30 April 2022 9:56 AM GMT
महंगाई के बाद बिजली संकट सहने को तैयार रहें
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भारत की जनता कहां तक और कब तक सह सकती है

रवीश कुमार भारत की जनता कहां तक और कब तक सह सकती है, उसकी इस क्षमता को आप कभी कम न समझें. बर्दाश्त करने के मामले में जनता का जवाब नहीं है. अभी तक ऐसा कोई संकट नहीं आया है जिसे भारत की जनता ने सहकर नहीं दिखाया है. अगर कोई समस्या इस संकोच में धीरे-धीरे आ रही है या नहीं आ रही है कि लोग सह नहीं पाएंगे,उनमें ताकत नहीं बची है. मेरी इन संकोची समस्याओं से अपील है कि वे जल्दी-जल्दी आएं. भारत की जनता को सहने का मौक़ा देकर गौरवान्वित करें. यह कतई न समझें कि भारत की महान जनता इस वक्त समस्याओं से घिरी है तो नई समस्याओं को नहीं सह पाएगी. महंगाई ने उसे डराने का प्रयास किया, जनता महंगाई की सपोर्टर बन गई और इसे बहस से गायब कर दिया. वह समस्याओं को दूर करने का नहीं, बल्कि सहने का अभ्यास कर रही है और काफी सफल है.

अब तो बकायदा टी शर्ट, मग, चादर, बएज पर लिखा आता है कि थोड़ा सह लेंगे. सह लेना भी एक राजनीतिक फैशन हो चुका है. सहने का फैशन ऐसा चल पड़ा है कि भाई लोग थोड़ा नहीं, पूरा सहे जा रहे हैं. सहना एक नया और आधुनिक नागरिक लक्षण है. इसीलिए इसका स्लोगन चिपकाकर कप से लेकर मग तक बाजार में बिक रहा है. मेरी राय में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने अब जनता को किसी भी समस्या को सहने के लिए तैयार कर दिया है. उसे सहना अच्छा लगता है. उसने समाधान के बारे में सोचना छोड़ दिया है. सहना ही नया विकल्प है.आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि जनता के सहने की इस क्षमता की खोज मैंने की है लेकिन प्राइम टाइम में व्यस्त होने के कारण पेटेंट कराने का टाइम नहीं मिल पाया है. आप चाहें तो अपने नाम से पेटेंट करा सकते हैं. टाइटल मेरे हिसाब से रखिएगा-भारत की जनता और सहने की क्षमता.
मेरी राय में एक राष्ट्रीय सूची बननी चाहिए कि भारत की जनता इस वक्त क्या क्या सह चुकी है और सह रही है. और उसे क्या-क्या नया सहने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. यह ध्यान रखना जरूरी है कि पहले जनता मजबूर की जाती थी लेकिन अब जनता सहने के लिए प्रेरित होती है. जनता को जब भी लगे कि वह मजबूर है उसके कान में कह दीजिए कि हम प्रेरित कर रहे हैं, वह सहने लगेगी. उसे प्रेरणा की तलाश है.
जनता ने गोदी मीडिया के हर झूठ को सहकर दिखा दिया है कि सच चाहिए ही नहीं. झूठ ही नहीं, नफ़रती एजेंडे को भी सहकर जनता ने दिखा दिया कि वह नफरत सह सकती है. भारत की जनता आए दिन पत्रकारों की गिरफ्तारी और उन पर होने वाले मुकदमे को सहने लगी है.
नफ़रत देखते-देखते अब लोगों को नफरत फैलाने का काम आसान लगने लगा है. यूपी पुलिस ने सात युवाओं को गिरप्तार किया है जो मस्जिद के बाहर आपत्तिजनक चीज़ें फेंककर तनाव फैलाना चाहते हैं. सहने वाले यहां तक सह रहे हैं कि उनके बच्चे दंगा फैलाने का काम कर रहे हैं. इन सातों के नाम को लेकर गोदी मीडिया चुप ही रहेगा और गोदी मीडिया के जरिए नफरत करने वाला समाज भी चुप रहेगा. अयोध्या पुलिस ने महेश कुमार मिश्रा को मास्टर माइंड बताया है और उसके बाकी साथियों के नाम प्रत्युष श्रीवास्तव, नितिन कुमार, ब्रिजेश पांडे, दीपक कुमार गौर, शत्रुघ्न प्रजापति और विमल पांडे हैं. गोदी मीडिया का प्रोजेक्ट समाज में सफल हो रहा है. अगर इनके नाम कुछ और होते तो घर पर बुलडोज़र चल चुका होता. एक पत्रकार ने कहा कि उसने यह ख़बर इसलिए की है कि लोगों की आंखें खुल जाएं तो मैंने उन्हें अपनी थ्योरी बताई कि जनता ने जागना छोड़ दिया है, सहना शुरू कर दिया है. मैंने उस पत्रकार को बताया कि मैं इन दिनों एक "राष्ट्रीय सहना सूचकांक" तैयार कर रहा हूं ताकि पता चले कि भारत की जनता ने क्या क्या सहकर दिखाया है. लेकिन, मैं इस लिस्ट में नोटबंदी शामिल नहीं कर रहा हूं.
मुझे पता है कि आपने नोटबंदी सह कर सहने का रिकार्ड बनाया है और जब कभी आपके सहने को लेकर मील का पत्थर गाड़ा जाएगा, नोटबंदी के नाम से एक पत्थर ज़रूर गाड़ा जाएगा. काला धन ख़त्म हो रहा है. इसके नाम पर आपने अपने धन का खत्म होना सहा. आपकी पूंजी नष्ट हो गई लेकिन आपने सहकर दिखा दिया कि आप इस हद तक सह सकते हैं. यही नहीं चूंकि आपको आगे भी सहना था इसलिए तुरंत नोटबंदी भूल भी गए. उस समय प्रधानमंत्री ने जनता से कहा था कि पचास दिन दीजिए. लोग लाइन में लग गए और सहने लगे. काला धन खत्म करने के नाम पर नोटबंदी की गई लेकिन नोटबंदी से कितना काला धन प्राप्त हुआ, पता नहीं. लोगों ने इसे भी सह लिया. फिर कहा गया कि स्विस बैंक में काला धन है तो सरकार ने बताया कि दस साल में कितना काला धन जमा हुआ, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. जनता ने इसे भी सहा. देश में डिजिटल पेमेंट बढ़ा है लेकिन नोटबंदी के समय जितना कैश चलन में था आज उससे भी ज्यादा कैश चलन में है. 68 प्रतिशत ज्यादा है. क्या जनता ने नोटबंदी सहकर नहीं दिखाया? बिल्कुल दिखाया.
इसलिए नोटबंदी को हमने "राष्ट्रीय सहनशक्ति सूचकांक" से बाहर कर दिया क्योंकि हम यह भी नहीं चाहते कि सहने की राष्ट्रीय सूची लंबी हो जाए. एक निवेदन और है. जब भी राष्ट्रीय सहनशक्ति सूचकांक बने, इसके लिए रिटायर्ड अंकिलों और रिश्तेदारों के व्हाट्सऐप ग्रुप में सर्वे अवश्य हो. उसके बाद ही सूचकांक बने. फिलहाल, संक्षेप में "राष्ट्रीय सहनशक्ति सूचकांक" में शामिल मुद्दे इस प्रकार हैं -
भारत की जनता ने बेरोज़गारी की बढ़ती दरों को शानदार तरीके से सहकर दिखाया है.
CMIE की रिपोर्ट है कि दो करोड़ युवाओं ने काम मांगना बंद कर दिया है, मगर सहना नहीं छोड़ा.
कोई दूसरा रोज़गार को मुद्दा न बना सके इसके लिए युवा बेरोज़गारी सहने लगे.
बेरोज़गारी के बाद जनता ने महंगाई सहने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं.
103 रुपये लीटर से लेकर 121 रुपये लीटर पेट्रोल का रेट सहकर दिखा दिया.
सीएनजी,सिलेंडर,साबुन, सरसों तेल इत्यादि के बढ़ते दामों को सहकर दिखा दिया.
बैंकों में बचत दर के घटने और निगेटिव रिटर्न को भी जनता ने दिखाया कि कोई बात नहीं, सह लेंगे.
ठीक एक साल पहले आक्सीजन की कमी से कितने लोग मर गए, लेकिन जब सरकार ने कहा कि आक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा तो जनता ने सहकर दिखा दिया.
जनता की इस क्वालिटी की तारीफ न करने वाले, राजनीतिक इतिहास का एक अहम चैप्टर मिस कर रहे हैं. नौकरी गंवाकर, नौकरी न पाकर, सैलरी गंवाकर, सैलरी घटवाकर, महंगाई से परेशान होकर, ग़रीब होकर, क्या जनता ने हर बार पहले से ज़्यादा सहकर नहीं दिखाया, तो फिर उसकी तारीफ में क्या दिक्कत है. इसलिए कहता हूं कि अगर आपके पास कोई बड़ी समस्या है तो ले आईए, जनता सहकर दिखा देगी. सुशील महापात्रा ने एक आटो चालक से बात की. इस बातचीत में समस्या के साथ सहना भी दिखाई दिया. जनता ने सहने की भाषा में समस्या को व्यक्त करने की कला सीख ली है.
क्या करना है ये समझ नहीं आ रहा, लेकिन सभी को यह समझ आ रहा है कि सहना है. मगर कहना नहीं है, आज उनसे आखिरी बार, तुम्ही तो लाए हो जीवन में मेरे बर्बादी का संसार. इसकी जगह पर लोग कुछ और गा रहे हैं, सहना है, रहना है तो सहना है. आज हमको सौ सौ बार. चूल्हे में जाए बहार.... ऐसा नहीं है कि लोगों में आक्रोश नहीं है, है लेकिन एक समुदाय के प्रति आक्रोश है. गोदी मीडिया हर दूसरे दिन हिन्दू मुस्लिम टॉपिक लेकर आता है ताकि करोड़ों दर्शक आक्रोश निकालते रहें. कितनी हताशा होगी जब कोई फीस नहीं दे पाता होगा, किताब नहीं खरीद पाता होगा, थाली में सब्जी नहीं होती होगी. नींबू नहीं होता होगा. व्रत के संदर्भ में भी सहना का इस्तेमाल होता है. व्रत करने वाले लोग अक्सर कहते हैं कि आज सह रहे हैं. इस लिहाज़ से जनता सहने का राष्ट्रीय व्रत कर रही है. उसे सहना अच्छा लगता है. बदलाव की जगह बहस अच्छी लगती है. तभी तो पेट्रोल के दाम कम नहीं हुए लेकिन एक पूरा दिन इस बहस में काट दिया कि किस राज्य में टैक्स कितना है.
कई इलाकों में दो से दस घंटे की बिजली काटी जा रही है. लोग रात भर जाग रहे हैं. गर्मी से परेशान हैं. लेकिन क्या जनता ने कई-कई घंटों की बिजली कटौती सहकर साबित कर दिया है कि वह सहने के मामले में किसी भी हद तक जा सकती है. अखबारों में हर राज्य से खबरें भरी पड़ी हैं कि कई घंटे तक बिजली नहीं आ रही है. 46 डिग्री सेल्सियम की गर्मी में कई घंटे तक बिजली की कटौती सहकर जनता ने साबित कर दिया है कि वह केवल महंगाई और बेरोज़गारी ही नहीं, कुछ भी सह सकती है. कई साल से टीवी पर हिन्दू मुस्लिम डिबेट सह सकती है तो महंगाई क्यों नहीं सह सकती है.
बिजली का संकट है या नहीं, कोयले का संकट है या नहीं, विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद हैं. एक तरफ सरकार कहती है कि कोई संकट नहीं है, दूसरी तरह जनता कहती है कि बिजली कट रही है. भारत में दो प्रकार की बिजली कटौती होती है. एक घोषित होती है जो हमेशा कम घंटे के लिए होती है और दूसरी अघोषित होती है जो कई घंटे के लिए होती है. लेकिन जनता को दोनो प्रकार की कटौतियां सहने का अभ्यास है. कानपुर के लोग भी 6-7 घंटे बिजली की कटौती सह रहे हैं और सहने के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं.
संकट जब भी अभूतपूर्व होता है, जनता सहने की सीमा बढ़ा देती है. वह सहना शुरू कर देती है. उधर सरकार भी मौका पाकर कहना शुरू कर देती है कि कोई संकट नहीं है. 6 अप्रैल को लोकसभा में सरकार ने कहा कि देश में कोयले की कोई कमी नहीं है. सरकार ने डेटा देकर बता दिया कि कोयले का स्टाक ज्यादा ही है, कम नहीं हुआ है. 26 अप्रैल को PIB ने अपनी प्रेस रिलीज़ में कहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था काफी अच्छा कर रही है इसलिए बिजली की मांग बढ़ गई है. 27 अप्रैल को केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी का बयान है कि घबराने की ज़रूरत नहीं है. सरकार हालात पर नज़र बनाए हुए हैं. देश को जितना कोयला चाहिए हम उतना कोयला देंगे.
तर्क दिया जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था सुधार की ओर है इसलिए बिजली की मांग बढ़ी है. अगर यह बात है तब फिर इंडस्ट्री के लिए बिजली की कटौती क्यों हो रही है? इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर 31 मार्च की है. इसके अनुसार गुजरात ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड ने राज्यों के उद्योगों से कहा है कि सप्ताह में एक दिन अनिवार्य रूप से फैक्ट्री बंद रखें. राजस्थान में भी उद्योगों से कुछ घंटों की कटौती की खबरें छपी हैं.
यह नौबत क्यों आई? अगर आर्थिक प्रगति हो रही है तब तो उसके अनुसार अंदाज़ा होना चाहिए था, इंतज़ाम होना चाहिए था. फिर फैक्ट्री क्यों बंद की जा रही है. हर समय एक नया कारण लांच हो जाता है लेकिन इसी तरह का कारण तो पिछले साल भी दिया जा रहा था. डाउन टू अर्थ, लाइव मिंट से लेकर कई मीडिया वेबसाइट पर पिछले साल अक्टूबर के कोयला संकट की खबरों को पलटिए. डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट कहती है कि त्योहारों के इस सीज़न में बिजली संकट का आना दिख रहा है. उस समय कारण बताया गया है कि चीन के शांग्शी प्रांत में बाढ़ के कारण कोयले की आपूर्ति प्रभावित हुई है और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कोयले का दाम काफी बढ़ गया है.10 अक्तूबर 2021 के दिन बिजली मंत्री आरके सिंह और कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी का बयान छपा है कि भारत में कोयले की कमी के कारण बिजली की कटौती नहीं होगी. लेकिन रिपोर्ट के अनुसार ज़मीन पर बिजली की कटौती हो रही थी. डाउन टू अर्थ की इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल अक्टूबर में भी ज्यादातर थर्मल पावर प्लांट के पास कोयले का स्टाक छह दिन से ज़्यादा का नहीं बचा था. अक्टूबर में कोयला संकट की खबर लाइव मिंट में भी छपी है. अप्रैल की तरह अक्टूबर में भी सरकार कहती है कि बिजली की मांग में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई है.
अक्तूबर की रिपोर्ट से पता चलता है कि कोयला संकट तब भी हमारे सामने आया था लेकिन मौसम ठंडा होने के कारण उसका विकराल रूप नहीं दिखा. उस समय की रिपोर्ट में जो आशंका जताई गई थी, वो इस समय सही साबित होते नज़र आ रही है.
एक रिपोर्ट CNBC की पिछले साल अक्तूबर की है. इसमें रेटिंग एजेंसी CRISIL के हेतल गांधी का बयान छपा है कि पिछले चार साल में पावर प्लांट के पास औसतन 18 दिनों का स्टाक होता था जो दिसंबर 2021 तक 8-10 दिन का हो जाएगा. हेतल गांधी कहते हैं कि मार्च के आखिर तक भी 18 दिनों के स्टाक के लेवल पर नहीं पहुंच सकेंगे.
दोनों बार के जवाब में एक बात आम है कि बिजली की मांग अभूतपूर्व है, रिकार्ड मांग पूरी की गई है लेकिन क्या इसके नाम पर जवाबदेही से बचा जा रहा है? अक्तूबर से लेकर अप्रैल तक हालात में सुधार क्यों नहीं हुआ, अप्रैल में संकट क्यों आया? पिछले साल भी मंत्री कह रहे थे कि कोयले की कमी नहीं है, इस साल भी कह रहे हैं कि कोयले की कमी नहीं है तो फिर ये कौन है जो बिजली कटौती का शोर मचा रहा है. क्या लोगों ने खुद से पंखा बत्ती बंद कर लिया है और सहना शुरू कर दिया है?
26 अप्रैल को बिजली मंत्री आरके सिंह के कार्यालय की तरफ से ट्वीट किया जाता है कि आज बिजली की मांग सबसे अधिक थी और मांग पूरी की गई. 201 गीगा वॉट से भी ज्यादा. पिछले साल का रिकार्ड टूट गया. 20 अप्रैल को राहुल गांधी का ट्वीट है कि 8 साल से बड़ी बड़ी बातें हो रही हैं और केवल आठ दिन का कोयला बचा है. फैक्ट्रियां बंद होंगी तो और नौकरियां जाएंगी. इस ट्वीट पर केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने जवाब दिया कि राहुल गांधी हर चीज़ के एक्सपर्ट बन जाते हैं. उन्हें पता होना चाहिए कि कोयला कंपनियों ने अब तक का रिकार्ड उत्पादन हासिल किया है. कैप्टिव माइन्स का ग्रोथ 30 प्रतिशत है. प्रह्लाद जोशी विस्तार से बताते हैं कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी के योग्य नेतृत्व में कोयले का उत्पादन बढ़ा है और स्टाक की कोई कमी नहीं है.
राजस्थान के विद्युत विभाग के प्रधान सचिव भास्कर सावंत का बयान छपा है कि 10000 मेगावाट उत्पादन की क्षमता है मगर उत्पादन 6600 मेगावाट ही हो पा रहा है. राजस्थान में भी कटौती हो रही है. दिल्ली सरकार ने आज कहा कि केवल दो दिनों के लिए कोयले का स्टाक है. अगर सुधार नहीं हुआ तो मेट्रो और अस्पतालों में बिजली की सप्लाई की दिक्कत आ सकती है. सत्येंद्र जैन के इस बयान के बाद NTPC दादरी ने ट्वीट किया है कि दादरी की 6 और ऊंचाहार की 5 इकाइयां पूरी क्षमता के साथ चल रही हैं. नियमित रूप से कोयला की आपूर्ति हो रही है. स्टाक होने के नाम पर संकट को खारिज किया जा रहा है तब फिर जो लोग बिजली कटोती का दंश झेल रहे हैं वो इसे कैसे सह रहे हैं. बिजली संकट ने व्यापार को तगड़ा झटका दिया है. उत्पादन ठप होने से छोटे उद्योग धंधों पर कितना बुरा असर पड़ रहा होगा, इसकी भरपाई कौन करेगा?
सरकार दावा करने में लगी है कि कोयले की कोई कमी नहीं है. लेकिन लोग बिजली कटौती सह रहे हैं. क्या लोग खुद से पंखा बत्ती बंद कर बिजली कटौती सहने का अभ्यास कर रहे हैं? Central Electricity Authority (CEA) ने कोयले के स्टाक पर रिपोर्ट जारी की है. हर दिन एक रिपोर्ट जारी होती है. इसके अनुसार 56 थर्मल पावर प्लांट में कोयला का स्टाक 10 प्रतिशत और उससे भी कम बचा है. इनमें से 26 थर्मल प्लांट में 0 से 5 प्रतिशत कोयला का स्टाक बचा है. 30 थर्मल पावर में 6 से 10 प्रतिशत ही कोयला का स्टाक बचा है.
सेट्र्ल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी मान रही है कि वह जिन 56 थर्मल पावर प्लाट की निगरानी करती है उसमें कोयले का स्टाक कम है. 19 अप्रैल को 48 ऐसे प्लांट थे जिनके पास 10% या उससे कम का कोयला स्टॉक बचा था, 24 अप्रैल को यह संख्या बढ़कर 54 हो गई और अब 27 अप्रैल को यह थोड़ा और बढ़कर 56 हो गई है. बिहार के बिजली मंत्री भी कहते हैं कि 1000 मेगावाट बिजली की कमी है. बिहार सहित देश भर में संकट है.
अखबार लिख रहे हैं कि छह साल में ऐसा बिजली सकंट नहीं देखा. सरकार कहती रही कि कोयले की कोई कमी नहीं. अब वही सरकार पैसेंजर ट्रेनों को रद्द कर रही है ताकि उनसे कोयला थर्मल प्लांट तक पहुंचाया जा सके. आम यात्रियों के जीवन पर क्या असर पड़ा रहा होगा, कुछ जगहों पर सांसदों ने विरोध किया है कि पैसेंजर ट्रेनें कैंसल न हो. जिस रूट पर ट्रेनों को रद्द किया गया है वहां लोग बिजली की कटौती के साथ यात्रा की दिक्कतें भी सहेंगे.
ये लू की लहरें क्यों चल रही हैं, जलवायु परिवर्तन का असर हम लगातार देख रहे हैं. कभी भयंकर गर्मी तो कभी भयंकर बारिश. जलवायु परिवर्तन के विषय का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता है लेकिन यह इसी वक्त हमारी आंखों के सामने कितने करोड़ भारतीयों का जीवन प्रभावित कर रहा है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या कोयले का यह संकट इसलिए पैदा किया जा रहा है ताकि और जंगलों की कटाई हो, और खदान दिए जाएं. छत्तीसगढ़ के सुरजापुर में लोग पेड़ों के काटे जाने का विरोध कर रहे हैं. लू की लहरों से 2 मई तक राहत मिलने की उम्मीद नहीं है. मौसम विभाग ने कई राज्यों के लिए यलो अलर्ट जारी किया है कि लोग लू से सावधान रहें.
जनता सह लेगी. जब वह महंगाई के संकट को सह रही है तब वह बिजली के संकट को भी सह लेगी. सह भी रही है. अब देखिए, सांसद और विधायक पेंशन ले रहे हैं, आप सह रहे हैं. आपकी पेंशन नहीं हैं, आप सह रहे हैं. अनुराग द्वारी की एक रिपोर्ट बताती है कि पूर्व सांसदों की पेंशन पर 2020-21 में 100 करोड़ खर्च हुआ और जो लोग जीवन भर काम कर रिटायर हुए वे पेंशन के नाम पर 2000 रुपये में गुज़ारा कर रहे हैं. यानी सह रहे हैं.
बोलना ज़रूरी है. बोलने से पता चलता है कि आप कुछ समझ रहे हैं. सहने से मेरा तात्पर्य यही है कि बोलना बंद हो गया है. हर तरह का कुतर्क सहा जा रहा है. आपके चुप रहकर सहते जाने से सूचनाओं का प्रभाव समाप्त हो रहा है. आप महंगाई सह रहे हैं. बिजली की कटौती सह रहे हैं. बेरोज़गारी सह रहे हैं. नफ़रत की राजनीति सह रहे हैं. सहते सहते सधते जा रहे हैं.
Rani Sahu

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