सम्पादकीय

सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सेवा के लिए नहीं, चुनाव जीतने भर के लिए हमसे लुभावने वादे करते हैं

Gulabi Jagat
24 March 2022 8:47 AM GMT
सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सेवा के लिए नहीं, चुनाव जीतने भर के लिए हमसे लुभावने वादे करते हैं
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चुनावी वादे समय की पगडण्डी की तरह होते हैं
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
चुनावी वादे समय की पगडण्डी की तरह होते हैं। प्रचार का वक्त गुज़रने, वोटिंग हो जाने और परिणाम घोषित हो जाने के बाद उस पर इतनी घास-फूस उग आती है कि वादों के पदचिह्न भी नज़र नहीं आते। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सेवा के लिए नहीं, चुनाव जीतने भर के लिए प्रत्याशी हमसे लुभावने वादे करते हैं और हम उन्हें मान भी लेते हैं। बड़ी आसानी से। अपार सहजता से।
ये सच है कि नेताओं को देखते ही हमारे होंठों पर कई किंतु-परंतु आ जाते हैं। लेकिन हम उन किंतु-परंतुओं को सवालों में परिवर्तित करने के बजाय अपने हाथों से पोंछ देते हैं। इस भ्रम के साथ कि जीभ तो केवल हुकूमत की होती है, इंसान तो कब से चुप है। बल्कि यह चुप्पी ही हमारा, हम सब का परम धर्म है। जाने कब से। जाने कब तक!
बात महंगाई की हो रही है। सब कुछ महंगा हो चुका है। ऊपर से पेट्रोल-डीज़ल प्राण लिए हुए हैं। चुनाव हो रहे थे, तभी यूक्रेन-रूस का युद्ध शुरू हो चुका था। महंगे तेल की आशंका तब भी थी। बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तो तेल तभी महंगा हो चुका था लेकिन चूंकि पांच राज्यों के चुनाव चल रहे थे, वोटिंग होना बाक़ी थी, इसलिए सरकार यह वाहवाही लूटने में लगी रही कि कच्चा तेल महंगा होने के बावजूद पेट्रोल-डीज़ल के भाव नहीं बढ़ाए जा रहे हैं।… और अब चुनाव पूर्ण होते ही भाव बढ़ा दिए गए। लिहाजा कहीं पर पेट्रोल 108 रुपए लीटर हाे गया है तो कहीं 110 रुपए लीटर।
वो भी क्या जमाना था- जब दस रुपए लीटर पेट्रोल था और पांच रुपए का आधा लीटर पेट्रोल डलवाकर लूना की शानदार सवारी पूरे हफ्ते चला करती थी। वीपी सिंह जब देश के प्रधानमंत्री थे, तब के लोगों को यह बात भलीभांति याद होगी। फिर सरकारें जल्दी-जल्दी बदलती गईं। वीपी के बाद चंद्रशेखर सरकार आई। फिर गुजराल और देवेगौड़ा सरकारें और फिर… फिर… नई-नई सरकारें।
सरकारें बदलती गईं, तेल की क़ीमतें आसमान छूती गईं। लोग मज़ाक़ किया करते थे कि एक जमाना ऐसा भी आएगा जब सौ रुपए में एक लीटर पेट्रोल आया करेगा। आज जमाना उसके भी पार पहुंच चुका है। पेट्रोल सौ रुपए के पार हो चुका है। आगे कहां तक पहुंचेगा, पता नहीं। लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं है। सरकार को तो बिलकुल नहीं। किसी भी सरकार को नहीं। न केंद्र सरकार को। न राज्य सरकारों को।
कहा जा सकता है कि बेचारी सरकारें क्या करें? युद्ध चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल महंगा होगा तो हमारे यहां भी महंगा बिकेगा ही। इसमें सरकार की क्या गलती? सही है। सरकारें ही सही होंगी। लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल सस्ता होता है तब हमारे यहां पेट्रोल या डीज़ल सस्ता क्यों नहीं होता? तब सरकारों का पक्ष लेने वाला यह तर्क कहां चला जाता है?
बहरहाल, पूरा देश फ़िलहाल 'द कश्मीर फाइल्स' को देखने में जुटा हुआ है। सच है, कश्मीरी पंडितों का दर्द असहनीय था और अब भी है। अब भी इसलिए असहनीय है क्योंकि हमारी सरकारें संवेदनहीन होती हैं। पक्ष कोई भी हो, पार्टी कोई भी हो, सरकारों का स्वभाव एक जैसा ही होता है। जो सरकार कश्मीरी पंडितों के दर्द पर नहीं पसीजीं, वे पेट्रोल-डीज़ल के दामों में बढ़ोतरी पर कैसे पसीज सकती हैं भला? इसलिए भलाई इसी में है कि महंगे से महंगा पेट्रोल-डीज़ल इस्तेमाल करते जाइए और सरकार के गुण गाते जाइए। आख़िर बिना मोटरसाइकिल या कार के चलना अब दूभर जो हो चुका है!
बेचारी सरकारें...
कहा जा सकता है कि बेचारी सरकारें क्या करें? अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल महंगा होगा तो हमारे यहां भी महंगा बिकेगा ही। सही है। पर जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल सस्ता होता है तो हमारे यहां पेट्रोल-डीज़ल सस्ता क्यों नहीं होता?
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